कावेरी नदी के जल बंटवारे का मुद्दा फिर से तूल पकड़ने लगा है. 21 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कर्नाटक सरकार ने तमिलनाडु को हर दिन 5,000 क्यूसेक पानी देने का फैसला किया है, जिस पर कई किसानों, कई कन्नड़ समर्थक संगठनों और मजदूर यूनियनों ने 26 सितंबर को बेंगलुरु में बंद बुलाया है. किसानों की कर्नाटक जल संरक्षण समिति, किसान नेता कुरुबुरु शांताकुमार ने बंद का ऐलान किया. बंद का राज्य में विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी और जनता दल सेक्युलर ने भी समर्थन किया है. 29 सितंबर के लिए फिर से बंद का ऐलान किया गया है. संगठनों का कहना है कि मानसून खत्म होने को है और खेती के लिए पानी की जरूरत है, ऐसे में तमिलनाडु के लिए पानी छोड़ने का फैसला क्यों लिया गया.
प्रदर्शनकारियों को इस बात की भी चिंता सता रही है कि कावेरी बेसिन रिजरवायर में पहले ही पानी का स्टोरेज लेवल कम है और कावेरी नदी ही बेंगलुरु में पीने और मांड्या में खेती के लिए पानी का मुख्य स्त्रोत है. कावेरी वॉटर मैनेजमेंट अथॉरिटी दोनों राज्यों के बीच कावेरी नदी विवाद के मुद्दे को देख रही है. सीडब्ल्यूएमए को केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत बनाया गया था और सुप्रीम कोर्ट के 2018 के आदेश को लागू करने का सौंपा गया था. कोर्ट के आदेश के बावजूद क्यों इस पर विवाद हो रहा है, कौन-कौन इसका विरोध कर रहा है और कब और कैसे इस विवाद की शुरुआत हुई, इन सारे सवालों के जवाबों की यहां विस्तृत जानकारी दी गई है-
क्या है कावेरी जल विवाद?
कावेरी जल विवाद 140 साल से भी ज्यादा पुराना है. यह नदी कर्नाटक के कोडागू जिले से निकलती है और तमिलनाडु से होती हुई बंगाल की खाड़ी तक जाती है. इसके कुछ हिस्से केरल और पुडुचेरी में भी हैं. यह विवाद सबसे पहले 1881 में शुरू हुआ था. कर्नाटक, जो तब मैसूर के नाम से जाना जाता था, ने नदी पर बांध बनाने की मांग उठाई, जिसका तमिलनाडु ने विरोध किया. 40 सालों तक विवाद चलने के बाद 1924 में ब्रिटिशों ने दोनों राज्यों के बीच एक समझौता करवाया, जिसके तहत तमिलनाडु को 556 टीएमसी (हजार मिलियन क्यूबिक फीट) और कर्नाटक के लिए 177 टीएमसी पानी पर अधिकार का करार हुआ. बाद में पुडुचेरी और केरल भी इस विवाद में कूद पड़े, जिसके लिए 1972 में एक कमेटी गठित की गई और 1976 में कमेटी ने चारों दावेदारों के बीच एग्रीमेंट करवाया. हालांकि, विवाद जारी रहा और 1986 में तमिलनाडु ने अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम के तहत एक ट्रिब्यूनल की मांग की. 1990 में गठित ट्रिब्यूनल ने फैसला किया कि समझौते के तहत तमिलनाडु को तय हिस्सा मिलेगा, लेकिन कर्नाटक का कहना था कि ब्रिटिश शासन में किया गया समझौता न्यासंगत नहीं है. हालांकि, तमिलनाडु पुराने समझौते को तर्कसंगत मानता है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद क्यों हो रहा विवाद?
कावेरी जल विवाद को लेकर 1991, 2002, 2012 और 2016 में भी बवाल मचा, लेकिन इस बार फर्क ये है कि 2018 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद विवाद फिर से तूल पकड़ रहा है. 1991 और 2016 में इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा हंगामा हुआ था और राज्य में हिंसात्मक घटनाएं भी देखने को मिली थीं. दोनों ही समय पर कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार थी. 1991 में राज्य में एस बंगरप्पा मुख्यमंत्री थी उस दौरान हुई हिंसात्मक घटनाओं में 23 लोगों की मौत हुई थी. 2016 में सिद्धारमैया की सरकार में कावेरी जल विवाद उठा था. मौजूदा विवाद कर्नाटक के डिप्टी सीएम और जल संसाधन मंत्री डीके शिवकुमार के बयान से शुरू हुआ. उन्होंने कहा कि राज्य पानी दे पाने की स्थिति में नहीं है क्योंकि उनके जलाशयों में खुद पानी नहीं है. इस बयान पर तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और कर्नाटक को 24 हजार क्यूसेक पानी छोड़ने को कहा, जिस पर कर्नाटक सरकार ने 10 हजार क्यूसेक पानी छोड़ने की बात कही. इसे लेकर कर्नाटक के किसानों और विभिन्न संगठनों समेत राजनीतक दलों ने आपत्ति जताई और कांग्रेस सरकार के फैसले का विरोध किया. 21 सितंबर को कोर्ट ने कर्नाटक को तमिलनाडु को 27 सितंबर तक प्रतिदिन 5000 क्यूसेक पानी देने का आदेश दिया.
क्या है 2018 का सुप्रीम कोर्ट का आदेश?
फरवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने कावेरी जल विवाद पर फैसला सुनाते हुए कर्नाटक के लिए 14.75 टीएमसी अधिक पानी की घोषणा की थी, जबकि तमिलनाडु के हिस्से से इतने ही पानी की मात्रा कम कर दी गई. आदेश में कहा गया कि हर साल दिए जाने वाले 740 टीएमसी में से तमिलनाडु के लिए 404.25 टीएमसी, कर्नाटक के लिए 284.75 टीएमसी, केरल के लिए 30 टीएमसी और पुडुचेरी के लिए 7 टीएमसी, 14 टीएमसी हिस्सा वातावरण संरक्षण के लिए रहेगा. कोर्ट ने चारों राज्यों में आदेश को लागू करने की जिम्मेदारी के लिए सीडब्ल्यूएमए और कावेरी रेग्यूलेटरी कमेटी बनाने का भा निर्देश दिया था.
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