इस्लाम और ईसाई धर्म अपना चुके दलितों को मिलेगा SC का दर्जा? आखिर क्या है आर्टिकल 341 और इसके सियासी मायने
Article 341: केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता में सरकार ने एक आयोग का गठन किया है. आयोग इस बात पर विचार करेगा कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपना चुके दलितों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए या नहीं.
SC Status For Converted Dalits: केंद्र सरकार ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन (KG Balakrishnan) की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया है. यह आयोग इस्लाम (Islam) और ईसाई (Christian) धर्म पर अपना चुके दलितों को अनुसूचित जाति (Schedule Caste Status) का दर्जा देने पर विचार कर सरकार को रिपोर्ट देगा.
केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा गुरुवार को जारी अधिसूचना के अनुसार, आयोग में सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी डॉ रविंदर कुमार जैन और यूजीसी सदस्य प्रो (डॉ) सुषमा यादव भी सदस्य के रूप में शामिल होंगे. आयोग को दो साल में अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को देनी होगी.
आसान भाषा में समझिए आर्टिकल-341 है क्या?
संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 यह निर्धारित करता है कि हिंदू धर्म, सिख धर्म या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानने वाले किसी भी व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है. मूल आदेश में पहले केवल हिंदुओं को वर्गीकृत किया गया था, लेकिन बाद में सिखों और बौद्धों को भी इसमें शामिल किया गया और आदेश को संशोधित किया गया. 1990 में सरकार ने आदेश को संशोधित कर कहा, "कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानता है, उसको इसका अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा."
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-341 (Article- 341) अनुसूचित जाति (SC) के बारे में है. इस आर्टिकल में दो क्लॉज हैं. पहले क्लॉज में बताया गया है कि भारत का राष्ट्रपति किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के किसी जाति को पब्लिक नोटिफिकेशन के जरिए एससी में शामिल कर सकता है. राज्य के मामले में राष्ट्रपति को वहां के राज्यपाल के साथ राय-मशविरा करने की जरूरत होती है. दूसरे क्लॉज में बताया गया है कि भारतीय संसद राष्ट्रपति के पब्लिक नोटिस द्वारा अनुसूचित जाति में शामिल की गई किसी जाति को इस सूची से निकाल सकता है और साथ ही शामिल भी कर सकता है.
अब समझिए क्यों है विवाद?
नया आयोग ऐसे समय में स्थापित किया गया है जब सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) दलित ईसाइयों की राष्ट्रीय परिषद (NCDC) द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जो 2020 से एससी की स्थिति के लिए लड़ रही है. 2004 से ही इस मामले में अदालत में कई मामले दर्ज हो चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त महीने में केंद्र को इस मुद्दे पर अपनी वर्तमान स्थिति प्रस्तुत करने का निर्देश दिया था. दलित ईसाई और मुस्लिम संगठनों का तर्क यह रहा है कि इन समुदायों को भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. गुरुवार को इन संगठनों ने केंद्र के नवीनतम कदम की "देरी की रणनीति" के रूप में आलोचना की.
सामाजिक न्याय मंत्रालय का क्या कहना है?
सामाजिक न्याय मंत्रालय ने कहा कि "कुछ समूहों" ने "राष्ट्रपति के आदेशों के माध्यम से अनुमत लोगों से परे अन्य धर्मों से संबंधित नए व्यक्तियों की स्थिति के अनुसार" अनुसूचित जाति की मौजूदा परिभाषा पर फिर से विचार करने का सवाल उठाया है. मंत्रालय ने कहा कि जहां कुछ वर्गों द्वारा शामिल किए जाने की मांग है, वहीं मौजूदा अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधियों ने "नए व्यक्तियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का विरोध किया है."
