राज की बातः पश्चिम बंगाल के सियासी रण में फतह के लिए फड़फड़ा रहे राजनैतिक अरमान नित नई रणनीतियों के साथ सामने आ रहे हैं. कुछ रणनीतियों पर खुलकर खेला जा रहा है, कुछ सतही हैं और कुछ एक राज की तरह हैं जिन पर बड़ी बारीकी और गोपनीयता के गोलबंदी बिठाई जा रही है. ममता बनर्जी जितनी आश्वस्त अपनी कुर्सी को बचा लेने को लेकर हैं, बीजेपी उतनी ही शिद्दत के साथ सत्ता परिवर्तन का बवंडर खड़ा करने की कोशिश में लगी हुई है.


राज्य को विधानसभा में जीतने के लिए केवल तैयारी बूथ लेवल के मैनेजमेंट तक ही नहीं हो रही. तैयारी हर उस वोट को साध लेने तक की हो रही है जिसमें जीत की गुंजाइश बढ़ती है और वोट परसेंटेंज का फासला घटता है.


आज राज की बात में हम आपको बंगाल की सियासी बिसात पर बिछाई जा रही एक ऐसी ही रणनीति के बारे में बताने जा हे हैं जो सफल रही तो राजनीति की कई धुरियां बदल जाएंगी. राज की बात ये है कि अगर ये रणनीति सफल होती है तो फायदा केवल बीजेपी का ही नहीं बल्कि अस्तित्व की जंग में जूझते लेफ्ट और कांग्रेस को कमल की मेहनत से ही हो जाएगा.


तो राज की बात में हम सबसे पहले बात करते हैं बीजेपी के उस नए प्लान की जिसमें साइलेंट वोटर्स को साधने की कोशिश जारी है. यहां पर राज की बात वही साइलेंट वोटर्स हैं जिनपर बीजेपी की निगाहें हैं. तो सवाल ये है कि आखिर कौन हैं वो साइलेट वोटर्स जो बीजेपी की किस्मत और पश्चिम बंगाल का सियासी भविष्य बदल डालने की ताकत रखते हैं और उन्हीं को ट्रिगर करके बीजेपी आगे बढ़ना चाहती है. इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें पहले 2016 विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणामों पर मंथन करना होगा.


दरअसल, 2016 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को महज 10 फीसदी वोट की हासिल हुए थे लेकिन 3 साल बाद जब लोकसभा चुनाव हुए तो पार्टी का वोट परसेंटेज 40 फीसदी पहुंच गया. और ये उस सूरतेहाल में हुआ था जब 70 फीसदी बूथ पर भाजपा के पोलिंग एजेंट तक नहीं थे. सवाल ये है कि फिर ये कमाल कैसे हुआ. इस सवाल का जवाब वही साइलेंट वोटर है जिसने भाजपा को 10 फीसदी से 40 फीसदी वोट पर लेजाकर खड़ा कर दिया.


अब सवाल ये है कि साइलेंट वोटर तो साइलेंट है फिर उसकी पहचान कैसे की जाए. तो राज की बात यही है कि भाजपा ने उस साइलेंट वोटर को पहचान लिया है और वोट परसेंट को बढ़ाने वाली नब्ज को पकड़ लिया है.


राज की बात ये है कि ये साइलेंट वोटर वो है जो सत्ता संरक्षित दबंगों से परेशान हैं, ये साइलेंट वोटर वो हैं जो साम्प्रदायिक और तुष्टीकरण वाली राजनीति में फंस कर हलकान हैं, ये साइलेंट वोटर वो हैं जो अपने हक को लूट लिए जाने के जुल्म को झेलते झेलते आजिज आ चुका है.


दरअसल, पश्चिम बंगाल में बड़ी आबादी ऐसी है जिसे सरकारी योजनाओं का पात्रता पाने के लिए टीएमसी के दबंगो को 'कट' यानि की कमीशन देना पड़ता है. हालात ये हैं कि मनरेगा के मजदूरों तक को अपनी नाममात्र की मजदूरी में कमीशन देना पड़ रहा है. और रक्तरंजित राजनीति में बर्बाद हुए परिवारों और लोगों का गुस्सा अलग है. यही वो साइलेंट वोटर है जो बीजेपी में अपने वजूद की सुरक्षा महसूस कर पा रहा और इन्हें ही खुद से जोड़ने की कोशिश में बीजेपी ने जान लगा दी है.


