उत्तराखंड के सियासी इतिहास पर गौर करें तो वहां जमीन से जुड़े किसी नेता का अचानक मुख्यमंत्री बन जाना कोई एवरेस्ट फतह करने जैसा मुश्किल भरा काम नहीं है. असल मुश्किल तब आती है जब वक़्त कम हो, चुनाव सिर पर हो, सामने पहाड़ जैसी चुनोतियाँ हों और अपनी पार्टी को दोबारा सत्ता में लाने का मनोवैज्ञानिक दबाव हो. तब पता लगता है कि वह नेता सियासी शतरंज का कितना माहिर खिलाड़ी है.


महज साल भर के भीतर ही कुछ ऐसी ही अग्नि परीक्षा से राज्य के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को गुजरना है. चूंकि, उन्होंने अपने सियासी सफर की शुरुआत एबीवीपी और आरएसएस से की है, इसलिये वे बखूबी जानते-समझते हैं कि जिन हालातों में पार्टी नेतृत्व ने सीएम पद का ताज उनके उनके सिर पर रखा है उसमें फूलों से ज्यादा कांटे हैं. पुरानी कहावत है कि गुलाब की महक की कद्र आपको तभी पता लगती है जब उसके कांटों की चुभन का अहसास हो.


बेलगाम हो चुकी ब्यूरोक्रेसी पर हो काबू


बेशक रावत की छवि तड़क-भड़क से दूर रहने वाले एक ऐसे सादगी पसंद नेता की बनी हुई है जो बोलने में कम और लोगों की सुनने में ज्यादा विश्वास रखते हैं क्योंकि वे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की तरह संघ के प्रचारक रहे हैं और प्रचारकों का यही सबसे बड़ा गुण होता है. अगले महीने 9 अप्रैल को अपने जीवन के 57 बरस पूरे कर रहे रावत अगर पार्टी की दोबारा सत्ता में वापसी चाहते हैं, तो उन्हें इस एक साल के लिये गुजरात वाले नरेंद्र मोदी का रुप धारण करके सबसे पहले राज्य की बेलगाम हो चुकी ब्यूरोक्रेसी को रास्ते पर लाना होगा.


गुजरात मॉडल की कामयाबी की सबसे बड़ी खासियत ही यही है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी ने नौकरशाही को न कभी सत्ता पर हावी होने दिया और न ही उनके भरोसे सबकुछ छोड़ा. लेकिन इसे उत्तराखंड की बदनसीबी कहा जाए या फिर सीएम की कुर्सी से रुखसत हुए त्रिवेंद्र सिंह रावत की राजनीतिक अपरिपक्वता समझें कि पिछले तीन साल में उनके खिलाफ सबसे ज्यादा ऐसी शिकायतों की ही भरमार रही. मसलन,अगर सरकार के मंत्री ही पार्टी आलाकमान के आगे आकर यह रोना रोयें कि उनकी बुलाई बैठकों में विभाग के अफसर ही नहीं आते, उनकी बात ही नहीं सुनते तो वे उनसे भला कैसे काम करवायें. जिस सूबे में मंत्रियों की हालत ऐसी बेचारगी की हो जाये,तो समझा जा सकता है कि वहां बीजेपी के विधायकों व जिला स्तर के नेताओं की भला कौन-कितनी सुनता होगा.


फैसले पलटने का साहसिक कदम


लिहाजा, नए मुख्यमंत्री को अफसरों पर लगाम कसने के साथ ही विकास के उन तमाम कार्यों की रफ्तार तेज करनी होगी, जिसके कारण लोगों में बीजेपी सरकार के प्रति नाराजगी पैदा हुई है. प्रशासन का शुद्धिकरण करने के लिये हो सकता है कि उन्हें त्रिवेंद्र सरकार के ही कुछ फैसलों को पलटने का साहसी कदम भी उठाना पड़े. हालांकि, इनमें से कुछ फैसले तो इतने पुराने हो चुके हैं कि नई सरकार के लिए कदम वापस खींचना आसान नहीं होगा. मसलन,बद्रीनाट, केदारनाथ,गंगोत्री व यमनोत्री धाम को मिलाकर  देवस्थानम बोर्ड के गठन करने का फैसला ऐसा है, जिसे लेकर लोगों में भारी गुस्सा है.


कांग्रेस से आए विधायकों को मैनेज करने के साथ ही गढ़वाल और कुमाऊं के बीच संतुलन साधना भी उनके लिए कम चुनौती भरा काम नहीं है.आखिरी और सबसे अहम बात कि उन्हें त्रिवेंद्र रावत की इस गलती को दोहराने से बचना होगा कि सिर्फ एक विशेष वर्ग के लोगों की हर जगह तरजीह दी जाये.