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उत्तर प्रदेश: क्या जाति के 'ठेकेदारों' के दम पर लोकसभा की सभी 80 सीटें जीत पाएगी बीजेपी?

बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले अपने पुराने सहयोगियों को एक बार फिर साथ ला रही है. इन पार्टियों को साथ लाकर बीजेपी का मकसद छोटे-छोटे पॉकेटों पर भी अपनी पकड़ बनाना है जहां पर जातीय समीकरण प्रभावी हैं

साल 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटें जीतने के लक्ष्य को पूरा करने की कवायद में जुटी है. हाल ही में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में वापसी की. वहीं मऊ जिले के घोसी से समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायक दारा सिंह चौहान ने भी समाजवादी पार्टी (सपा) से इस्तीफा देकर बीजेपी में शामिल हो गए. 

बता दें कि दारा सिंह चौहान पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक ओबीसी नेता हैं. दारा सिंह योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल के दौरान वन मंत्री थे. वह 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी छोड़कर सपा में शामिल हो गए थे.

ये दोनों ही नेता पूर्वी उत्तर प्रदेश में खास राजनीतिक पकड़ रखते हैं. इस क्षेत्र के दो प्रभावशाली नेताओं को शामिल करके बीजेपी ने यूपी के पूर्वांचल (पूर्वी क्षेत्र) के लिए अपनी योजनाओं की घोषणा की है. भगवा पार्टी का पहले से ही इस क्षेत्र में अपना दल और निषाद पार्टी के साथ गठबंधन है. 

बता दें कि उत्तर प्रदेश में राजभरों को एक महत्वपूर्ण ओबीसी समूह माना जाता है. ये यूपी की आबादी का केवल 3 प्रतिशत माने जाते हैं. गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ और वाराणसी सहित पूर्वी यूपी की एक दर्जन से ज्यादा लोकसभा सीटों पर इनका प्रभाव माना जाता है.

राजनीति के जानकारों का कहना है कि पूर्वी यूपी के 10-12 जिलों में राजभरों का बहुत प्रभाव है, जहां उनकी संख्या 15-20 प्रतिशत है. वे चुनाव परिणाम तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. राजभर पाला बदलते रहते हैं, इसलिए वोटों का विभाजन का नतीजों पर असर जरूर डालेगा. 

जाति की राजनीति को बीजेपी बना रही अपना हथियार

यूपी की राजनीति पर खास पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला ने एबीपी न्यूज को बताया कि उत्तर प्रदेश में जाति की दलितों की राजनीति के सहारे बीएसपी ने जड़ें जमाई, और वो सत्ता तक पहुंची. बीएसपी के नेता भी दलित या अन्य पिछड़ा वर्ग के थे. बीएसपी की इसी कवायद ने एक बहुत बड़ा राजनीतिक मैसेज दिया कि कोई भी एक जाति से जुड़ी हुई पार्टी सत्ता तक पहुंच सकती है.  इसी तरह समाजवादी पार्टी ने ओबीसी के सबसे बड़े वोटबैंक यादवों में अपनी पैठ बनाई और यूपी की सत्ता तक पहुंच गई. अपना दल और निषाद पार्टी या भारतीय समाज पार्टी इसी चुनावी मैसेज के बाद उभरी हुई पार्टियां हैं यानी तमाम जातियों ने अपना दल बनाया. ऐसी ही एक पार्टी का उदाहरण पीस पार्टी है. ये 2008 में बनी थी.  

पीईसीपी या पीस पार्टी ने 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में लगभग 208 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, जहां इसे 2.35 प्रतिशत वोट मिले. वो वोटों के प्रतिशत से पांचवें स्थान पर रही थी. पीस पार्टी को आधिकारिक तौर पर एक राज्य पार्टी के रूप में मान्यता मिली. पीस पार्टी और राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल (आरयूसी) ने संयुक्त लोकतांत्रिक गठबंधन के बैनर तले 2022 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव एक साथ लड़ा था. 

बृजेश शुक्ला ने आगे कहा कि ये ऐसी पार्टियां है जिनका यूपी के छोटे-छोटे क्षेत्रों में बहुत मजबूत पकड़ है. बीजेपी इस बात को अच्छी तरह से जानती है. इन छोटे-छोटे तबकों को जोड़ लेने पर पार्टी को बड़ा फायदा होगा. 