तो आज के राज की बात का पहला पहलू यही है जो कुशासन से तंग तबका है वही बीजेपी साधने की कोशिश में है क्योंकि अगर ये तबका सध गया तो फिर सीटों का गणित भी काफी हद तक सध जाएगा. दूसरी तरफ लेफ्ट और कांग्रेस की बेबसी और निष्क्रियता भी बीजेपी के लिए सियासी संजीवनी का काम कर रही है. पश्चिम बंगाली चुनाव आसन्न है, लेकिन राज्य में सिर्फ या तो ममता हैं और सामने बीजेपी. वामपंथी मोर्चा और कांग्रेस का गठबंधन काग़ज़ों पर तो हो गया है, लेकिन ज़मीन पर सक्रियता कहीं नहीं है. ख़ास बात है कि इस मोर्चे की ये निष्क्रियता इसलिए नहीं कि वो कुछ नहीं कर सकता. बल्कि इसके पीछे दोनों दलों के बीच अपनी भविष्य की चिंता और राज्य का चुनावी गणित है, जिसके मद्देनज़र दोनों दल बहुत ज़ोर ज़मीन पर मारते नहीं दिख रहे.


यह राज की बात नहीं कि ममता के राज में राजनैतिक नेपथ्य में जा चुके ये दोनो दल ममता की कुर्सी जाने के इंतजार में ही बैठे हैं. वजह भी इसकी साफ है. दरअसल ममता की ताकत लेफ्ट के कार्यकर्ताओं से ही है जो बाद में तृणमूल में चले गए. लेफ्ट पार्टीज को लगता है कि ममता अगर हारती हैं तो उनका कार्यकर्ता और उनके नेता एक बार फिर से घरवापसी करेंगे और कैडर मजबूत होगा. वहीं कांग्रेस की पतली हालत भी अभी ऐसी नहीं है कि वो तृणमूल से टक्कर ले सके. ऐसे में दोनों दलों के लिए बीजेपी की जीत में अपनी जीत की अनुभूति हो सकती है. वैसे 2016 के विधानसभा चुनाव में वाम मोर्चा को मिले वोटों और लोकसभा में मिले वोटों का प्रतिशत देखेंगे तो भी समझ में आ जाएगा कि बीजेपी की जीत और ममता की हार में इस अंतर का बड़ा महत्व था.


वाम मोर्चा और कांग्रेस ये समझ चुके हैं कि वे जितनी मज़बूती से लड़ेंगे, ममता को उससे सीधा फ़ायदा होगा. वैसे ये दोनों दल बीजेपी के साथ न तो वैचारिक और न ही सियासी स्तर पर साथ जा सकते हैं. इसके बावजूद पश्चिम बंगाल में ममता की वामपंथी युग की तरह प्रतिशोध और दमन वाली सियासत के शिकार दोनों ही दल अब खुद हैं. उनके वजूद का ख़तरा भी आ गया है. उनके नेताओं को ऐसा लग रहा है कि अगर बीजेपी भी आ जाती है तो कम से कम इन दलों का विपक्ष का रुतबा तो रहेगा. इसीलिए सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी लगातार कह रहे हैं कि बीजेपी को हराना है तो ममता को भी हराना होगा.


मतलब ये हुआ कि अगर बीजेपी राजनैतिक ध्रुव को पश्चिम बंगाल में बदलने में सफल होती है तो बहुत कुछ बदलेगा. और बीजेपी को बदलाव की उम्मीद इसलिए है क्योंकि जब साइलेंट वोटर की पहचान नहीं थी तब पार्टी 10 फीसदी वोट से 40 फीसदी तक पहुंच गई ....ऐसे में उस वोटर से सीधे जुड़ जाने पर अगर मत प्रतिशत बढ़ता है तो सीटें भी बढेंगी और बीजेपी का मिशन बंगाल पूरा हो सकता है. मिशन बंगाल में लगी बीजेपी के लिए लेफ्ट और कांग्रेस की निष्क्रियता और ओवैसी की सक्रियता भी काफी हद तक बिहार की तर्ज पर मददगार साबित हो सकती है.


इसके साथ ही एक और अहम राज की बात है कि पश्चिम बंगाल में मतदान के दौरान कितनी सख्ती होती है, इसका भी नतीजों पर असर पड़ेगा. पश्चिम बंगाल के राजनीतिक पंडितों का मानना है कि जब सभी बूथों पर पोलिंग एजेंट न हों और सुरक्षा में स्थानीय पुलिस-प्रशासन हो तो मतदान में सत्ताधारी दल को फ़ायदा स्वाभाविक है. इसलिए, लोकसभा से भी ज्यादा केंद्रीय सुरक्षा बल चुनाव के लिए पश्चिम बंगाल में होंगे. वैसे भी पश्चिम बंगाल में राजनीतिक तौर पर चाणक्य की भूमिका में गृह मंत्री अमित शाह हैं.