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हिंदी के मशहूर साहित्यकार और आलोचक नामवर सिंह नहीं रहे, 92 साल की उम्र में ली आखिरी सांस

उनकी किताबें पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी नई कहानी, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद आदि मशहूर हैं. उनका साक्षात्कार 'कहना न होगा' भी सा‍हित्य जगत में लोकप्रिय है.

नई दिल्ली: हिंदू के मशहूर साहित्यकार और आलोचक नामवर सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे. 92 साल के नामवर सिंह ने कल रात तकरीबन 11.50 बजे आखिरी सांस ली. दिल्ली के एम्स ट्रॉमा सेंटर में एक महीने से नामवर सिंह ब्रेन हैमरेज की वजह से लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर थे. बता दें कि वह लंबे अरसे से हिंदी के सबसे गंभीर आलोचक और समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं उनकी छायावाद, नामवर सिंह और समीक्षा, आलोचना और विचारधारा जैसी किताबें चर्चित हैं. आलोचना में उनकी किताबें पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी नई कहानी, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद आदि मशहूर हैं. उनका साक्षात्कार 'कहना न होगा' भी सा‍हित्य जगत में लोकप्रिय है.

प्रधानमंत्री समेत कई हस्तियों ने जताया दुख साहित्यकार नामवर सिंह के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई हस्तियों ने दुख जताया है. प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट किया, ''हिन्दी साहित्य के शिखर पुरुष नामवर सिंह जी के निधन से गहरा दुख हुआ है. उन्होंने आलोचना के माध्यम से हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा दी. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ करने वाले नामवर जी का जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है. ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति दे और परिजनों को संबल प्रदान करे.''

वहीं गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ''प्रख्यात साहित्यकार एवं समालोचक डा. नामवर सिंह के निधन से हिंदी भाषा ने अपना एक बहुत बड़ा साधक और सेवक खो दिया है. वे आलोचना की दृष्टि ही नहीं रखते थे बल्कि काव्य की वृष्टि के भी विस्तार में उनका बड़ा योगदान रहा है. उन्होंने हिंदी साहित्य के नए प्रतिमान तय किए और नए मुहावरे गढ़े.''

गृहमंत्री ने आगे लिखा, ''डा. नामवर सिंह का जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति भी है. विचारों से असहमति होने के बावजूद वे लोगों को सम्मान और स्थान देना जानते थे. उनका निधन हिंदी साहित्य जगत एवं हमारे समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति है. मैं उनके परिवार के प्रति अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त करता हूं.''

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी डॉ. सिंह के निधन पर शोक व्यक्त किया. उन्होंने ट्विटर पर लिखा, ''हिंदी के प्रख्यात आलोचक और साहित्यकार नामवर सिंह जी अब हमारे बीच नहीं रहे. हिंदी साहित्य में आलोचना को एक नया आयाम और नई ऊंचाई देने वाले नामवर सिंह जी को विनम्र श्रद्धांजलि. परमात्मा उनकी आत्मा को शांति और उनके परिजनों को यह दुख सहन करने की शक्ति दें.''

अभिनेता पंकज त्रिपाठी ने लिखा, ''अलविदा नामवर सिंह जी, दुनिया भाषा और साहित्य में आपका योगदान हमेशा ही कृतज्ञता से याद रखेगी. आप जैसे साहित्यकार कहीं जाते नहीं हैं, अमर रहते हैं अपनी शब्दों के रूप में. शुक्रिया सर!''

लेफ्ट नेता सीताराम येचुरी ने भी दुख जताया, उन्होंने लिखा, ''डॉ नामवर सिंह का साहित्य की दुनिया में बहुत विशेष स्थान था. उनका काम और उनका योगदान, उनके जाने के बाद भी कई पीढ़ियों को प्रभावित करेगा. उन्हें श्रद्धांजलि.''

डॉ. नामवर सिंह के बारे में जानिए नामवर सिंह का जन्म वाराणसी जिले (अब चंदौली) के जीयनपुर नामक गांव में 28 जुलाई, 1926 को हुआ. उन्होंने वाराणसी के हीवेट क्षत्रिय स्कूल से मैट्रिक और उदयप्रताप कालेज से इंटरमीडिएट किया. 1941 में कविता से लेखक जीवन की शुरुआत की. उनकी पहली कविता 1941 में 'क्षत्रियमित्र’ पत्रिका (बनारस) में प्रकाशित हुई.

नामवर सिंह ने 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बीए और 1951 में वहीं से हिन्दी में एमए किया. 1953 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर नियुक्ति किए गए. 1956 में पी-एच.डी. ('पृथ्वीराज रासो की भाषा’) किया.

1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रहे. इसके बाद 1959-60 में सागर विश्वविद्यालय (म.प्र.) के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर रहे. 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतन्त्र लेखन किया. 1965 में 'जनयुग’ साप्ताहिक के सम्पादक के रूप में दिल्ली में काम किया. इस दौरान दो साल तक राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार रहे.

1967 से उन्होंने 'आलोचना’ त्रैमासिक का सम्पादन शुरू किया. 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय (राजस्थान) के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष-पद पर प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किए गए. 1971 में 'कविता के नए प्रतिमान’ पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला.

1974 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफेसर के रूप में योगदान दिया और 1987 में सेवा-मुक्त हुए. फिर वह अगले पांच साल के लिए उनकी जेएनयू में पुनर्नियुक्ति हुई. वह 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष भी रहे.

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