जातीय वोट बैंक से आधार को मजबूत बनाने की कोशिश में बीजेपी

बृजेश शुक्ला ने आगे कहा कि विधानसभा चुनाव में राजभर की वजह से बीजेपी को भारी नुकसान उठाना पड़ा था. राजभर की वजह से आजमगढ़, कौशांबी, गाजीपुर, मऊ जैसे जिलों में बीजेपी का सफाया हुआ था. इसकी बड़ी वजह ये थी कि पिछड़ा वर्ग जो 2017 में बीजेपी के साथ था वो राजभर के पाले में जा चुका था. इसलिए 2024 के चुनाव से पहले बीजेपी ने राजभर से समझौता कर लिया है. वहीं दारा सिंह चौहान जो यूपी में चौहानों के नेता माने जाते हैं. वो भी बीजेपी के पाले में हैं. 

शुक्ला ने कहा कि फागू चौहान को बीजेपी ने बिहार का गवर्नर बनाया था. साफ है कि बीजेपी के सबसे बड़े रणनीतिकार अमित शाह ने बहुत ही चतुराई से ये मुआयना किया है कि कहां पर कौन सी जाति ज्यादा प्रभावी हो सकती है. ठीक इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश से सैनियों को पार्टी में लाने की पुरजोर कोशिश है. कश्यप जाति को भी जोड़ा जा चुका है. यही कारण है कि इतने बड़े किसान आंदोलन और राष्ट्रीय लोक दल से गठबंधन के बावजूद सपा जीत नहीं सकी. शुक्ला ने कहा कि छोटी पार्टियां बीजेपी को भले ही छोटे पैमाने पर फायदा पहुंचाए लेकिन ये फायदा बीजेपी को बहुत मजबूत बनाएगा. 

जानकारों का ये मानना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों का बहुत असर है. दारा सिंह का एक बड़ा जनाधार मुनिया जाति का है. राजभर करीब 8-10 जिलों में पाए जाते हैं. मऊ ,गाजिपुर, के अलावा अंबेडकरनगर में राजभरों का भारी जनाधार है. बुदेलखंड में दलितों की बहुत बड़ी संख्या है. बीजेपी इन सभी को साथ लाने के लिए नई-नई तरकीबें ढूंढ रही है.  बुंदलेखंड के पटेल पहले से ही बीजेपी के साथ जुड़े हैं. जातिगत आधार पर देखें तो यूपी के सोलह जिलों में कुर्मी और पटेल वोट बैंक छह से 12 फीसदी तक है. इनमें मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिले प्रमुख हैं. 

शुक्ला ने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद कोली समुदाय के थे. बीजेपी ने कोली समुदाय को बड़ी मजबूती से पकड़ कर रखा हुआ है, उनके तमाम नेता बीजेपी के साथ हैं. इसी तरह पश्चिम उत्तर प्रदेश में सैनियों का बहुत बड़ा प्रभाव है. यहां सैनी समुदाय पिछड़ी जाति की रीढ़ मानी जाती है. सैनी जाति के तीन बड़े नेता बीजेपी में शामिल होने जा रहे हैं.

शुक्ला  का कहना है कि बीजेपी जाट समुदाय को भी अपने साथ लाने की पूरी कोशिश कर रही है. इसके लिए जयंत चौधरी से भी पर्दे के पीछे बातचीत चल रही है. जयंत का मानना या न मानना दूसरी बात है लेकिन जयंत के नीचे का जो तबका है बीजेपी उसे अपने पाले में जरूर ले आएगी. बीजेपी की रणनीति एक एक जिलों को साधने की है. और इसका असर भी दिख रहा है. 

पॉकेट वोट पर बीजेपी की नजर

यूपी की राजनीति पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने एबीपी न्यूज को बताया कि बीजेपी ने साल 2014 में ही गैर यादव वोट बैंक को साधने के लिए कोशिशें शुरू कर दी थी. यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर गैर यादव ओबीसी का वोट पांच लाख से लेकर साढ़े आठ लाख तक है. आंकड़ों से पता चलता है कि यूपी में सबसे बड़ा वोट बैंक पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का है जो कि लगभग 52 फीसदी है. इसमें में भी 43 फीसदी वोट बैंक गैर यादव बिरादरी का है जो कभी किसी पार्टी के साथ स्थाई रूप से नहीं खड़ा रहता आया है, इसे अपने साथ लाने की कवायद बीजेपी ने 2014 में ही शुरू कर दी थी तब अमित शाह को यूपी का इंचार्ज बनाया गया था. 

