कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हत्या के मामले थमते नजर नहीं आ रहे. ताजा मामला बैंक गार्ड संजय शर्मा की हत्या का है. संजय शर्मा एक कश्मीरी पंडित थे. संजय शर्मा की हत्या के बाद एक बार फिर से कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा को लेकर सवाल उठने लगे हैं. शर्मा की हत्या इस साल कश्मीरी पंडितों की हत्या का पहला मामला बना गया है. हालांकि शर्मा पर हमला करने वाला हमलावर मारा जा चुका है.
घाटी में हो रहे हमले से परेशान कश्मीरी पंडित
2022 में, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी हमलों में तीन स्थानीय पंडितों, तीन अन्य हिंदुओं और आठ गैर-स्थानीय मजदूरों सहित 29 नागरिक मारे गए थे. इसी साल घाटी में फैली अशांति को देखते हुए 5,500 पंडितों ने घाटी छोड़ दी थी. रिपोर्टों के मुताबिक अगस्त, 2019 से मार्च 2022 तक, 14 कश्मीरी पंडित या हिन्दू और गैर-कश्मीरी मजदूरों की आतंकवादियों ने गोली मार दी.
कश्मीर में हत्या के ज्यादातर मामले आतंकवाद से जुड़े
साउथ एशिया टेरोरिज्म पोर्टल के मुताबिक जम्मू और कश्मीर में 2011 से 2016 के बीच कुल 562 हत्या की खबरें सामने आई. 2016 से 2022 के बीच यह आंकड़ा बढ़ कर 948 पर पहुंच गया. फीसदी में देखा जाए तो 2010 के बाद की घटनाएं ये बताती हैं कि कश्मीर में हत्या के मामलों में 70 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. हत्या की सभी घटनाएं आतंकवाद से जुड़ी है.
2010 के मुकाबले 2016 के बाद नागरिकों और सुरक्षा बलों दोनों की मौतों में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई थी. हालांकि, 2018 के बाद से इन दोनों की मौतों में गिरावट आई है. एसएटीपी रिकॉर्ड 2022 में 30 नागरिकों की मौत दिखाई गई है. उनमें से ज्यादातर होने वाली मौतें कश्मीरी पंडितों और प्रवासियों की थी. ये मौतें केंद्र शासित प्रदेश में अल्पसंख्यकों की टारगेट किलिंग की तरफ इशारा करती हैं. जो बेहद ही खतरनाक पैटर्न दर्शाता है.
परेशान करने वाली बात ये है कि प्रशासन की तरफ से निवासियों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करने का दावा करने के बावजूद ये हमले जारी हैं. अपराधियों के खिलाफ चलाए गए अभियान के दौरान सुरक्षा बलों के हताहत होने की खबरें भी लगातार आती रहती है.
खासतौर से दक्षिण कश्मीर आतंकवादी हमलों से नागरिक की मौतों का केंद्र बन गया है. साल 2000 के बाद से नागरिकों की मौत के जिलावार हिस्से से पता चलता है कि दक्षिण कश्मीर, मध्य कश्मीर के बडगाम और श्रीनगर में इस तरह की मौतें ज्यादा हो रही हैं. 2022 में, कश्मीर के शोपिंया में 27 प्रतिशत नागरिकों की मौत हुई. वहीं 2006 तक यहां पर हमले की कोई वारदात सामने नहीं आती थी.
पुलवामा में सबसे ज्यादा आतंकवाद का शिकार हो रहे नागरिक
साल 2000 में जम्मू कश्मीर में मारे गए नागरिक अनंतनाग, बारामूला, डोडा और श्रीनगर से थे. 2010 में बारामूला में नागरिकों के मारे जाने की खबरें सबसे ज्यादा आई. ये 2017 में कुल मौतों का 37 प्रतिशत था यह वह समय भी था जब दक्षिण कश्मीर में खासकर पुलवामा में नागरिक मौतों में बढ़ोत्तरी देखी जाने लगी. 2017 के बाद से, नागरिकों पर हमले ज्यादातर दक्षिण कश्मीर तक ही महदूद थे. लेकिन बाद में कुलगाम और शोपियां जिलों में भी नागरिकों की मौतें हुईं.
अपने ही घरों में दहशत में जी रहे कश्मीरी हिंदू
आंकड़े ये बताते हैं कि अब कश्मीर में हिन्दू और सिख पहले से ज्यादा असुरक्षित हो गए हैं. साल 2021 के आखिर में चार कश्मीरी हिंदुओं की हत्या के बाद घाटी का माहौल खराब हुआ था. तब मारे जाने के डर से हजारों कश्मीरी पंडितों ने अपना घर भी छोड़ दिया था. साल 1990 में घाटी में चरमपंथ बढ़ने के बाद केवल 800 कश्मीरी पंडितों के परिवार ही ऐसे थे, जिन्होंने घाटी से न जाने का फैसला किया.
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के प्रमुख संजय टिक्कू ने बीबीसी को बताया, 'कई हिंदू परिवारों में मारे जाने का डर है, ऐसे में घबरा कर वो अक्सर फोन करते हैं. प्रशासन के अधिकारियों ने उनको घर से निकाल कर किसी होटल में रखा है. लेकिन इस तरह के खौफ के माहौल में हम कैसे जी सकते हैं.'
संजय टिक्कू का ये कहना था कि 2003 में पुलवामा के सुदूर नंदीमार्ग गांव में 20 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की हत्या हो जाना ये भी इशारा देता है सरकार कश्मीरी पंडितों को लेकर असंवेदनशील हो गयी है. उन्होंने कहा कि "मैं सालों से चेतावनी देता आ रहा हूं. लेकिन एमएल बिंद्रू के मारे जाने तक उन लोगों की (सरकार की) नींद नहीं टूटी."
