पश्चिम बंगाल: क्या व्हीलचेयर बचा पाएगी 'घायल शेरनी' का किला?
इसमें कोई शक नहीं है कि ममता के पैर में चोट लगी है लेकिन धीरे-धीरे ही सही पर उनके इस आरोप की अब हवा निकलने लगी है कि इसके पीछे विपक्ष की साजिश थी.
नई दिल्ली: देश की चुनावी राजनीति में सहानुभूति के जरिये लोगों के वोट पाने का पुराना इतिहास रहा है लेकिन यह निर्भर करता है कि संबंधित पार्टी या उम्मीदवार के साथ कितना बड़ा हादसा हुआ है और उसने वोटरों के दिलोदिमाग को किस हद तक झकझोरा है. अगर ममता बनर्जी के कथित हमले की बात करें ,तो केंद्रीय चुनाव आयोग ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए रायता इतना फैला दिया है कि बंगाल के वोटर भी अब कन्फ्यूज़ हो रहे हैं कि आखिर वे किसकी बात को सच मानें.
इसमें कोई शक नहीं है कि ममता के पैर में चोट लगी है लेकिन धीरे-धीरे ही सही पर उनके इस आरोप की अब हवा निकलने लगी है कि इसके पीछे विपक्ष की साजिश थी. अब बड़ा सवाल यही बचता है कि तो क्या सचमुच वह सिर्फ एक हादसा ही था या फिर चुनावी रणनीति के लिए लिखी गई स्क्रिप्ट का एक अहम हिस्सा था कि बंगाल की शेरनी को ऐन वक्त पर व्हीलचेयर पर बैठकर सहानुभूति पाने का अभिनय करना होगा?
इसका सही जवाब तो सिर्फ ममता या उनके चुनावी रणनीतिकार ही दे सकते हैं. अगर बंगाल से जुड़े राजनीतिक पर्यवेक्षकों के नजरिये से देखें तो ममता को इसका एकतरफा फायदा मिलने के आसार कम हैं. कुछ सीटों पर उनकी पार्टी तृणमूल को सहानुभूति वोट मिल सकते हैं, पर वे कितने होंगे, ये कहना मुश्किल है. हो सकता है कि इस घटना को लेकर उठे विवाद के बाद उन्हें कुछ सीटों पर इसका नुकसान भी झेलना पड़े.
सेंटर फॉर स्टडी इन सोशल साइंसेज के असिस्टेंट प्रोफेसर मोइदुल इस्लाम कहते हैं कि ममता के चोटिल होने के बाद तृणमूल कांग्रेस अपने चुनाव प्रचार की गति को कैसे कायम रख पाती है, यह भी देखा जाना है. ममता के प्रचार में रहने या ना रहने से काफी फर्क पड़ता है. ममता कार्यकर्ताओं को उत्साहित करने में समर्थ हैं. वह उन्हें ‘चार्ज्ड अप’ कर देती हैं. ममता की चोट इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि शुरुआती चरण के चुनाव पुरुलिया, बांकुड़ा, झाड़ग्राम जिलों में हैं. ये वे जिले हैं, जहां गत लोकसभा चुनाव में तृणमूल का प्रदर्शन भाजपा की अपेक्षा कमजोर था. ऐसे में ममता का बिस्तर से बंध जाना, इन सीटों पर भारी पड़ सकता है. जहां तक सहानुभूति वोटों का सवाल है, तो जाहिर है कि तृणमूल इसे पाने के लिए पूरा जोर लगाएगी. जनता को यह जताया जाएगा कि कैसे ममता पर बार-बार हमले होते रहे हैं. उनकी सामान्य पृष्ठभूमि का भी जिक्र किया जाएगा. लेकिन यह कितना असरदार होगा या फिर विपक्ष तृणमूल के इस प्रचार की हवा किस हद तक निकाल पाएगा, इसका अनुमान अभी लगाना मुश्किल है.
एक अहम सवाल यह भी है कि क्या ममता को यह अहसास हो चुका है कि बंगाल के चुनावी अखाड़े में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी की एंट्री तृणमूल को खासा नुकसान पहुंचा सकती है? जाहिर है कि बंगाल में मुसलमानों वोटों का बंटवारा ममता को कमजोर करेगा. ये हालात बीजेपी को फायदा दे सकते हैं और शायद यही वजह है कि बीजेपी नेता इतने अधिक उत्साहित हैं. ओवैसी बंगाल में अगर थोड़ी सी भी ताकत इकट्ठा करते हैं तो ममता की राजनीति का आधार हिल सकता है.
घायल होने के बाद अपने पहले रोड शो में ममता ने जिस तरह से खुद को घायल बाघिन बताते हुए कहा कि "खेले होबे' यानी एक घायल बाघ सबसे खतरनाक होता है,इसमें उनकी चेतावनी के साथ कहीं न कहीं डर का दर्द भी झलकता है.
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