कैसे होता है किसी भी वैक्सीन का ट्रायल, क्या है प्लेसिबो, ट्रायल में किसे क्या देते है और क्यों हुआ होगा अनिल विज को वैक्सीन लगने के बाद भी कोरोना? इस पर एबीपी न्यूज़ से एम्स में चल रहे कोरोना वैक्सीन के ट्रायल के इन्वेस्टिगेटर और कम्युनिटी मेडिसिन के डॉक्टर पुनीत मिश्रा ने संवाददाता प्रफुल श्रीवास्तव से खास बातचीत की:
वैक्सीन ट्रायल कैसे होते हैं?
वैक्सीन का जब ट्रायल होता है तो उसके अलग-अलग चरण होते हैं. सबसे पहला ट्रायल जो है वो लैब में किया जाता है और वह जानवरों पर किया जाता है. जब एनिमल्स स्टडी हो जाती है तब ह्यूमन ट्रायल का नंबर आता है. ह्यूमन ट्रायल में भी अलग-अलग चरण होते हैं. पहले चरण में हम सेफ्टी कि देखते हैं, सेफ्टी मतलब जो दवा तैयार हुई है कहीं उसका कोई साइड इफेक्ट तो नहीं है. इसमें हम हेल्थ वॉलिंटियर लेते हैं अरे वॉलिंटियर्स की संख्या कम होती है 10 से 50 तक हो सकता है ताकि उस दौरान पता चले कि इसमें कोई साइड इफेक्ट है, किसी को किसी तरह की तकलीफ हो किसी की मौत हो जाए तो जब इसमें देख लेते हैं पहले चरण में कि किसी तरह का साइड इफेक्ट नहीं है और साथ ही में देखते हैं कि इम्यूनोजेनिसिटी है या नहीं.
जब यह पहले दो चरण सफल होते हैं तब हम तीसरे चरण के ट्रायल में जाते हैं और इस ट्रायल में हजारों की संख्या में वॉलिंटियर नियुक्त किए जाते हैं बड़े सैंपल लिए जाते हैं. इस वाले ट्रायल में हम सभी लोगों को लेते हैं यानी जरूरी नहीं है कि हल्दी लोगों को ही लेना है. और इसके जो नतीजे आते हैं और जब सब कुछ सही होता है तो वैक्सीन को लाइसेंस किया जाता है. तो इस दौरान हम सिर्फ टीवी देखते हैं एफीकेस भी देखते हैं इम्यूनोजेनिसिटी भी देखते हैं सब चेक कर लेते हैं. इसके बाद नंबर आता है फेस 4 ट्रायल का और यह ट्रायल post-marketing होता है. इसमें लोंग टर्म साइड इफैक्ट्स देखे जाते हैं.
प्लेसिबो क्या होता है?
जवाब: प्लेसिबो एक ऐसी चीज होती है जो दवाई नहीं है जिसका कोई फैक्ट या साइड इफेक्ट नहीं होता. हम बताते नहीं हैं यह देखने के लिए की कोई वैक्सीन लगा देने से मालिया डिस्टल वाटर लगा दिया तो मानसिक रूप से मैं ठीक हूं तो वह सारे फेक को देखने के लिए.
ब्लाइंड ट्रायल क्या होता कैसे होता है?
जवाब: कुछ स्टडी सिंगल ब्लाइंड होती है, कुछ डबल ब्लाइंड होती हैं और कुछ ट्रिपल ब्लाइंड होती है. इसका मतलब यह हुआ कुछ स्टडी में जो वॉलिंटियर है उसे नहीं पता कि वह किस ग्रुप में हैं दवाई वाले ग्रुप में है या प्लेसिबो वाले ग्रुप में है. डबल ब्लाइंड में इन्वेस्टिगेटर को भी नहीं पता होता कि क्या दिया जा रहा है. प्रतिज्ञा इन में जो एनालिसिस करते हैं उन्हें भी नहीं पता होता. अंतर प्रिय होता है कि जब आपकी सारी प्रक्रिया पूरी हो जाती है और एनालिसिस हो जाती है तो कोड को डिकोड किया जाता है और यह देखा जाता है कि फिर किसको क्या मिला था. फिर हम उसको तुलना करते हैं और देखते हैं कि उसकी एफीकेसी प्लेसिबो वाले में और वैक्सीन में कैसी है. और उसके बाद ही अंदाजा लगता है कि यह वैक्सीन कितनी सुरक्षित है कितना कारगर है और से क्या साइड इफेक्ट है सारी चीज है पता चलती है.