माखन लाल बिंद्रू वो कश्मीरी पंडित थे जो चरमपंथी घटनाओं के बावजूद घाटी में डटे रहे. इनकी हत्या अक्टूबर 2021 में पांच कश्मीरियों के साथ कर दी गई थी. 68 साल के माखन लाल बिंद्रू श्रीगनर में पिछले चालीस सालों से दवाएँ बेचते थे और वहाँ लोग उन्हें घर-घर में पहचानते थे.
इनकी और पांच कश्मीरी पंडितों की हत्या ने लगभग 1,000 कश्मीरी पंडित परिवारों को फिर से फिक्र में डाल दिया था. ऐसे में संजय टिक्कू इस बात का डर जताते हैं कि कहीं कश्मीर के हालात फिर से 1990 जैसे ना हो जाएं.
1990 का जिक्र आते ही कश्मीर की 19 जनवरी 1990 की रात याद आ जाती है. कड़ाके की ठंड वाली वो रात कश्मीरियों पंडितों की जिंदगी का एक बुरा सपना साबित हुआ था. उस दिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, कट्टरपंथी इस्लामीकरण और उग्रवादी विद्रोह के बीच, कश्मीरी पंडितों और अल्पसंख्यक समुदाय ने बड़े पैमाने पर पलायन किया था. यही वजह है कि 30 साल से ज्यादा का वक्त बीत जाने के बाद आज भी वो घटना सबके जहन में है.
कितनी बदली है 19 जनवरी और उसके बाद की रात
1980 के दशक के अंत से लेकर अगले दशक तक कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था. जनवरी 1990 में भीषण घटनाएं हुईं. उस समय वहां पर नेशनल फ्रंट सरकार थी. घटनाएं इस कदर बढ़ी थी कि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और जगमोहन 19 जनवरी को तत्कालीन राज्य के राज्यपाल के रूप में कार्यभार संभालने के लिए पहुंचे थे.
19 जनवरी 1990 की रात करीब 9 बजे घाटी में चरमपंथियों ने लाउडस्पीकरों से युद्ध का ऐलान कर दिया था. वहीं एक भीड़ पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगा रही थी. युवा, बूढ़े, बच्चे और महिलाओं सहित हजारों कश्मीरी मुसलमान सड़कों पर उतर आए और 'भारत मुर्दाबाद' और 'काफिरों की मौत' के नारे लगाने लगे. नारे सुबह तक चलते रहे, जिससे कश्मीरी पंडित और हिंदू काफी डर गए थे.
उस दिन कश्मीर में कानून और व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई थी, पुलिस ने अपनी चौकियां तक छोड़ दी थी, और पंडितों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया था.
जगमोहन के राज्यपाल के रूप में कार्यभार संभालने के दो दिन बाद, 21 जनवरी को, गावकदल नरसंहार हुआ. इसमें भारतीय सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की. हमले में कम से कम 50 लोग मारे गए. रात में बच गए हिंदुओं के खिलाफ हिंसा की खबरें सामने आईं, जिसने कई लोगों को घाटी से भागने के लिए मजबूर कर दिया.
पलायन के दौरान कई कश्मीरी हिंदू महिलाओं का अपहरण, रेप और हत्या कर दी गई थी. इसी दौरान एक युवा सामाजिक कार्यकर्ता सतीश टिक्कू की फरवरी में उनके घर के पास हत्या कर दी गई थी.13 फरवरी को दूरदर्शन श्रीनगर के स्टेशन निदेशक लसा कौल की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
30-32 साल बीतने के बाद अब भी भारत प्रशासित कश्मीर के कुछ इलाको में हिंसक घटनाएं देखने और सुनने को मिलती रहती हैं. कश्मीर में हालात पहले से काबू में है लेकिन हिंसक झड़प आए दिन होती रहती है. वहां पर कश्मीरी पंडित सुरक्षित नहीं है. 2019 में पुलवामा में राजस्थान के एक सेब व्यापारी की ट्रक को जला दिया गया था. इसी दौरान पंजाब के दो निवासियों पर भी हमला किया गया था. इस तरह से कश्मीर में काम करने वाले मजदूरों के भीतर एक तरह का डर पैदा हो गया है.
कश्मीर छोड़ कर जा रहे हिंदूओं को रोकने के लिए सरकार क्या कर रही है
कश्मीरी पंडितों को घाटी वापस लाने के लिए भारत सरकार ने साल 2009 में नौकरी देने की पेशकश की थी. उस समय इन पंडितों को सुरक्षित रिहाइश का भी प्रावधान किया गया था. नौकरी और सुरक्षित रिहाइश के सरकार के वादे के बाद लगभग 5000 कश्मीरी अपनी सरजमीं पर लौटे भी थे. उन्हें घाटी में सरकारी नौकरी भी दी गई. ज्यादातर लोगों को शिक्षा विभाग में काम मिला.
बॉर्डर पर भी तनाव का माहौल
14 फरवरी, 2019 को भारतीय सुरक्षाबलों पर एक बम हमला हुआ जिसमें 40 सैनिकों की मौत हो गई थी. इस हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में खटास बढ़ी थी. इस घटना के एक हफ्ते बीतते ही भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तानी क्षेत्र में हवाई हमले किए थे. एलओसी पर रिकॉर्ड संख्या में दोनों देशों के बीच झड़प की खबरों के बाद दोनों देशों की सेनाओं ने बीते साल में ये फैसला लिया था कि साल 2003 के संघर्षविराम को लागू किया जाएगा.