विनायक दामोदर सावरकर को काले पानी की सजा भी हुई और फिर छह-छह दया याचिकाएं लिखने के बाद रिहाई भी. इसी को लेकर बीजेपी और कांग्रेस वैचारिक तौर पर सावरकर के समर्थन और विरोध में रहती हैं. कालेपानी की सजा की वजह से बीजेपी सावरकर को वीर बताती है तो दया याचिकाओं से मिली रिहाई की वजह से कांग्रेस सावरकर को माफीवीर बताती है.
इस वीर-माफीवीर की लड़ाई में वो किस्सा हमेशा रह जाता है कि आखिर जब पूरा देश ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा था तो काले पानी की सजा सिर्फ विनायक दामोदर सावरकर को ही क्यों हुई थी. आखिर क्या था वो केस, जिसमें दोषी पाए जाने के बाद सावरकर को काला पानी भेजा गया था. आइए जानते हैं-
सावरकर इस वक्त इसलिए चर्चा में हैं, क्योंकि रणदीप हुड्डा की एक फिल्म आ रही है स्वातंत्र्यवीर सावरकर. बात करते हैं कि आखिर सावरकर को कालेपानी की सजा हुई क्यों थीं. तो कहानी शुरू होती है साल 1910 से. सावरकर पर दो खंडों में विस्तृत किताब लिखने वाले विक्रम संपत अपनी किताब के पहले खंड इकोज फ्रॉम अ फॉरगाटेन पास्ट या किताब के हिंदी अनुवाद सावरकर, एक भूले-बिसरे अतीत की गूंज में लिखते हैं कि 17 जनवरी, 1910 को सावरकर के खिलाफ मॉन्टगोमरी की अदालत में केस दर्ज होता है और 18 जनवरी, 1910 को सावरकर के खिलाफ वॉरंट जारी होता है. इसमें सावरकर पर पांच आरोप तय किए जाते हैं.
- सम्राट के खिलाफ युद्ध के लिए उकसाने का मामला
- षड्यंत्र, जिसके जरिए सम्राट के एकाधिकार का हनन होता है
- लंदन में 1908 में हथियार हासिल करना, जिससे 21 दिसंबर, 1909 को नासिक कलेक्टर जेक्सन की हत्या की गई. ये हत्या अनन्त लक्ष्मण कन्हारे ने की थी, जिसने पकड़े जाने के बाद सावरकर का नाम लिया था.
- लंदन में 1908 में हथियार हासिल कर लंदन के सम्राट के खिलाफ युद्ध छेड़ना
- भारत में जनवरी 1906 से मई 1906 के बीच राजद्रोही भाषण देना और लंदन में 1908-1909 के बीच राजद्रोही भाषण देना.
तब भी सावरकर की गिरफ्तारी नहीं होती है. सावरकर गिरफ्तार होते हैं 13 मार्च 1910 को और वो भी लंदन के विक्टोरिया स्टेशन पर. 12 मई, 1910 को बॉ स्ट्रीट के जस्टिस डी रूटजेन ने आदेश दिया कि सावरकर का मुकदमा भारत में चलेगा, लेकिन सावरकर के वकीलों ने हाई कोर्ट में अपील की. अपील खारिज हो गई तो सावरकर के वकील कोर्ट ऑफ अपील गए. वहां चीफ जस्टिस लॉर्ड एल्वरस्टोन ने 4 जून, 1910 को आदेश दिया कि सावरकर को भारत प्रत्यर्पण किया जाए. 29 जून, 1910 को तब के गृह राज्य सचिव विस्टन चर्चिल ने आदेश दिया कि विनायक दामोदर सावरकर को भारत भेजा जाए. 1 जुलाई, 1910 को सावरकर लंदन से भारत के लिए रवाना हो गए.
अंग्रेज उन्हें पानी के जहाज एसएस मोरिया से लंदन से भारत ला रहे थे. फ्रांस के मार्से बंदरगाह के पास 8 जुलाई को विनायक सावरकर जहाज के टॉयलेट में बने होल से कूदकर भाग गए, लेकिन वो ज्यादा दूर नहीं जा पाए. फ्रांस की पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया. उन्हें अंग्रेजों के हवाले कर दिया गया. फिर जब जहाज एसएस मोरिया यमन के अदन पोर्ट पहुंचा तो सावरकर के जहाज को बदल दिया गया. उन्हें एसएस सस्ति जहाज में शिफ्ट कर दिया गया. आखिरकार सावरकर 22 जुलाई, 1910 को बंबई तट पर पहुंचे. वहां से उन्हें नासिक पुलिस को सौंप दिया गया और फिर वो यरवदा की जेल में कैद हो गए. 15 सितंबर, 1910 को सावरकर के खिलाफ बंबई में मुकदमा शुरू हुआ और तब सावरकर को डोंगरी जेल में शिफ्ट कर दिया गया.
लंबी सुनवाई के बाद 23 दिसंबर, 1910 को कोर्ट का फैसला आया. उन्हें उम्रकैद की सजा हुई, लेकिन भारत में उम्रकैद की सजा का मतलब सिर्फ 25 साल की सजा थी. तो उन्हें 21 दिसंबर, 1909 को नासिक कलेक्टर जेक्सन की हुई हत्या के मामले में भी दोषी ठहराया गया और मार्च 1911 में जैक्सन की हत्या के लिए उकसाने के मामले में और 25 साल की सजा हो गई. और इस तरह से सावरकर की कुल सजा 50 साल की हो गई. सजा के बाद सावरकर को पहले डोंगरी से भायकुला जेल लाया गया और फिर वहां से भी उन्हें ठाणे जेल में भेज दिया गया. ठाणे से मद्रास तक सावरकर ट्रेन से ले जाए गए और फिर 27 जून 1911 को महाराजा जहाज से अंडमान के लिए उनका सफर शुरू हुआ.
4 जुलाई, 1911 को सावरकर अंडमान जेल पहुंचे, जिसे काला पानी कहा जाता था. इससे पहले ही 30 जून, 1911 को अंडमान में कैदी के रूप में सावरकर का नाम दर्ज हो चुका था और उन्हें कालापानी की कोठरी भी अलॉट कर दी गई थी, जिसका नंबर था 52. यहां तक सावरकर वीर सावरकर रहे, जिनकी वीरता पर किसी को भी संदेह नहीं है, लेकिन इसके बाद काला पानी की सजा से निकलने को लेकर सावरकर ने जो भी जतन किए, कांग्रेस के लोग उसे माफी बताते हैं और ये तथ्य भी है कि अंडमान जेल में सजा इतनी सख्त थी, सावरकर को कोल्हू में बैल की जगह पेरा जाता था और हर तरह की ज्यादती की जाती थी, जिसकी वजह से सावरकर ने अपने माफीनामे लिखे. इसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें अंडमान से निकालकर यरवदा की जेल में शिफ्ट कर दिया और करीब तीन साल तक उस जेल में रहने के बाद 5 जुलाई, 1924 को सावरकर हमेशा के लिए जेल से रिहा हो गए.