क्या वैक्सीन ट्रायल ब्लाइंड ट्रायल होते है?
जवाब: वैक्सीन में ब्लाइंड स्टडी होती है और हमें नहीं पता होता कि जो वायल हम दे रहे हैं वह वैक्सीन है या प्लेसिबो क्योंकि उसका रंग रूप सब कुछ वैक्सीन की तरह ही होता है और उसमें सिर्फ नंबर लिखा होता है और यह हमें randomly दिया जाता है कंपनी द्वारा। और हम उस नंबर की फाइल निकालकर उसमें जो प्रोडक्ट है वह दे देते हैं और नहीं पता होता कि वह वैक्सीन है कि प्लेसिबो.
जवाब: एक डाटा सेफ्टी बोर्ड होता है मान लीजिए किसी वैक्सीन में कोई ऐसी चीज आ रही है और बोर्ड को लगता है अभी इसको देखना है कि इसके कोई इफेक्ट आ रहे हैं तो उनके पास अथॉरिटी होती है कि वह उसको डी कोड करके देख सकते हैं. ताकि सेफ्टी के साथ कोई समझौता ना हो.
अनिल विज को वैक्सीन ट्रायल में शामिल होने के बाद भी हो गया, क्या वजह होगी इसकी?
जवाब: इसमें कई सारी संभावनाएं हो सकती हैं पहली चीज तो यह हमें नहीं पता क्यों नहीं वैक्सीन दी गई है या प्लेसिबो दिया गया था। अगर उन्हें प्लेसिबो दिया गया था तो जो किसी साधारण व्यक्ति को दुख होता है वह उनको भी होगा. दूसरी संभावना यह कि अगर उन्हें वैक्सीन मिली भी है तो उसमें इम्यूनिटी आने में वक्त लगता है. दूसरी संभावना यह है कि वैक्सीन लगने के बाद कुछ वक्त लगता है आपके शरीर में एंटीबॉडी बने तब तक आपको अगर इंफेक्शन हो रहा है तो उसकी संभावना बनी रहती है. पहले डोज के बाद इम्यून रिस्पांस ट्रिगर होता है और उसके बाद दूसरा डोज देखकर हम उसको और स्ट्रांग बनाते हैं. आमतौर पर हर वैक्सीन का अलग-अलग टाइम पीरियड होता है. एक और वजह हो सकती है जिसकी संभावना है कि 2 से 7 दिन का जो समय होता है कोरोना इनफेक्शन के होने का किसी व्यक्ति के संपर्क में आने के बाद लेकिन कुछ में यह वक्त ज्यादा भी लग सकता है. संभावना है कि जब वह बैठ सेंट्रल में शामिल होने आए हो तो वह इनक्यूबेशन पीरियड में रहे हो. तेजाब इसका अध्ययन होगा तो रिपोर्ट आएगी उसके बाद ही पता चलेगा.
भारत बायोटेक की सफाई- कोवैक्सीन की 2 डोज लेने के 14 दिनों बाद प्रभावी
अनिल विज को कोरोना वैक्सीन की पहली खुराक लेने के बाजवूद संक्रमित होने के बाद भारत बायोटेक ने सफाई दी है. उन्होंने कहा- कोवैक्सीन का क्लिनिकल ट्रायल 2 खुराक पर आधारित है, जिसे 28 दिनों पर दी जाती है. दूसरी खुराक के 14 दिनों के बाद यह प्रभावी होगी. कोवैक्सीन की दोनों खुराक पड़ने के बाद वह प्रभावशाली हो जाती है.