नई दिल्ली: पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दूसरे चरण के चुनाव से ऐन पहले 15 नेताओं को चिट्ठी लिखकर विपक्षी एकता की जो गुहार लगाई है, उसके क्या मायने निकाले जाएं? क्या यह समझा जाए कि उन्हें यह इलहाम हो चुका है कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को साधारण बहुमत (148 सीट) का आंकड़ा हासिल करने में काफी दिक्कत आने वाली है? क्या इसी हताशा के कारण उन्हें यह कदम उठाने पर मजबूर होना पड़ा?
कुछ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि इसी अनुमान के डर से उन्होंने अपनी जमीन तैयार की है ताकि उस सूरत में वे कांग्रेस के समर्थन से तीसरी बार राज्य की सत्ता पर काबिज हो सकें अन्यथा अगर वे विपक्षी एकता के लिए इतनी ही गंभीर होती तो विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें यह कवायद करनी चाहिए थी. हालांकि राज्य में कांग्रेस और वाम मोर्चा साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. लिहाजा नतीजे आने से पहले ऐसे कयास लगाने का कोई मतलब नहीं रह जाता कि तब तृणमूल की स्थिति क्या होगी और कांग्रेस को कितनी सीटें मिलती हैं.
सीएम ममता की चिट्ठी से पहले तृणमूल के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने बंगाली अखबार को दिए इंटरव्यू में एक अहम बात कही थी कि पश्चिम बंगाल का चुनाव इस देश का और लोकतंत्र का भविष्य तय करेगा. अगर बीजेपी यहां हारती है, तब वह हारकर भी जीतेगी क्योंकि पिछले चुनावों में उसे महज तीन सीटें मिली थीं. जाहिर है कि इस बार उसकी सीटों में इजाफा होगा.
उन्होंने कहा कि अगर ममता हारती हैं तो फिर यह धारणा मजबूत होगी कि बीजेपी 'वन पार्टी, वन नेशन' के कॉन्सेप्ट को किसी भी तरह से देश पर थोपना चाहती है. यानी वह पूरे देश में एकपक्षीय सत्तावादी शासन स्थापित करना चाहती है और इसके लिए वो सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं का खुलकर दुरुपयोग करने से हिचक नहीं रही है. ममता इसी धारणा के खिलाफ लड़ रही हैं और इसके लिए वे विपक्ष को एकजुट करेंगी.
पश्चिम बंगाल चुनाव की निष्पक्ष तरीके से जमीनी रिपोर्टिंग करने वाले भी मानते हैं कि बीजेपी ने मुकाबले को कांटे का बना दिया है और पूरा चुनाव तृणमूल बनाम बीजेपी का होकर रह गया है. ममता को इसकी उम्मीद नहीं थी. लगातार दस साल से राज कर रही पार्टी के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर होना भी तय है. जाहिर है कि लोगों की इस नाराजगी को ममता ने भी भांप लिया होगा लेकिन आखिरी वक्त पर किसी भी हुक्मरान के पास ऐसा कोई अलादीन का चिराग नहीं होता कि वे उन्हें खुश कर सके.
इसके उलट कुछ विश्लेषक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि ममता ने अपनी पार्टी की हार की आशंका को देख विपक्षी एकता का मुद्दा उठाया है. उनके मुताबिक बंगाल चुनाव के नतीजे चाहे जो भी रहें लेकिन अब ममता की दिलचस्पी राष्ट्रीय राजनीति में कुछ ज्यादा ही देखने को मिल सकती है. इसकी वजह है कि विपक्ष के पास ऐसा कोई नहीं है, जो नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता का मुकाबला कर सके.
विपक्ष के इस वैक्यूम को भरने के लिए ममता से बेहतर कोई और इसलिए नहीं है कि उनकी इमेज एक फाइटर नेता की बन चुकी है. इस चुनाव के जरिए उन्हें पूरे देश को अपनी इस इमेज को दिखाने का अवसर मिला है, जो 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें विपक्ष का सर्वमान्य नेता बनाने में मददगार साबित हो सकता है.
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