TMC या फिर BJP, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में किसे मिलेगा मतुआ समुदाय के वोटरों का साथ?
पश्चिम बंगाल के तीन जिलों की करीब 21 सीटें ऐसी हैं जहां मतुआ समुदाय के लोगों का प्रभाव है. पिछले विधासनभा चुनाव में इन सीटों पर टीएमसी को 48.57 फीसदी मिले थे. बीजेपी महज 7.91 फीसदी वोट ही जुटा पायी थी.
कोलकाता: पश्चिम बंगाल के नदिया, उत्तर 24 परगना और दक्षिण 24 परगना इन तीन जिलों में मतुआ समुदाय के लोग सबसे ज़्यादा संख्या में हैं. कम से कम 21 सीटें ऐसी हैं, जहां पर मतुआ वोटर्स जीत और हार के बीच का फासला तय करते हैं. इन सीटों पर 2016 विधानसभा चुनाव में 48.57 फीसदी वोट तृणमूल कांग्रेस को मिला था. बीजेपी सिर्फ 7.91 फीसदी वोट ही जुटा पायी थी. वहीं सीपीएम और कांग्रेस गठबंधन को 38.68 फीसदी वोट मिले थे.
इन 21 सीटों पर मतुआ समुदाय के लोगों का है प्रभाव
कृष्णगंज- 2016 विधानसभा चुनाव में यहां टीएमसी ने जीत हासिल की थी. (लगभग 44 हज़ार वोट की मार्जिन से सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन को टीएमसी ने हराया था.)
रानाघाट उत्तर-पूर्वी- यहां भी टीएमसी ने जीत दर्ज की थी.
रानाघाट दक्षिण- सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन ने यहां जीत दर्ज की थी.
कल्याणी- लगभग 26 हज़ार वोटों से यहां टीएमसी ने जीत दर्ज की थी.
हरिनघाटा- यहां टीएमसी ने जीत हासिल की थी.
बागदा- सीपीएम-कांग्रेस गंठबंधन को यहां जीत मिली थी.
इसके अलावा बनगांव उत्तर, बनगांव दक्षिण, गईघाटा, स्वरूपनगर, मिनाखा, हिंगलगंज, गोसाबा, बासंती, कुलतलि, मन्दिरबाज़ार, जयनगर, बारुईपुर पूर्वी, कैनिंग पश्चिम, मगराहाट पूर्वी औऱ विष्णुपुर सीट पर मतुआ समुदाय का प्रभाव है. इन 21 सीटों में से 18 सीट पर टीएमसी ने जीत दर्ज की थी. 2016 विधानसभा चुनाव में 40 लाख से ज़्यादा वोटरों ने इन 21 विधानसभा सीटों अपने मतों का इस्तेमाल किया था.
मतुआ समुदाय बांग्लादेश में हरिचंद ठाकुर को मानने वाले लोग हैं. 1947 के बाद से बांग्लादेश से सटे हुए उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना और नदिया के अलग-अलग जगहों पर मतुआ समुदाय के लोग आने लगे. लेकिन ज़्यादातर लोगों के पास न अपनी ज़मीन थी और न ही भारत मे रहने के लिए नागरिकता थी. सीपीएम सरकार उनको रहने की इजाजत दी. लेकिन बहुत लोगों को इतने सालों के बाद भी ज़मीनों के स्थायी पट्टे नहीं मिले. बहुतों को नागरिकता भी नहीं मिली.
साल 2009 के बाद से ममता बनर्जी मतुआ समुदाय के करीब आने लगीं. समुदाय के लोग जिनको मानते थे, उसी ‘बड़ो मां’ का आशीर्वाद ममता बनर्जी को मिला. ‘बड़ो मां’ द्वारा 2010 में ममता बनर्जी को मतुआ समुदाय का मुख्य संरक्षक बनाया गया द्वारा और इसके कुछ सालों के बाद मतुआ वेलफेयर बोर्ड भी ममता सरकार द्वारा बनाई गई.
‘बड़ो मां’ के बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर ने 2014 में बनगांव लोकसभा सीट से तृणमूल के टिकट पर जीत हासिल किया था. उनकी मौत के बाद उनकी पत्नी ममता ठाकुर ने वहां से जीत हासिल की.
मतुआ समुदाय जिस ठाकुर परिवार से संचालित होते हैं उसी ठाकुर परिवार में दरार आई. बड़ो मा के पोते सुब्रतो ने बीजेपी के टिकट में ममता ठाकुर के खिलाफ चुनाव लड़ा. सुब्रतो के पिता मंजूल कृष्ण ठाकुर भी टीएमसी से बीजेपी में शामिल हुए. मंजूल के बेटे शांतनु ठाकुर भी बीजेपी से जुड़े. वे अभी बनगांव से सांसद हैं.
बीजेपी की तरफ से सीएए की घोषणा के बाद और ये कानून बनने के बाद मतुआ समुदाय के लोगों को लगा बहुत जल्दी उनको नागरिकता मिलने वाली है. लेकिन उससे पहले से ही लोकसभा चुनाव में बहुत सारे मतुआ वोटर्स बीजेपी के करीब आने लगे और तृणमूल कांग्रेस का वोट बैंक वहां से टूटने लगा.
इसीलिए ममता बनर्जी अब मतुआ समुदाय के प्रभाव वाले सीटों को अहमीयत दे रही हैं. 9 दिसंबर को सीएम ममता ने यहां एक रैली भी की थी. उन्होंने लोगों को ये संदेश देने की कोशिश की है कि टीएमसी उनके साथ ही है.
लेकिन यहां लोगों को अब नागरिकता को लेकर कोई स्थायी समाधान चाहिए. नागरिकता कानून लागू होने से बांग्लादेश से आये शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी. बीजेपी इसलिए कह रही है कि जनवरी में ही इस कानून को लागू करने की कोशिश की जाएगी.
बीजेपी के बड़े नेता भी ये आत्मविश्वास से कह रहे है कि विधानसभा चुनाव में मतुआ वोटर्स उन्हीं का साथ देंगे. पिछले हफ्ते मतुआ इलाके का दौरा कर चुके बंगाल बीजेपी के उपाध्यक्ष रितेश तिवारी भी यही बात कह रहे हैं. वहीं तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि बीजेपी जीतनी भी कोशिश करे इसमें वो कामयाब नहीं होगी.
अब आने वाले समय में नतीजे जो भी हों अगले 4 महीनों तक मतुआ समुदाय को लुभाने की कोशिश दोनों ही पार्टियों की तरफ से की जाएगी. जानकारों का कहना है कि 2016 में सीपीएम और कांग्रेस गठबंधन को जो 38 फीसदी वोट मिली थी, उसमें से ज़्यादातर वोट इस बार बीजेपी और टीएमसी में जाने की संभावना है. इन सीटों में नया समीकरण देखने को मिलेगा.