ओबीसी में यादव वोट समाजवादी पार्टी के साथ था लेकिन गैर यादव वोट समाजवादी पार्टी के साथ पूरी तरह कभी नहीं था, कुछ जातियां जरूर सपा के पाले में कभी न कभी रही हैं. दूसरी तरफ बीएसपी के साथ दलितों में जाटवों का वोट था, लेकिन गैर जाटव वोट नहीं था. बीजेपी ने गैर यादवों और गैर जाटवों को साथ लाने की कोशिश की और छोटे- छोटे दल जैसे अपना दल, संजय निषाद की पार्टी निषाद पार्टी को बीजेपी अपने साथ लाई. इसका फायदा बीजेपी को 2014 और 2017 के विधान सभा चुनाव में भी मिला. बीजेपी ने 2019 में भी यही कोशिश की. इस बार ये कोशिश इसी के तर्ज पर फिर से की जा रही है. 

विजय त्रिवेदी ने आगे कहा कि 2019 में बीजेपी ने दो सीटे बहुत मुश्किल से जीती थी. जिसमें मछली शहर और बलिया लोकसभा सीट थी. मछली शहर में ओपी राजभर  की पार्टी सुभासपा को 11 हजार 233 वोट मिले थे, बीजेपी इस सीट पर 181 वोटों से ही जीत पाई.  

वहीं बलिया में 15 हजार 5 सौ 19 वोट बीजेपी के अंतर से बीजेपी जीती थी. इसी सीट पर  सुभासपा को 39 हजार वोट मिले थे. यानी इन दो सीटों से समझा जा सकता है कि ये छोटी पार्टी बीजेपी को कितना फायदा और नुकसान पहुंचा सकती है. 

बीजेपी ने संजय निषाद की पार्टी के नेता प्रवीण कुमार को संत कबीर नगर से अपने टिकट से चुनाव लड़वाया था. इस तरह प्रवीण कुमार को निषाद वोट मिले जो बीजेपी के खाते में आए. वहीं अनुप्रिया पटेल की अपना दल को 1.2 प्रतिशत वोट मिला था. ये पार्टियां बीजेपी को सीधा फायदा पहुंचा रही हैं. अब बीजेपी दोबारा से यही कोशिश कर रही है. बीजेपी छोटे -छोटे दलों के पॉकेट वोट को अपने कब्जे में करना चाह रही है. 

सत्ता विरोधी लहर और इंडिया का भी करना है सामना

पीएम मोदी की अगुवाई में बीजेपी लगातार तीसरा लोकसभा चुनाव लड़ने जा रही है. बीजेपी यूपी में 2014 से लेकर 2022 तक लगातर चुनाव जीतती रही है. सीएम योगी ने भी दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है. राजनीतिशास्त्र के विद्वानों का मानना है कि किसी भी पार्टी का लगातार जीतना भी उसके लिए हर चुनाव में 'खतरा' बन जाता है. माना जाता है कि ऐसी स्थिति में 'वोटर्स फटीग' यानी 'मतदाताओं में ऊब' जैसे हालात पैदा होते हैं. उनकी उम्मीदें बढ़ जाती हैं. मौजूदा सरकार की ओर से उठाए गए कल्याणकारी कदम अब नाकाफी साबित होने लगते हैं और वोटर्स के मन में बदलाव की बातें आती हैं. हालांकि बीजेपी ने इस समीकरण को 2019 के लोकसभा चुनाव में ध्वस्त कर दिया था. लेकिन उस चुनाव में बालाकोर्ट में हुई एयर स्ट्राइक के बाद पूरे देश में राष्ट्रवाद की लहर थी और मतदाताओं ने बाकी सारे मुद्दे भुलाकर बीजेपी को प्रचंड जीत दी थी.

दूसरा मोर्चा विपक्ष के नए गठबंधन 'इंडिया' का भी है. 2019 के चुनाव में टीएमसी, समाजवादी पार्टी और जेडीयू ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा था. इसका भी सीधा फायदा बीजेपी को पहुंचा था. लेकिन इस बार ये गठबंधन अगर मिलकर लड़ने के लिए राजी होता है तो कई सीटें हैं जहां पर बीजेपी को विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार का सामना करना पड़ेगा. ऐसी स्थिति में बीजेपी को वोटों के बिखराव का फायदा नहीं मिलेगा.

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