नई दिल्लीः देश में कोरोना की बेकाबू होती रफ़्तार के बीच एक बड़ा सवाल उठ रहा है कि आखिर चुनाव आयोग पश्चिम बंगाल में हो रहे चुनाव-प्रचार पर रोक क्यों नहीं लगा रहा है? यह भी पूछा जा रहा है कि हर छोटी सी घटना पर फौरन एक्शन में आने वाला निर्वाचन आयोग इस मामले में सख्ती दिखाने से आखिर हिचक क्यों रहा है? दिल्ली के कई बड़े डॉक्टरों का कहना है कि बंगाल की चुनावी सभाओं-रोड शो में जिस तरह से अब तक नियमों की धज्जियां उड़ते देखा है, उसके आधार पर सिर्फ यही अनुमान लगा सकते हैं कि वहां कोरोना संक्रमण का भयंकर विस्फ़ोट हो सकता है जो आसपास के राज्यों को भी अपनी चपेट में ले लेगा. लिहाज़ा उनका सुझाव है कि चुनाव आयोग को हर तरह के प्रचार पर तुरंत रोक लगानी चाहिए. प्रचार के लिये राजनीतिक दलों व उनके उम्मीदवारों के पास संचार माध्यमों व सोशल मीडिया के विकल्प मौजूद हैं.


उल्लेखनीय है कि बंगाल में अभी चार चरणों की वोटिंग होना बाकी है.चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना नियमों की धज्जियां उड़ने पर दिल्ली हाई कोर्ट ने  8 अप्रैल को सख्त नाराजगी जताते हुए केंद्र और चुनाव आयोग को नोटिस जारी कर पूछा है कि रैलियों में लोग बिना मास्क के क्यों नजर आ रहे हैं.कोर्ट ने दो टूक कहा कि रैलियों में लोगों का मास्क पहनना व उचित दूरी रखना सुनिश्चित किया जाए.


हाई कोर्ट की नाराजगी के बाद चुनाव आयोग ने फरमान जारी किया कि चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना गाइडलाइंस का पालन नहीं हुआ तो कड़ी कार्रवाई होगी. रैलियों पर रोक लगाई जा सकती है. उम्मीदवारों, स्टार प्रचारकों के चुनाव प्रचार करने पर रोक लगाई जा सकती है. आयोग ने यह फरमान तब जारी किया जब असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के चुनाव खत्म हो चुके. लेकिन आयोग के फरमान का किसी भी पार्टी पर जरा भी असर नहीं हुआ और बंगाल के चुनाव प्रचार में पहले जैसा ही नजारा है. अब तक न तो किसी नेता की रैली पर रोक लगाई गई और न ही किसी पार्टी ने आयोग से इस बारे में कोई शिकायत ही की है.जाहिर है कि कोई शिकायत करे भी तो कैसे क्योंकि नियमों का मखौल उड़ाने में कोई भी पार्टी किसी दूसरे दल से कमतर नहीं है. मतलब साफ है कि किसी भी दल को चुनाव आयोग के फरमान की न परवाह और न ही डर.


ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव आयोग आखिर और क्या करे कि सभी पार्टियों में उसका डर बैठे और नियमों का सख्ती से पालन हो? दिल्ली हाइकोर्ट के एडवोकेट व संविधान विशेषज्ञ अनिल अमृत कहते हैं कि," चुनाव आयोग के पास यह विधायी अधिकार नहीं है कि वह सम्पूर्ण रुप से चुनाव-प्रचार पर रोक लगा सके. लेकिन चूंकि कोरोना महामारी एक अभूतपूर्व स्थिति है,ऐसे में वह चुनावी राज्य के सभी डीएम व कलेक्टर को ये निर्देश दे सकता है कि यदि उनके इलाके में पीएम से लेकर चाहे कितने बड़े मंत्री, नेता की रैली या रोड शो होता है, तो उसमें कोरोना नियमों का सख्ती से पालन हो. अगर ऐसा नहीं होता है,तो आयोग उनके खिलाफ सख्त कारवाई करेगा. इसका असर यह होगा कि तब डीएम या कलेक्टर बगैर किसी भय के इन नियमों का पालन करवाने से हिचकेंगे नहीं. किसी भी चुनाव के दौरान जिले के रिटर्निंग ऑफिसर ही चुनाव आयोग के आंख,कान व नाक होते हैं." वह कहते हैं कि "यह भी हैरानी की बात है कि जब सभी राज्यों से कोरोना मरीजों के आंकड़े प्रतिदिन सार्वजनिक किये जा रहे हैं.ऐसे में,बंगाल की संख्या को आखिर किसलिये छुपाया जा रहा है."


वैसे चुनाव के दौरान एक डीएम की कितनी ताकत होती है, इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि साल 1989 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी पटना में एक चुनावी-सभा में भाषण दे रहे थे. घड़ी की सुई ने ज्यों ही रात के दस बजाये, उसी क्षण वहां के तत्कालीन युवा डीएम राजीव गोस्वामी मंच पर जा पहुंचे. आडवाणी को अपनी घड़ी का वक़्त दिखाते हुए बोले "आपको अभी अपना भाषण खत्म करना होगा". आडवाणी को आदर्श आचार संहिता के नियम का पालन करते हुए मजबूरन बीच में ही अपना भाषण खत्म करना पड़ा. अपने इस साहसी कदम के लिये तब गोस्वामी की तस्वीर को अंग्रेजी मैगज़ीन 'द टाइम' ने अपने कवर पर छापा था.


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