Mahatma Gandhi Assassination: ''इस अभूतपूर्व त्रासदी के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं और यह अपमान की बात है कि भारत की जनता महात्मा गांधी को नहीं बचा पाई.''
ये बयान है देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का, जो उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के ठीक 25 दिन बाद पंजाब के जालंधर में दिए अपने भाषण में कहा था. अब कहने को तो ये एक बयान भर था, लेकिन क्या वाकई महात्मा गांधी की हत्या के लिए देश के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू और देश के गृहमंत्री सरदार पटेल भी जिम्मेदार थे या फिर ये बयान महज भावनाओं में बहकर दिया गया एक बयान भर था, महात्मा गांधी की शहादत के लिए इस पहलू पर बात करेंगे विस्तार से.
पहले और हत्या की हो चुकी थीं कई कोशिशें
30 जनवरी 1948 तो वो आखिरी तारीख थी, जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को लक्ष्य कर गोलियां चलाईं और वो महात्मा गांधी को लग भी गईं, लेकिन इससे पहले भी महात्मा गांधी की हत्या की कई कोशिशें हो चुकी थीं. तब भी जब बापू दक्षिण अफ्रीका में थे और उसके बाद भी जब महात्मा गांधी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के नायक बन चुके थे, लेकिन आजादी के बाद महात्मा गांधी की हत्या की साजिशें और भी परवान चढ़ने लगीं.
आजादी वाले साल यानी कि 1947 के आखिरी महीनों में महात्मा गांधी की हत्या के लिए हथियार जुटाए जाने लगे थे. दिसंबर 1947 में पूना में महात्मा गांधी की हत्या की योजना बनी और तारीख तय की गई 10 जनवरी 1948. उस दिन मदनलाल पाहवा ने महात्मा गांधी की हत्या की कोशिश की, लेकिन तब वो नाकाम रहा. फिर तारीख तय हुई 20 जनवरी, 1948. लेकिन उस दिन हत्यारे एक छोटे धमाके के अलावा और कुछ भी नहीं कर पाए. धमाके के दौरान ही एक महिला ने मदनलाल पाहवा को पहचान लिया और वो पकड़ा गया. 20 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या का षड्यंत्र विफल हो गया.
30 जनवरी की उस तारीख को क्या हुआ था?
फिर तारीख तय हुई 30 जनवरी, 1948 और उस दिन शाम को पांच बजकर 10 मिनट पर सरदार पटेल से मुलाकात खत्म कर बापू प्रार्थना सभा के लिए निकले. चार सीढ़ियां चढ़ीं और हाथ उठाकर मौजूद जनता को प्रणाम किया. इसी बीच खाकी वर्दी पहने नाथू राम भीड़ को चीरते हुए आगे की तरफ आ गया.
महात्मा गांधी के साथ ही मौजूद मनुबेन को लगा कि नाथू राम बापू के पैर छूने आगे बढ़ रहा है तो उन्होंने उसे रोकने की कोशिश की और कहा कि बापू को पहले ही 10 मिनट की देर हो गई है, लेकिन नाथूराम ने मनुबेन को इतना जोर का धक्का मारा कि उनके हाथ से माला, पीकदान और नोटबुक तक गिर गई.
मनुबेन जबतक कुछ समझतीं, उसने एक के बाद एक तीन गोलियां दाग दीं. हे राम...हे राम...कहते हुए बापू हाथ जोड़े ही धरती पर गिर पड़े. पहली और दूसरी गोली पेट में लगी और तीसरी फेफड़े को भेदते हुए पार निकल गई. 10 मिनट के अंदर ही सब खत्म हो गया. बापू का चेहरा सफेद पड़ गया.
क्या नेहरू-पटेल भी थे गांधी की हत्या के जिम्मेदार?
अब असल सवाल कि क्या महात्मा गांधी की हत्या के लिए सिर्फ नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगी ही जिम्मेदार थे. क्या महात्मा गांधी की हत्या को रोका नहीं जा सकता था. जब 20 जनवरी को ही महात्मा गांधी पर हमला हुआ और उससे पहले भी गांधी पर तमाम हमले हो चुके थे तो उनकी सुरक्षा को चाक-चौबंद करने के लिए आखिर किया क्या गया था तो 20 जनवरी के हमले के बाद 23 जनवरी को सरदार पटेल ने गांधी की सुरक्षा बढ़ाने का आदेश दिया.
19 वर्दीधारी सिपाहियों के साथ सात पुलिसकर्मियों को सादे वेश में महात्मा गांधी के साथ रहने के निर्देश दिए गए. हालांकि तब घनश्याम दास बिड़ला ने पटेल से शिकायती लहजे में कहा कि मेरे घर के हर कोने में पुलिस है और गांधी इस तरह की सुरक्षा के सख्त खिलाफ रहे हैं तो सरदार पटेल ने कहा-
''यह आपका मामला नहीं है. यह मेरी जिम्मेदारी है. अगर मेरी चलती तो मैं बिड़ला हाउस में आने वाले हर आदमी की जांच करवाता, लेकिन बापू नहीं मानेंगे.''
