नई दिल्ली: राजधानी दिल्ली की एक सड़क के किनारे बैठा रामपुकार पंडित मोबाइल फोन पर बात करते हुए ज़ार ज़ार रो रहा था. उसकी यह दारूण तस्वीर देशभर के प्रवासी मजदूरों का प्रतीक बन गई. समूचे देश में जब प्रवासी मजदूरों के समक्ष अस्तित्व का संकट गहराता जा रहा है तो वहीं मीडिया में रामपुकार की यह तस्वीर खूब साझा की जा रही है. लेकिन तमाम सुर्खियों के बावजूद वह अपने परिवार से अभी तक मिल नहीं पाया है और अपने एक साल के बेटे की मौत से पहले उसकी सूरत तक न देख पाने के दुख ने उसे तोड़कर रख दिया है.


कोरोना वायरस संक्रमण को काबू करने के लिए देश में लागू लॉकडाउन के कारण पैदा हुए प्रवासी संकट को दर्शाती इस तस्वीर को देश के हजारों लोग पहचानते हैं. इस तस्वीर में बेतहाशा रोता नजर आ रहा प्रवासी श्रमिक रामपुकार भले ही अपने मूल राज्य बिहार पहुंच गया है लेकिन वह अभी तक अपने परिवार से मिल नहीं पाया है.


‘पीटीआई’ के फोटो पत्रकार अतुल यादव ने दिल्ली के एक सिनेमा हॉल में काम करने वाले रामपुकार को दिल्ली में निजामुद्दीन पुल के किनारे देखा. वह उस समय फोन पर अपने परिजनों से बात करते हुए बेतहाशा रो रहा था. उसी दौरान फोटो पत्रकार ने उसकी तस्वीर ली थी, जो देश में प्रवासी संकट का चेहरा बन गई है.


दिल्ली से करीब 1,200 किलोमीटर दूर बेगुसराय में अपने घर पहुंचने के लिए जूझ रहे 38 वर्षीय रामपुकार की तस्वीर को मीडिया में साझा किए जाने के बाद उसे बिहार तक पहुंचने में मदद मिल गई. वह इस समय बेगुसराय के बाहर एक गांव के स्कूल में पृथक-वास केंद्र में रह रहा है. रामपुकार इस बात से दुखी है कि वह अपने बच्चे की मौत से पहले घर नहीं पहुंच सका और उसे आखिरी बार देख भी न सका. यह तस्वीर लिए जाने के कुछ ही देर बाद उसके बेटे की मौत हो गई थी. रामपुकार ने ‘पीटीआई भाषा’ से फोन पर कहा, ‘‘हम मजदूरों का कोई जीवन नहीं है.’’



उसने कहा, ‘‘मेरा बेटा जो एक साल का भी नहीं हुआ था, उसकी मौत हो गई और मेरे सीने पर मानो कोई पहाड़ गिर गया. मैंने पुलिस अधिकारियों से मुझे घर जाने देने की गुहार लगाई लेकिन किसी ने मेरी कोई मदद नहीं की.’’ रामपुकार ने कहा, ‘‘एक पुलिसकर्मी ने तो यह तक कह दिया, ‘क्या तुम्हारे घर लौटने से, तुम्हारा बेटा जिंदा हो जाएगा. लॉकडाउन लागू है, तुम नहीं जा सकते’. मुझे उनसे यह जवाब मिला.’’ उसने बताया कि दिल्ली की एक महिला और एक फोटोग्राफर ने उसकी मदद की. वह फोटो पत्रकार अतुल यादव का नाम नहीं जानता.


रामपुकार ने कहा, ‘‘मैं थका-हारा सड़क किनारे बैठा था और यह सोच रहा था कि मैं घर कैसे पहुंच सकता हूं. एक पत्रकार आया और उसने मुझसे पूछा कि मैं परेशान क्यों हूं. उसने मुझे अपनी कार से ले जाकर मदद करने की कोशिश की, लेकिन पुलिस ने उसे अनुमति नहीं दी. इसके बाद एक महिला आई और उसने कुछ इंतजाम किया... वह मेरे माई-बाप की तरह थी.’’ मदद पहुंचने से पहले तीन दिन तक निजामुद्दीन पुल पर फंसे रहे रामपुकार ने कहा, ‘‘महिला ने मुझे खाना और 5,500 रुपए दिए. उसने विशेष ट्रेन में मेरा टिकट बुक कराया और इस तरह मैं बिहार पहुंचा.’’


उसने कहा, ‘‘अमीर लोगों को हर तरह की मदद मिलेगी. उन्हें विदेश से विमानों से घर लाया जा रहा है, लेकिन गरीब प्रवासी मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है. हमारी जिंदगी की यही कीमत है. हम मजदूरों का कोई देश नहीं.’’ तीन बेटियों के पिता रामपुकार ने अपने बेटे का नाम रामप्रवेश रखा था, क्योंकि उसके नाम में भी राम शब्द है. उसने कहा, ‘‘क्या एक बाप घर जाकर अपने परिवार से मिलकर अपने बेटे की मौत का दु:ख नहीं बांटना चाहेगा?’’


उसने कहा, ‘‘मैं दिल्ली से एक विशेष ट्रेन से कुछ दिन पहले बेगुसराय पहुंचा हूं. हमें पास में एक जांच केंद्र ले जाया गया और वहां रात भर रखा गया. एक बस हमें सुबह बेगुसराय के बाहर एक स्कूल में ले गई और मैं तभी से यहां हूं.’’ रामपुकार ने कहा, ‘‘मेरी पत्नी बीमार है और मेरी तीन बेटियां पूनम (नौ), पूजा (चार) और प्रीति (दो) मेरा इंतजार कर रही हैं. ऐसा लगता है कि यह इंतजार कभी खत्म ही नहीं होगा.’’