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पटाखे फूटते हैं तो लगता है दिवाली है... क्या सही में है इनका आपस में कोई कनेक्शन? जानें इस पर भारत का इतिहास

पूरे देश में जो सबसे बड़ी मान्यता है वो है कि भगवान राम लंका पर विजय हासिल करके अयोध्या लौटे थे और तब अयोध्या के लोगों ने घी के दिए जलाकर उनका स्वागत किया था.

क्या पटाखों का धर्म से कोई कनेक्शन है? क्या पटाखों पर बैन लगने से हिंदू धर्म का नुकसान होता है? क्या बिना पटाखों के दिवाली मनाने से भगवान खुश नहीं होते? क्या इन पटाखों का हिंदू धर्म की किसी किताब में जिक्र है?  क्या एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्थाएं जानबूझकर हिंदू धर्म के त्योहार के दौरान ही बैन लगाती हैं? या फिर हम यूं ही आहत हो जाते हैं...हम यूं ही अपने धर्म को लेकर इतने प्रबुद्ध बन जाते हैं कि पटाखे की बातों को धर्म से जोड़कर देखने लगते हैं.

क्या हमारे धर्मग्रंथों में है कहीं पटाखे का उल्लेख या फिर ये है एक विदेशी और खास तौर से चाइनीज प्रोडक्ट, जो वक्त के साथ भारतीय हो गया और इतना भारतीय हो गया कि ये हिंदू धर्म के साथ ही चस्पा हो गया. आखिर क्या है हिंदू त्योहारों में पटाखों के इस्तेमाल की कहानी और आखिर किस धर्मग्रंथ में है दिपावली पर पटाखों का जिक्र, बताएंगे विस्तार से. 

पटाखे और दिवाली एक दूसरे के साथ इस कदर जुड़ गए हैं कि पटाखे फूटते हैं तो लगता है कि दिवाली आ गई है और दिवाली आती है तो पटाखे फूटते ही हैं, लेकिन क्या आपको पता है कि दिवाली को लेकर जितनी भी मान्यताएं हमारे धर्म ग्रंथों में हैं, उनमें कहीं भी पटाखों का जिक्र नहीं है. जिक्र है तो सिर्फ रोशनी का और इसीलिए इस त्योहार को दीपावली कहा जाता है जो अपभ्रंष होकर दिवाली बन गया है. दीपावली का संधि विच्छेद करें तो बनता है दीप और आवली. हिंदी व्याकरण के हिसाब से दीर्घ स्वर संधि. मतलब होगा दीपों की कतार. दीपकों की लाइन. इस त्योहार के पीछे कई मान्यताएं हैं. उदाहण के तौर पर जब देवताओं और दानवों ने समुद्र मंथन किया था तो उससे कई चीजें निकलीं थी. विष भी अमृत भी और इसी मंथन से लक्ष्मी, धनवंतरी और कुबेर भी निकले थे. हिंदू मान्यताओं के हिसाब से वो कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की अमावस्या थी. धन की देवी लक्ष्मी, आरोग्य यानी कि बीमारी के देवता धनवंतरी और पैसे के देवता कुबेर की इसी उत्पत्ति पर दिवाली मनाई जाती है.

एक और मान्यता है कि विष्णु के चौथे अवतार नरसिंह भगवान ने  कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को ही हिरणकश्यप का वध किया था और तब उस दिन लोगों ने घी के दिए जलाकर रोशनी की थी. इसके अलावा भगवान कृष्ण को लेकर भी एक मान्यता है कि कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था. इसके अगले दिन अमावस्या को गोकुल के लोगों ने घी के दिए जलाकर गोकुल को प्रकाशित किया था. पूरे देश में जो सबसे बड़ी मान्यता है वो है कि भगवान राम लंका पर विजय हासिल करके अयोध्या लौटे थे और तब अयोध्या के लोगों ने घी के दिए जलाकर उनका स्वागत किया था. उसी समय से ही कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को दिए जलाने की परंपरा चली आ रही है.

