Alliance Government In India: इस देश में गठबंधन की सरकारों को मजबूत नहीं, बल्कि मजबूर सरकार का तमगा मिलता रहा है. यही तमगा एक बार फिर से नरेंद्र मोदी सरकार पर भी चस्पा करने की कोशिश की जा रही है, क्योंकि वो भी अब गठबंधन की सरकार के मुखिया हैं, लेकिन देश का राजनीतिक इतिहास देखें तो साफ दिखता है कि जितने सख्त फैसले पूर्ण बहुमत वाली सरकारों जैसे कि पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी या फिर नरेंद्र मोदी की सरकारों ने लिए हैं, उतने ही सख्त फैसले लेने में गठबंधन की सरकारें भी कभी पीछे नहीं रही हैं.
ऐसे फैसले करते वक्त गठबंधन के मुखिया ने न तो अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी देखी और न ही सहयोगी दलों की नाराजगी, बल्कि उन्होंने वो फैसले किए, जो उनकी पार्टी, उनकी विचारधारा और उनके लोगों से ऊपर उठकर देश हित में थे.
गठबंधन की सरकार में वीपी सिंह ने लिए थे सख्त फैसले
जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद साल 1977 में देश में पहली गैर कांग्रेसी और गठबंधन की सरकार बनी. ऐसा तब हुआ था जब देश में आपातकाल के बाद चुनाव हुए और उसमें कांग्रेस को मात मिली. उसमें जनता पार्टी की जीत हुई थी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने.
असल में गठबंधन की सरकार होने के बावजूद सबसे सख्त फैसले लेने का श्रेय अगर किसी एक प्रधानमंत्री को जाता है, तो वो विश्वनाथ प्रताप सिंह हैं. वीपी सिंह गठबंधन की सरकार के प्रधानमंत्री थे और उन्हें दो ऐसी पार्टियां समर्थन दे रही थीं, जो अपने आप में बिल्कुल विपरीत ध्रुव थीं. यानी कि एक तरफ तो वीपी सिंह को बीजेपी का समर्थन था और दूसरी तरफ लेफ्ट पार्टियां भी वीपी सिंह को ही समर्थन कर रही थीं.
ऐसी कमजोर सरकार के प्रधानमंत्री होने के बावजूद वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का जो फैसला किया, उसने उन्हें भारतीय राजनीति के इतिहास में अमर कर दिया.
आडवाणी का रथ रोकने पर गिर गई वीपी सिंह की सरकार
वीपी सिंह की मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का ही नतीजा है कि अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलना शुरू हुआ. अपनी पार्टी के अंदर और बाहर के तमाम विरोधों को दरकिनार कर वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कीं.
इसके विरोध में देश में दंगे भी हुए, लेकिन वीपी सिंह पीछे नहीं हटे, लेकिन जब उन्होंने एक और बड़ा फैसला किया तो उनकी सरकार गिर गई. ये फैसला लाल कृष्ण आडवाणी के रथ को रोकने का फैसला था. ये फैसला लेते वक्त वीपी सिंह को पता था कि आडवाणी की गिरफ्तारी से उनका प्रधानमंत्री का पद चला जाएगा, लेकिन वीपी सिंह ने ये फैसला किया. आडवाणी बिहार के समस्तीपुर में गिरफ्तार हुए और फिर बीजेपी ने समर्थन वापस लेकर वीपी सिंह की सरकार गिरा दी.
नरसिम्हा राव ने भी लिए थे ऐतिहासिक फैसले
कुछ ऐसा ही ऐतिहासिक फैसला पीवी नरसिम्हा राव ने भी किया था. 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 244 सीटें ही मिली थीं. यह आंकड़ा बहुमत से 28 कम, लेकिन दूसरे दल और भी कम थे तो सरकार नरसिम्हा राव की ही बनी. अल्पमत की सरकार, जिसे बाहर से कुछ छोटे-छोटे दलों ने समर्थन दिया था. इसके बावजूद देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के लिए नरसिम्हा राव ने जो फैसले किए, उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं है.
नरसिम्हा राव ने अल्पमत की सरकार में मनमोहन सिंह को अपना वित्त मंत्री बनाया. 21 जुलाई 1991 को पेश पहले ही बजट में मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया के लिए खोल दिया. उदारीकरण की शुरुआत हुई जो फैसले के 34 साल बाद भी कायम है और उसे कोई बदल नहीं पाया है.
वाजपेयी की सरकार में हुआ था परमाणु परीक्षण
गठबंधन की सरकार में 13 महीने के लिए प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी ने भी बड़े फैसले लेने में कोई कोताही नहीं की थी. भारत को अपना परमाणु परीक्षण करना था, लेकिन वाजपेयी के सहयोगी ही तैयार नहीं हो रहे थे. ऊपर से अमेरिका और दुनिया के तमाम देश भारत को आंखें दिखा ही रहे थे, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी हिचके नहीं और देश हित में फैसला किया.
भारत ने एक के बाद एक तीन परमाणु परीक्षण कर दुनिया को दिखा दिया कि वो भी अब परमाणु संपन्न देश है. हालांकि देश हित में किया गया एक और फैसला अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ भारी पड़ गया. वो फैसला तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार को बर्खास्त न करने का था.
वाजपेयी सरकार को समर्थन दे रहीं जयललिता चाहती थीं कि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के जो मामले चल रहे हैं, वाजपेयी उन्हें वापस ले लें, रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस को अपने मंत्रिमंडल से हटा दें और साथ ही तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार को बर्खास्त कर दें. वाजपेयी ने अपनी कुर्सी बचाने की कोई कोशिश नहीं की. उन्होंने जयललिता का कहना नहीं माना और नतीजा ये हुआ कि वाजपेयी को 13 महीने के अंदर ही प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ गया, क्योंकि एक वोट से उनकी सरकार गिर गई थी.
गठबंधन की सरकार में मनमोहन सिंह के सख्त फैसले
साल 2004 में गठबंधन की सरकार के मुखिया बने मनमोहन सिंह अगले 10 साल तक गठबंधन की ही सरकार चलाते रहे. इन 10 सालों में उन्होंने मनरेगा और राइट टू इन्फॉर्मेशन जैसे कई बड़े और ऐतिहासिक फैसले लिए. हालांकि एक वक्त ऐसा भी आया, जब लगा कि मनमोहन सिंह की सरकार गिर जाएगी. ये वक्त यूपीए की पहली सरकार का था, जिसमें कांग्रेस ने तय किया कि वो अमेरिका के साथ सिविल न्यूक्लियर डील करेगा, लेकिन तब कांग्रेस को समर्थन दे रही वामपंथी पार्टियों ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.
मनमोहन सिंह को पता था कि अगर लेफ्ट पार्टियों का समर्थन नहीं मिला तो सरकार गिर जाएगी, लेकिन वो नहीं माने. कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी ने तय किया कि सरकार बचाने के लिए डील पर फिर से सोच विचार किया जाए, लेकिन मनमोहन सिंह अड़ गए और इस्तीफा देने को तैयार हो गए. नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस को समाजवादी पार्टी और कुछ दूसरी पार्टियों का समर्थन मिल गया, जिसके बाद न्यूक्लियर डील भी हुई और सरकार भी चलती रही.
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