'किसी भी आयोग ने इस मामले की जांच नहीं की'
इसी के साथ मंत्रालय ने कहा, "... यह एक मौलिक और ऐतिहासिक रूप से जटिल सामाजिक और संवैधानिक प्रश्न है और सार्वजनिक महत्व का एक निश्चित मामला है ... इसके महत्व, संवेदनशीलता और संभावित प्रभाव को देखते हुए इस संबंध में परिभाषा में कोई भी परिवर्तन विस्तृत और निश्चित अध्ययन और सभी हितधारकों के साथ व्यापक परामर्श के आधार पर होना चाहिए. जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत किसी भी आयोग ने अब तक इस मामले की जांच नहीं की है."
NCDC ने किया विरोध, बताई यह वजह
इस कदम का विरोध करते हुए एनसीडीसी (National Council For Dalit Christians) के अध्यक्ष विजय जॉर्ज ने कहा, "यह सरकार की देरी की रणनीति है, जो स्पष्ट रूप से इस मामले का निष्कर्ष नहीं देखना चाहती है. एक और आयोग की क्या जरूरत थी जब अतीत में कई आयोग और समितियां सरकार को रिपोर्ट सौंप चुकी हैं, जिसमें रंगनाथ मिश्रा आयोग भी शामिल है. जिसने इस तरह का दर्जा देने के पक्ष में फैसला सुनाया है. जब बौद्धों और सिखों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया गया था तब कोई कमीशन नहीं था. यह कदम राजनीति से प्रेरित और जाति और धर्म के आधार पर भेदभावपूर्ण है."
पूर्व राज्यसभा सांसद ने लगाया सरकार पर देरी का आरोप
एनसीडीसी की राय का प्रतिध्वनित करते हुए अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम महाज़ के संस्थापक और बिहार के पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी ने सरकार पर निर्णय में देरी करने का आरोप लगाया "ताकि वह 2024 के चुनावों को पार कर सके." अंसारी ने यह भी कहा, "हमने उन्हें यह स्पष्ट कर दिया था कि हमारा समर्थन दो मुद्दों के समाधान पर टिका है. पहला यह कि मॉब लिंचिंग, गौरक्षकता और अत्याचार, जहां पसमांदा मुसलमानों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है, को तुरंत रोका जाना चाहिए. दूसरा मुद्दा एससी का दर्जा देने का था. मैं आने वाले सप्ताह में समुदाय के लिए रैली करूंगा.''
'हमें छुआछूत का सामना करना पड़ता है'
नेशनल दलित क्रिश्चियन वॉच गवर्निंग बोर्ड के सदस्य रिचर्ड देवदास ने कहा कि ईसाई और इस्लाम में परिवर्तित होने वाले दलित अभी भी भेदभाव और अत्याचारों का सामना करते हैं. उन्होंने कहा, "जबकि हमें दलितों के रूप में माना जाता है और छुआछूत का सामना करना पड़ता है, हमें आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है और एससी / एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम द्वारा वहन की जाने वाली सुरक्षा नहीं है."
हालांकि, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष विजय सांपला ने कहा कि नए अध्ययन के बिना एससी सूची में नए लोगों को शामिल करना संभव नहीं है. उन्होंने कहा, "हमें इन समुदायों के आरक्षण के मानकों को देखने की जरूरत है. हमें यह सत्यापित करने की आवश्यकता है कि क्या वे वास्तव में उस भेदभाव का सामना करते हैं जिसका वे सामना करने का दावा करते हैं."
पिछली सरकारों में भी उठा था ये मुद्दा
डॉ मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली तत्कालीन यूपीए (UPA) सरकार ने अक्टूबर 2004 में इस दिशा में कदम बढ़ाया था. तब धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के कल्याण के उपायों की सिफारिशों के लिए भाषाई अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया था. इस राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग (National Commission For Religious And Linguistic Minorities) का गठन भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा (Ranganath Misra) की अध्यक्षता में किया गया था.
मई 2007 में, रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें सिफारिश की गई कि अनुसूचित जाति का दर्जा पूरी तरह से धर्म से अलग कर दिया जाए और एसटी की तरह उसे धर्म-तटस्थ (Religion-Neutral) बनाया जाए. हालांकि तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस सिफारिश को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि जमीनी अध्ययनों (Field Studies) से इसकी पुष्टि नहीं हुई थी.
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