मैंने आपको हिंदू धर्म की चार अलग-अलग मान्यताएं बताईं. क्या इनमें कहीं भी और कभी भी इस बात का जिक्र है कि लोगों ने पटाखे जलाकर खुशियां मनाईं. नहीं...हमेशा दीपक जलाकर ही खुशियां मनाईं....सबसे प्रचलित मान्यता राम के लंका विजय के बाद अयोध्या लौटने की है. इसका जिक्र तुलसीदास ने रामचरित मानस में भी किया है...उत्तर कांड में दूसरे दोहे के बाद की आखिरी चौपाइयों में तुलसीदास लिखते हैं...

अवधपुरी प्रभु आवत जानी, भइ सकल सोभा कै खानी| बहई सुहावन त्रिविध समीरा, भइ सरजू अति निर्मल नीरा.

यानी कि भगवान राम के आने का समाचार सुनकर अवधपुरी सभी शोभाओं की खान हो गई. वहां तीन तरह की सुगंधित हवाएं बहने लगीं और सरयू का पानी निर्मल हो गया. आठवें दोहे के बाद की चौपाइयों में तुलसीदास लिखते हैं कि

बीथीं सकल सुगंध सिंचाई, गजमनि रचि बहु चौक पुराई| नाना भांति सुमंगल साजे, हरषि नगर निसान बहु बाजे|

यानी कि सारी गलियां सुगंधित द्रवों से सींची गईं. रंगोली बनाई गई. अच्छे-अच्छे साज सजाए गए और पूरे नगर में वाद्य यंत्र बजने लगे. तुलसीदास ने मानस में इसका बहुत ही विस्तार से वर्णन किया है, लेकिन कहीं भी जिक्र पटाखों का नहीं है. कानफोड़ू शोर का नहीं है. है तो सिर्फ रोशनी का. जिक्र है तो सिर्फ सुगंध का...और ये सब घी के दियों से मिलता है, बारुद के फटने से नहीं...दिए जलते हैं तो रोशनी होती है और घी के जलने से निकलने वाला धुआं भी सुगंधित होता है. उससे एक खुशबू आती है, जिससे आंखें नहीं जलतीं...अगर अयोध्या के लोगों ने भी पटाखे जलाए होते तो शायद तुलसीदास अपनी चौपाई में बहहुं सुहावन त्रिविध समीरा नहीं लिख पाते...क्योंकि तब अयोध्या में भी पटाखों की दुर्गंध होती...हवाओं की सुगंध नहीं...

राम कथा को लेकर सबसे प्रमाणित और सबसे प्राचीन धर्म ग्रंथ वाल्मीकि कृत रामायण में भी कहीं पटाखों का जिक्र नहीं है. खुद महर्षि वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड के 127वें सर्ग की श्लोक संख्या 1 और 2 में लिखते हैं कि

श्रुत्वा तु परमानन्दं भरतः सत्यविक्रमः |
हृष्टमाज्ञापयामास शत्रुघ्नं परवीरहा||

दैवतानि च सर्वाणि चैत्यानि नगरस्य च |
सुगन्धमाल्यैर्वादित्रैरर्चन्तु शुचयो नराः ||

यानी कि हनुमान के जरिए राम के आने का समाचार सुनकर भरत ने अपने भाई शत्रु्घ्न से कहा कि सभी कुल देवताओं और नगर के सभी देव स्थानों का गाजे-बाजे के साथ सुगंधित पुष्पों से पूजन करें. वाल्मीकी रामायण के इसी 127 वें सर्ग की श्लोक संख्या पांच से लेकर 15 तक में इस बात का विस्तार से जिक्र है कि कैसे भगवान राम के आने की बात सुनकर अयोध्या के लोगों ने अपने नगर को सजाया. उस दौरान उबड़-खाबड़ रास्ते समतल किए गए, रास्ते पर ठंडे पानी का छिड़काव किया गया. रास्ते में लावा-फूल बिखेर दिए गए. सड़के अगल-बदल ऊंची पताकाएं फहराई गईं. फूलों के गजरे सजाए गए. हजारों घोड़े और घुड़सवार राम की अगवानी के लिए मौजूद थे. उस वक्त पर भी धरती कांप रही थी, जिसकी वजह घोड़ों की टाप, दुंदुभी और शंख की आवाज थी.

