23 दिसंबर, 1949 की तारीख अयोध्या के इतिहास का एक अहम दिन है. 23 दिसंबर की सुबह होते-होते अयोध्या और आसपास के इलाकों में ये खबर आग की तरह फैल गई थी कि राम जन्म भूमि पर रामलला फिर से प्रकट हुए हैं. लोगों को बताया गया कि जिस जगह पर बाबरी मस्जिद की गुंबद है, वहां पर रात को खुद से रामलला प्रकट हो गए हैं. इस खबर के सामने आने के बाद हजारों की संख्या में लोग रामलला के दर्शन करने पहुंचने लगे.
तब तक वो बाबरी मस्जिद इतनी विवादित हो चुकी थी कि वहां पर हमेशा एक पुलिसवाले की ड्यूटी लगाई जाती थी. पुलिसवाला हमेशा उस मस्जिद में तैनात रहता था. वो हर रोज थाने में रिपोर्ट करता था कि सबकुछ ठीक है. 23 दिसंबर की सुबह भी पुलिस के एक सिपाही की ड्यूटी मस्जिद में थी. नाम था माता प्रसाद. लेकिन 23 तारीख को माता प्रसाद ने थाने से फोर्स बुलाई. अयोध्या थाने के एसएचओ रामदेव दुबे फोर्स के साथ मस्जिद पहुंचे. देखा कि जो मस्जिद वीरान पड़ी रहती थी, वहां अब सैकड़ों लोग जमा हैं और भीड़ धीरे-धीरे बढ़ते ही जा रही है. साथ ही उन्होंने ये भी देखा कि मस्जिद से सटी दीवार के पास चबूतरे पर जो रामलला की मूर्ति रहती थी, वो वहां से गायब है. पता चला कि मूर्ति अपने आप गुंबद के ठीक नीचे यानि कि गर्भगृह पहुंच गई है और ये सब अपने आप हुआ है. दावा किया गया कि रामलला खुद से प्रकट हुए हैं.
इस मामले में मस्जिद में तैनात माताप्रसाद की गवाही पर रामदेव दुबे ने अयोध्या थाने में एफआईआर लिखी. एफआईआर के मुताबिक 22 दिसंबर की रात करीब 5-60 लोग राम चबूतरे पर बने मंदिर के पास पहुंचे और मंदिर का ताला तोड़कर मूर्ति को उठा ले गए. मस्जिद की दीवार फांदकर वो अंदर दाखिल हुए और गुंबद के ठीच नीचे भगवान राम की मूर्ति रख दी. दीवार के अंदर और बाहर गेरुए और पीले रंग से सीताराम-सीताराम लिखा और फरार हो गए. एफआईआर के मुताबिक सिपाही माता प्रसाद ने भीड़ को रोकने की कोशिश की थी. जब वो अकेला भीड़ को नहीं रोक पाया, तो उसने और फोर्स बुलानी चाही, लेकिन इस बीच भीड़ मूर्ति रखकर और सीताराम-सीताराम लिखकर फरार हो गई थी. इस मामले में रामदेव दुबे ने हनुमानगढ़ी के महंत अभिराम दास को मुख्य आरोपी बनाया. जब अयोध्या के लोगों को पता चला कि मूर्ति रखने में अभिराम दास का नाम आ रहा है, तो उन्होंने अभिराम दास को राम जन्मभूमि उद्धारक या उद्धारक बाबा का नाम दे दिया.
लेकिन ये मामला संवेदनशील था. राज्य से लेकर केंद्र तक की सरकार हिल गई. केंद्र में प्रधानमंत्री थे जवाहरलाल नेहरू और गृहमंत्री थे सरदार वल्लभ भाई पटेल. राज्य में मुख्यमंत्री थे गोविंद वल्लभ पंत और गृहमंत्री थे लालबहादुर शास्त्री. पहले केंद्र सरकार और फिर राज्य सरकार ने तय किया कि अयोध्या में 22 दिसंबर, 1949 से पहले की स्थिति बहाल की जाए. यानि कि मूर्ति को गुंबद या यूं कहें कि गर्भगृह से निकालकर फिर से चबूतरे पर रखा जाए. तब उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव थे भगवान सहाय. उन्होंने फैजाबाद के तब के डीएम केके नायर को आदेश दिया कि अयोध्या में 22 दिसंबर, 1949 से पहले की स्थिति को बहाल करें. भगवान सहाय ने आदेश में ये भी कहा कि अगर ज़रूरत पड़े तो फोर्स का इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन डीएम केके नायर ने आदेश मानने से इन्कार कर दिया. कहा कि ऐसा करने से कानून-व्यवस्था को भारी नुकसान पहुंच सकता है. साथ ही अब मूर्ति की फिर से स्थापना करनी पड़ेगी और इसके लिए अयोध्या का कोई भी पुजारी तैयार नहीं होगा.
