मुंबई: कानपुर में यूपी के 8 पुलिसकर्मियों की हत्या के आरोपी विकास दुबे को जिस तरह से एसटीएफ ने मुठभेड़ में मारा, वैसे एनकाउंटर नब्बे के दशक में मुंबई की सड़कों पर रोजाना होते थे. अंडरवर्ल्ड को खत्म करने के लिए मुंबई पुलिस ने एनकाउंटर की अघोषित रणनीति बनाई थी, जिसके तहत तमाम गैंगस्टरों को ढेर कर दिया गया. इस नीति के विवादास्पद होने के बावजूद मुंबई में इसके सकारात्मक नतीजे देखने को मिले और शहर में अंडरवर्ल्ड की सक्रियता अब न के बराबर है.


मुंबई पुलिस के रिटायर्ड एसीपी प्रदीप शर्मा ने विकास दुबे एनकाउंटर का समर्थन किया है. खुद शर्मा एक एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अधिकारी रह चुके हैं और अपने करियर में 100 से ज्यादा गैंगस्टरों को गोलियों से भून चुके हैं.


शर्मा का कहना है कि यूपी पुलिस ने विकास दुबे के एनकाउंटर की जो कहानी बताई है, उस पर यकीन करना चाहिए. रात के वक्त संभव है कि पुलिस के ड्राईवर का थकान और नींद के मारे गाड़ी पर से नियंत्रण छूट गया हो, जिसका फायदा उठाकर विकास दुबे ने भागने की कोशिश की हो.


कई लोग विकास दुबे के एनकाउंटर का समर्थन कर रहे हैं तो कई इस पर सवाल भी खड़े कर रहे हैं. माना जा रहा है कि विकास दुबे के एनकाउंटर से अब उन राजेनताओं और पुलिस अधिकारियों के नाम सामने नहीं आएंगे, जिन्होंने विकास दुबे को इतना बड़ा अपराधी बनने में मदद की. हालांकि जिस तरह से विकास दुबे का एनकाउंटर किया गया वैसे एनकाउंटर कभी मुंबई की सड़कों पर रोजाना होते थे.


नब्बे के दशक के मध्य में मुंबई पर अंडरवर्ल्ड हावी था. दाऊद इब्राहिम, छोटा राजन, अरुण गवली और अमर नाइक के गिरोह शहर में आए दिन शूटआउट्स को अंजाम दे रहे थे. आए दिन किसी की हत्या की जाती थी. शहर में गैंगवार भी चल रहा था, जिसमें गैंगस्टर एक दूसरे को मार रहे थे. इस गैंगवार का धार्मिक पहलू भी था.


1993 के मुंबई बमकांड के बाद छोटा राजन दाऊद से अलग होकर अपना अलग गिरोह चलाने लगा. खुद को हिंदू डॉन साबित करने के लिए उसने बमकांड के उन आरोपियों की हत्याएं करवानी शुरू कीं जो कि जमानत पर बाहर थे. छोटा शकील ने पलटवार करते हुए दंगों के आरोपी शिवसैनिकों को मारना शुरू कर दिया. आए दिन शहर की सडकों पर खून की होली खेली जा रही थी.


गैंगस्टर बिल्डरों, कारोबारियों और फिल्मकारों की हत्याएं कर रहे थे. हद तो तब हो गई जब मुंबई पुलिस कमिश्नर के दफ्तर से महज सौ मीटर के फासले पर एक कपड़ा कारोबारी की छोटा शकील गैंग ने हत्या कर दी. पुलिस ने इसके बाद गैंगस्टरों के एनकाउंटर करने शुरू किए.


हर एनकाउंटर में एक ही कहानी होती थी. खबरी से सूचना मिलने पर पुलिस बताए गए ठिकाने पर आरोपी को पकड़ने पहुंचती. आरोपी के आने पर उसे सरेंडर करने को कहा जाता, लेकिन आरोपी उल्टा पुलिस पर फायरिंग कर देता और पुलिस की जवाबी कार्रवाई में वो मारा जाता. हर बार पुलिस का यही कहना होता था कि उसने आत्मरक्षा में गोली चलाई.


दरअसल पुलिस ने ये अघोषित रणनीति इसलिए अपनाई क्योंकि अपराधी न्याय व्यवस्था की कमजोरियों का फायदा उठा रहे थे. केस के सालों साल चलने की वजह से गवाहों को पेश करने में दिक्कत आती है. कई गवाह गैंगस्टर के खिलाफ गवाही देने से मुकर जाते हैं.


एनकाउंटर की ये रणनीति काफी विवादित भी हुई. इस नीति को एक्सट्रा ज्यूडिशियल किलिंग (extra judicial killings) का नाम दिया गया. आरोप लगाया गया कि कई बार बेगुनाहों को भी मारा गया. कई पुलिसकर्मियों की फर्जी एनकाउंटर करने के आरोप में गिरफ्तारी हुई और उनके खिलाफ मुकदमें चले.


1998 में फर्जी एनकाउंटर की जांच करने के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक कमेटी गठित की. इस कमिटी ने कोर्ट को 223 पन्नों की अपनी रिपोर्ट सौंपी और उसमें दिशा निर्देश दिए कि एनकाउंटर की स्थिति में पुलिस को क्या करना चाहिए.


बहरहाल विवादित होने के बावजूद इस एनकाउंटर की रणनीति के सकारात्मक परिणाम भी मुंबई में नजर आए. मुंबई में शूटआऊट्स लगभग खत्म हो गए. शहर में आखिरी बड़ा शूटआउट जून 2011 में हुआ जिसमें वरिष्ठ पत्रकार जेडे की छोटा राजन गिरोह ने हत्या करवा दी थी. अंडरवर्ल्ड से धमकी भरे फोन आने भी बंद हो गये हैं. तमाम बड़े गिरोह निष्क्रीय हो चुके हैं.


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