इससे पहले भी हमले के अगले ही दिन 21 जनवरी को महात्मा गांधी ने एक पत्र लिखा था. पत्र घनश्याम दास बिड़ला को लिखा गया था. बापू ने लिखा था-
''अगर मैं ना कहूंगा तो इतनी सारी जिम्मेदारियों से लदे सरदार और जवाहर मेरी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहेंगे. जहां तक मेरा सवाल है, मैं खुद को राम की शरण में मानता हूं. वह जिस दिन उठाना चाहेगा, एक लाख लोग मिलकर भी मुझे बचा नहीं पाएंगें.''
...और नाथूराम गोडसे ने कर दी हत्या
और हुआ भी यही. हजारों लोगों की मौजूदगी में नाथूराम ने 30 जनवरी को गांधी की हत्या कर ही दी. फिर नेहरू ने खुद को और पूरे देश को इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार क्यों ठहराया है. अगर इसकी तफ्तीश की जाए तो पता चलता है कि जाने अनजाने पहले नेहरू, फिर पटेल और मोरारजी देसाई, इन तीनों की लापरवाही इस हद तक भारी पड़ी कि महात्मा गांधी की हत्या हो गई.
महात्मा गांधी के पोते ने क्या कहा?
दरअसल, 20 जनवरी के हमले के बाद सबको पता था कि महात्मा गांधी का जीवन खतरे में है, लेकिन बिड़ला हाउस में जितने पुलिसकर्मी तैनात थे, वो पाकिस्तान से आए उन शरणार्थियों की भीड़ को रोकने में नाकाम थे, जिनके लिए महात्मा गांधी ही पाकिस्तान के विलेन थे. महात्मा गांधी के पोते तुषार गांधी लिखते हैं-
''कांग्रेस सरकार और मंत्रिमंडल के कम से कम कुछ सदस्य तो उस टांग-अड़ाऊ बूढ़े व्यक्ति के हस्तक्षेप से तंग आ चुके थे. उनके लिए एक शहीद महात्मा के साथ रहना ज्यादा आसान था. गांधी के जीवन की रक्षा करने की कोशिश में पुलिस का शिथिल रवैया और मौत के बाद जिस तरह से जांच की गई, उससे किसी को भी यह प्रतीत होगा कि वह जांच तथ्य को सामने लाने के बजाय उन्हें छिपाने के लिए की गई थी. 20 और 30 जनवरी 1948 के बीच पुलिस द्वारा किए गए उपाय उनकी हत्या को रोकने की कोशिश करने के बजाय हत्यारों की सुचारू प्रगति सुनिश्चित करने के लिए अधिक थे.''
लेखक रॉबर्ट पेन ने क्या लिखा?
द लाइफ एंड डेथ ऑफ महात्मा गांधी में रॉबर्ट पेन लिखते हैं-
''मैं यह नहीं कह रहा हूं कि गांधी को मरने देने में पटेल या देसाई ने जानबूझकर लापरवाही की, लेकिन निश्चित रूप से वे इस घटना के लिए कुछ हद तक उत्तरदायी हैं. इससे भी बुरी बात ये है कि महात्मा गांधी की उपेक्षा में पूरी कांग्रेस पार्टी की मिलीभगत से इनकार नहीं किया जा सकता है.''
रॉबर्ट पेन ने अपनी किताब में यहां तक लिखा है कि
''भले ही ट्रिगर गोडसे ने दबाया और हिंदू राष्ट्रवादियों के बड़े समूह ने उसके कार्य की प्रशंसा की फिर भी कांग्रेस पार्टी के बड़े वर्ग सहित बहुत से लोग इस अपराध में अपने दायित्व से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते. वे गांधी को मारना नहीं चाहते थे, वे निश्चित रूप से उनकी हत्या की कोशिश नहीं करते, लेकिन गांधी को हाशिए पर डालकर और उन्हें दरकिनार कर उन्होंने गांधी को सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से ही ज़िंदा रखा और बाकी हर तरीके से मार डाला.''
30 जनवरी 1948 को बचे-खुचे गांधी को गोडसे ने मार डाला. आज न गांधी हैं और न ही गोडसे. लेकिन दुनिया के तमाम मुल्कों में गांधी को भी याद करने वाले लोग हैं और गोडसे को भी. गांधी को याद करने की तमाम वजहे हैं, जिनपर हजारों शोधग्रंथ लिखे जा सकते हैं. और गोडसे को याद करने की सिर्फ एक कि उसने ही गोली मारकर गांधी की हत्या की थी.
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