तब मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने सीधे हस्तक्षेप किया. केके नायर को पुरानी स्थिति बहाल करने को कहा. जवाब में केके नायर ने फिर से इन्कार कर दिया और अपने इस्तीफे की पेशकश कर दी. इस इस्तीफे के साथ ही केके नायर ने अयोध्या में शांति बहाल करने के लिए कुछ उपाय भी सुझाए थे. कहा था कि इस मामले को कोर्ट के आदेश पर छोड़ दिया जाए. जब तक कोर्ट अपना अंतिम फैसला नहीं देती है, गर्भगृह में रखी मूर्ति को जाली से घेर दिया जाए और वहां पर सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी जाए. साथ ही अब तक तीन पुजारी रामलला को भोग लगाते रहे हैं, उनकी संख्या घटाकर एक कर दी जाए. मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के पास दो रास्ते थे. या तो वो केके नायर का इस्तीफा मंजूर कर लेते. किसी दूसरे को वहां का डीएम बनाते और फिर 22 दिसंबर, 1949 से पहले की स्थिति बहाल करवाते. दूसरा रास्ता था कि वो केके नायर की बात पर सहमत हो जाते और मामले को अदालत पर छोड़ देते.
मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने दूसरा रास्ता अख्तियार किया. केके नायर फैजाबाद के डीएम बने रहे. मूर्ति को जाली से घेर दिया गया. सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी गई. पुजारियों की संख्या घटा दी गई. मामला कोर्ट में भी था तो 29 दिसंबर को फ़ैजाबाद कोर्ट का फैसला आ गया. एडिशनल मैजिस्ट्रेट ने पूरे इलाके को म्यूनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन की देखरेख में रखने का आदेश जारी कर दिया. प्रिय दत्त राम को पूरी संपत्ति का रिसीवर बना दिया गया. परिसर के गेट पर ताला लग गया और फिर बाबरी मस्जिद का बतौर मस्जिद इस्तेमाल बंद हो गया. लेकिन जनवरी, 1950 में फिर से याचिका दाखिल की गई. इस बार याचिका ‘ऑल इंडिया रामायण महासभा’ के जनरल सेक्रटरी गोपाल सिंह विषारद ने दाखिल की थी और रामलला की पूजापाठ की व्यवस्था करने की मांग की थी. दिसंबर, 1950 में रामचंद्र दास परमहंस ने भी पूजापाठ की व्यवस्था करने की मांग की. फिर फरवरी 1951 में दोनों याचिकाओं को एक साथ जोड़ दिया गया.
दिसंबर, 1959 में एक और याचिका कोर्ट में दाखिल हुई और इस बार पार्टी बना निर्मोही अखाड़ा. अखाड़े की ओर से कहा गया कि मस्जिद से पहले वहां पर मंदिर था और ज़मीन अखाड़े की थी. इसलिए प्रिय दत्त राम की जगह मंदिर और संपत्ति की देखरेख का काम अखाड़े को दे दिया जाए. 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड भी अदालत पहुंच गया. कहा कि मस्जिद और उसके आस-पास की ज़मीन वक्फ बोर्ड की है. इसलिए मालिकाना हक उसे दिया जाए और मूर्तियों के साथ ही पूजा-पाठ की चीजों को मस्जिद के अंदर से हटाया जाए.
केस चलता रहा और स्थिति कायम रही. तब तक जब तक कि 6 दिसंबर, 1992 को मस्जिद गिराई नहीं गई थी. लेकिन इस बीच मामला अदालत से होते हुए सियासत तक भी पहुंच गया था. बीजेपी की स्थापना, विश्व हिंदू परिषद का अभियान, राम जन्म भूमि का ताला खुलना, राम शिला का शिलान्यास, आडवाणी की रथयात्रा और कारसेवकों पर फायरिंग की परिणति बाबरी विध्वंस के रूप में हुई. ये पूरा कहानी बताएंगे अयोध्या स्पेशल की अगली किस्त में.