आज भी दीपावली पर धरती कांपती है और इसकी वजह पटाखों का शोर होता है, कोई शंख, दुंदुभि और दूसरे किसी वाद्य यंत्र की आवाज नहीं क्योंकि तथ्य ये है कि उस वक्त पटाखों का इजाद भी नहीं हुआ था. न तो सतयुग में, न त्रेतायुग में और न ही द्वापर युग में. आप देवताओं के अग्नि बाण का सवाल उठा सकते हैं, लेकिन अग्नि बाण और पटाखों में फर्क है...किसी भी देवता ने अग्नि बाण खुशियां मनाने के लिए छोड़ा हो, इसका तो कोई पौराणिक जिक्र ही नहीं है. अग्नि बाण जब भी चला है, विनाश के लिए चला है...और पटाखों का इजाद हुआ कलियुग में...तारीख के लिहाज से कहें तो 9वीं शताब्दी के आस-पास...और वो भी भारत में नहीं, अपने पड़ोसी देश चीन में...वहां पर पोटैशियम नाइट्रेट के साथ एक्सपेरिमेंट के दौरान किसी ने सल्फर और चारकोल मिला दिया. इससे हुआ धमाका और तब पता चला कि गनपाउडर या बारूद नाम की भी कोई चीज बनाई जा सकती है. इसका लिखित दस्तावेज 1040-1044 के बीच मिलता है.

इस चीन पर मंगोलों का शासन हुआ तो बारूद बनाने की कला उनके पास आ गई. जब मंगोलों का भारत पर आक्रमण हुआ तो वो अपने साथ बारूद भी लेकर आए थे. इसी बारूद की वजह से वो लंबे समय तक भारत पर शासन भी कर पाए, क्योंकि भारतीयों के पास बारूद का मुकाबला करने वाली चीज ही नहीं थी. लेकिन वक्त के साथ जानलेवा बारूद से रंग-बिरंगी रोशनी निकलने वाली चीजें भी बनती गईं और फिर लोगों ने इसे दिपावली, क्रिसमस और न्यू ईयर सेलिब्रेशन का हिस्सा बना लिया. और अब जब इस सेलिब्रेशन की वजह से मुसीबतें बढ़ रही हैं, लोगों के फेफड़े जवाब दे रहे हैं और सरकारें सख्ती बरत रही हैं तो धर्म के नाम पर पटाखों के इस्तेमाल को जायज ठहराया जा रहा है. लेकिन थोड़ा रुकिए और सोचिए...हिंदू धर्म की मान्यताएं तो ये कहती हैं कि जिस किसी पूजा विधि में कोई खास सामग्री उपलब्ध न हो, वहां चावल के अक्षत से भी भगवान खुश हो जाते हैं...हिंदू धर्म में तो भगवान बिल्व पत्र से भी खुश हो जाते हैं...गुड़ और चने की दाल से खुश हो जाते हैं...तो फिर तो पटाखे पूजा पद्धति का हिस्सा भी नहीं हैं...इनके बैन करने से धर्म को आहत क्यों ही होना चाहिए...

वो दिवाली हो, क्रिसमस हो या फिर न्यू ईयर, पटाखों पर बैन लगना ही चाहिए. हमेशा के लिए...लेकिन मुसीबत ये है कि इस देश में पटाखों का कारोबार करीब 10 हजार करोड़ रुपये का है. ऐसे में बैन लगने से इस कारोबार से जुड़े लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट होगा. सरकार चाहे तो उनकी रोजी-रोटी पर काम कर सकती है, उनको कोई दूसरा काम करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है...क्योंकि जान है तो जहान है...बाकी तो जाते-जाते बस इतना ही कहूंगा कि पटाखे चाइनीज हैं भाई...मत इस्तेमाल करिए...और धर्म से तो कतई मत जोड़िए...ये विनाश की चीज है...और धर्म ज़िंदगी जीना सिखाता है, विनाश करना नहीं.

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