सुप्रीम कोर्ट ने बीते 2 सितंबर को एक सुनवाई के दौरान कहा कि अगर कोई आरोपी IPC की धारा 302 के तहत हत्या के अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है तो उसे उम्रकैद से कम की सजा नहीं दी जा सकती. जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस एमआर शाह की बेंच ने कहा कि IPC की धारा 302 के तहत किसी दोषी को सजा होती है तो वह मौत या फिर उम्र कैद होगी. इस जघन्य अपराध की कम से कम सजा आजीवन कारावास होनी चाहिए.
दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर यह फैसला सुनाया. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने एक मामले में आरोपी की उम्र कैद की सज़ा को कम करने का फैसला किया. इस आरोपी ने IPC की धारा 147, 148, 323 और 302/34 के तहत अपराध किए थे, लेकिन मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने सजा की अवधि को घटाकर दोषी द्वारा जेल में गुजारे गए वक्त के बराबर कर दिया. जो सात साल या 10 महीना है. जिसके बाद राज्य सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले के ख़िलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.
जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस एमआर शाह की बेंच ने फैसले के दौरान कहा, ‘‘राज्य की ओर से पेश वकील की दलीलें सुनने के बाद और सजा कम किए जाने पर संज्ञान लेते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने अपने फैसले में आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया है लेकिन उसकी सजा को घटा कर सुनवाई के दौरान जेल में रहने की अवधि... सात साल 10 महीने... कर दी है. यह अस्वीकार्य है’’
पीठ ने इस मामले में सुनवाई करते हुए अदालत द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा को बहाल कर दिया और अभियुक्त को संबंधित अदालत या जेल प्राधिकरण के सामने सरेंडर करने के लिए आठ सप्ताह का समय दिया.
डिप्टी एडवोकेट जनरल के तर्क
सुनवाई के दौरान मध्य प्रदेश राज्य सरकार की तरफ से पेश डिप्टी एडवोकेट जनरल अंकिता चौधरी ने तर्क देते हुए कहा कि किसी भी आरोपी को जब एक बार IPC की धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है तो उसकी न्यूनतम सजा आजीवन कारावास होनी चाहिए. इससे कम की कोई भी सजा धारा 302 के विपरीत होगी.
उन्होंने सुनवाई के दौरान पीठ को बताया कि सजा कम किए गए आरोपी को धारा 302 के तहत दोषी पाया गया था, लेकिन हाईकोर्ट के फैसले तक उसकी सजा केवल सात साल, 10 महीने की हुई थी. वहीं सुप्रीम कोर्ट ने माना कि धारा 302 के मामले में आरोपी की सजा घटाना स्वीकार्य करने योग्य नहीं है.
धारा 302 पर बात करते हुए एटवोकेट सुनील चौहान कहते हैं कि आप हमेशा सुनते आए होंगे कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के तहत दोषी को आजीवन कारावस की सजा दी गई. लेकिन धारा 302 क्या है इसके तहत क्या सजा दी जा सकती है इसके बारे में काफी लोगों को जानकारी नहीं है. आइये जानते हैं कि क्या है इंडियन पैनल कोड (IPC) की धारा 302.
भारतीय दंड संहिता क्या है
भारतीय दंड संहिता यानी इंडियन पैनल कोड हमारे देश के नागरिकों द्वारा किए गए कुछ अपराधों की परिभाषा बताती है. इसके साथ ही IPC के अंदर ये भी बताया गया है कि उस अपराध के लिए क्या सजा होगी. यह संहिता भारत की सेना पर लागू नहीं होती. भारतीय दण्ड संहिता (IPC) ब्रिटिश काल में सन् 1860 में लागू हुई थी. 1860 के बाद इसपर समय-समय पर इसमें संशोधन होते रहे.
क्या है IPC की धारा 302
कोई भी व्यक्ति अगर हत्या का दोषी साबित होता है तो उसपर आईपीसी की धारा 302 लगाई जाती है. इस धारा के तहत उम्रकैद या फांसी की सजा और जुर्माना हो सकता है. हत्या के मामले में सजा सुनाने के पहले कत्ल के मकसद पर ध्यान दिया जाता है. इस तरह के मामलों को साबित करने के लिए ये साबित करना पड़ता है कि आरोपी के पास न सिर्फ मकसद था बल्कि कत्ल जान बूझकर किया गया है. हालांकि IPC की ये धारा कत्ल के कई ऐसे मामले हैं जिसमें इस्तेमाल नहीं किए जाते. जैसे बिना इरादे के साथ किसी का मौत हो जाना 302 के तहत नहीं आता. आसान भाषा में ऐसे समझिए कि अगर कोई कत्ल हो जाता है लेकिन उसमें किसी का इरादतन दोष नहीं होता. ऐसे केस में धारा 302 नहीं बल्कि धारा 304 के तहत दंड दिए जाते हैं.
आपने सुना होगा कि कई केस में आजीवन कारावास की सजा मिलने वाले व्यक्ति को 14 साल या 20 साल की सजा काटने के बाद रिहा कर दिया जाता है. इसके पीछे की वजह यह है कि कई मामलों में राज्य सरकारें एक निश्चित मापदंड के आधार पर दोषी की सजा कम करने की पावर रखती है. भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 55 और 57 में सरकारों को सजा को कम करने का अधिकार दिया गया है.
दोहरी उम्रकैद की सजा का क्या मतलब है
साल 2021 के अक्टूबर में केरल की कोल्लम सेशन कोर्ट ने एक दोषी को सांप से कटवाकर हत्या करने के आरोप में दोहरी उम्रकैद की सजा दी थी. जिसके बाद कई लोगों के मन में आजीवन कारावास को लेकर सवाल उठने लगे कि क्या आजीवन कारावास 14 साल या 20 साल का होता है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. जब किसी भी अपराधी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है तो इसका मतलब है कि आरोपी अपनी अंतिम सांस तक जेल की चारदीवारी के अंदर ही सजा काटेगा.
आजीवन कारावास 20 साल का
IPC की धारा 57, जो कि आजीवन कारावास की सजा के समय के संबंध में है. इस धारा के मुताबिक, आजीवन कारावास के सालों को गिनने के लिए इसे बीस साल के कारावास के बराबर गिना जाएगा. लेकिन इसका ये मतलब बिलकुल नहीं है कि आजीवन कारावास 20 साल का होता है. यह समय इसलिए बनाया गया है कि अगर कोई काउटिंग करनी हो तो आजीवन कारावास को 20 साल के बराबर माना जाता है. काउंटिंग की जरूरत भी तभी जब किसी को दोहरी सजा सुनाई गई हो या किसी को जुर्माना न भरने की स्थिति में ज्यादा समय के लिए कारावास में रखा जाता है.