Memorandum Of Procedure For Next CJI: सरकार ने शुक्रवार (7 अक्टूबर) को भारत के मुख्य न्यायाधीश-सीजेआई  (Chief Justice of India-CJI) यू यू ललित (UU Lalit) से अपने उत्तराधिकारी का नाम बताने को कहा. दरअसल सीजेआई  ललित 8 नवंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं. उनके बाद बेंच के दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ (Justice D Y Chandrachud) हैं.


सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश सीजेआई बनते हैं. सीजेआई ललित की  सिफारिश और राष्ट्रपति के नियुक्ति किए जाने के बाद जस्टिस चंद्रचूड़ भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन होंगे. वह दो साल से कुछ अधिक वक्त तक इस पद पर रहेंगे और 10 नवंबर, 2024 तक रिटायर होंगे. सीजेआई चुने जाने तक का सब काम  मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर-एमओपी (MoP) के तहत होता है. यहां हम आपको एमओपी के बारे में बताने की कोशिश कर रहे हैं.


कानून मंत्री ने सीजेआई को क्यों लिखा लेटर?


भारत सरकार ने सीजेआई यूयू ललित से उनके उत्तराधिकारी के लिए सिफारिश मांगी  है. सरकार ने ऐसा कर भारत के  अगले सीजेआई की नियुक्ति की प्रक्रिया पर जोर दिया है. सरकार ने सीजेआई से ये सिफारिश एमओपी के तहत मांगी है. उच्च न्यायपालिका (Higher Judiciary) के सदस्यों की नियुक्ति को नियंत्रित करने वाली प्रक्रिया को ही  मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर- एमओपी (Memorandum Of Procedure-MoP) कहा जाता है. सरल शब्दों में कहा जाए तो ये जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया है.


एमओपी में कहा गया है कि केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री सही वक्त पर भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश नियुक्ति के लिए देश के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice Of India) से सिफारिश की मांग करेंगे. एमओपी में सही वक्त की बात कही गई है, लेकिन ये सही वक्त (Appropriate Time)  मौजूदा सीजेआई  की सेवानिवृत्ति (Retirement) की तारीख से एक महीने पहले से शुरू हो जाता है. एक महीने पहले से ही अगले सीजेआई को चुने जाने की परंपरा रही है.


क्या होता है सीजेआई के सिफारिश भेजने के बाद?


एमओपी में निर्धारित प्रक्रिया के मुताबिक भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सिफारिश कानून मंत्रालय को मिलने के बाद केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री (Union Minister Of Law And Justice) प्रधानमंत्री को सिफारिश करेंगे. इसके बाद देश के प्रधानमंत्री (Prime Minister) सीजेआई की  नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति को सलाह देंगे.


संविधान का अनुच्छेद 124(1) (Article 124(1) Of The Constitution) कहता है कि भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा जिसमें देश का एक मुख्य न्यायाधीश होगा और अन्य न्यायाधीश होंगे. वहीं संविधान के अनुच्छेद 124(2) में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के हर एक न्यायाधीश को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुहर लगे वांरट या अधिपत्र (Warrant) के जरिए नियुक्त करेंगे.


एमओपी  क्या है?


एमओपी (MoP) न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सरकार और न्यायपालिका की सहमति से बनी नियमों की एक किताब है. यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. इसकी वजह है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) एक नई न्यायिक पद्धति है जिसे लागू करना कानून या संविधान के जरिए अनिवार्य नहीं बनाया गया है. सुप्रीम कोर्ट के तीन फैसलों के आधार पर एक मानक के तौर पर एमओपी विकसित हुआ है. इसे  फर्स्ट जजेज केस-1981 ( First Judges Case 1981), सेकेंड जजेज केस (1993) और थर्ड जजेज केस (1998) के नाम से जाना जाता है. ये तीनों फैसले न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक समान पद चयन प्रक्रिया का आधार बनते हैं. एमओपी का खाका पहली बार 1999 में खींचा गया था.


सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर 2015 को  संवैधानिक संशोधन ((99वां संशोधन) के जरिए लाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग-एनजेएसी (National Judicial Appointments Commission-NJAC) कानून को रद्द करने का फैसला सुनाया था. एससी के इस फैसले के बाद एसी में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली दोबारा से जीवित हो उठी थी. साल 2014 के एनजेएसी कानून में जजों की नियुक्ति के 22 साल पुराने कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर दिया गया था. एनजेएसी में सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियों की प्रणाली को बदलने की मांग की थी. दरअसल एनजेएसी का ये कानून सुप्रीम कोर्ट की जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार के दखल के दरवाजे खोलता था. इसके बाद साल 2016 में इस पर फिर से बातचीत की गई थी. भले ही एमओपी की कुछ धाराओं (Clauses) पर लगातार सरकार और एससी दोनों ही में मतभेद रहे हैं, लेकिन आम तौर पर बाकि बचे एमओपी पर दोनों पक्ष एकमत हैं. 


सीजेआई के उत्तराधिकारी की सिफारिश का आधार?


एमओपी (MoP) कहता है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय में नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश (Senior Most Judge) की होनी चाहिए. इसके साथ ही इस सीनियर जज को इस पद के लायक होना भी जरूरी है. एमओपी पर सहमति बनने से पहले ही सीजेआई (सेवा किए गए वर्षों के आधार पर) के बाद सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को इसी परंपरा के आधार पर इस शीर्ष पद पर प्रमोशन दिया गया था. लेकिन पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Prime Minister Indira Gandhi) की सरकार ने इसे खारिज कर दिया था.


तब उनकी सरकार ने 1973 में जूनियर जस्टिस एएन रे (A N Ray) को सीजेआई के तौर पर नियुक्त करने की सिफारिश की थी. अन्य न्यायाधीशों की तुलना में जस्टिस रे को इंदिरा गांधी के शासन के लिए अधिक मुफीद माना जाता था. इस दौरान सरकार ने 3 वरिष्ठ न्यायाधीशों जस्टिस जेएम शेलत (J M Shelat), के एस हेगड़े (K S Hegde) और ए एन ग्रोवर (A N Grover) को दरकिनार कर दिया था. सरकार के इस फैसले से नाखुश जस्टिस शेलात और हेगड़े 30 अप्रैल और जस्टिस ग्रोवर 31 मई तक अवकाश पर चले गए. बाद में इन तीनों जजों ने इस्तीफा दे दिया था.


एससी का ऐतिहासिक फैसला


सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (Kesavananda Bharati Vs State Of Kerala) के आदेश के एक दिन बाद ही सुपरसेशन (Supersession) का एलान किया था. एससी के इस फैसले एससी के वरिष्ठतम और लायक न्यायाधीश के सिद्धांत पर ये फैसला दिया था, इसलिए इस सिद्धांत को बल मिला. 13 जजों की बेंच का ये फैसला  7-6 के बहुमत से आया था और इसमें जस्टिस रे अल्पमत का हिस्सा थे. लेकिन इस फैसले के एक दिन बाद ही इंदिरा सरकार ने जस्टिस एएन रे को 25 अप्रैल 1973 को सीजेआई बनाया था. इस फैसले में एससी (SC) ने साफ कहा था कि अनुच्‍छेद 368 के तहत संसद के पास संविधान में संशोधन का हक है, लेकिन इसकी मूल बातों से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है.


एससी ने फैसले में ये भी कहा था कि संविधान के हर भाग में बदलाव किया जा सकता है. लेकिन संविधान का आधार और ढांचा बरकरार रखने के लिए उसकी न्‍यायिक समीक्षा जरूर की जाएगी. इसके बाद जनवरी 1977 में इंदिरा की सरकार ने न्यायमूर्ति एमएच बेग (M H Beg) को सीजेआई के तौर पर नियुक्त करके न्यायमूर्ति एचआर खन्ना (HR Khanna) को हटा (Superseded) दिया. जस्टिस खन्ना 'एडीएम जबलपुर बनाम शिव कांत शुक्ला' फैसले में इकलौते असंतुष्ट थे. इस फैसले पर जस्टिस ए एन रे, पीएन भगवती, वाई वी चंद्रचूड़ और एम एच बेग के बहुमत ने सरकार के फैसले के साथ सहमति जताई थी. इन न्यायाधीशों का मानना था कि मौलिक अधिकारों सहित जीवन और आजादी का अधिकार को राष्ट्रीय आपातकाल के वक्त में निरस्त किया जा सकता है. 


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