Anand Mohan Singh Bihar: बिहार देश का एक ऐसा राज्य है, जिसने विकास कम और बाहुबली नेताओं का उदय ज्यादा देखा है. फिर चाहे वो बाहुबली नेता अनंत सिंह हों, सूरजभान सिंह, सुनील पांडेय या फिर रामा सिंह हों. इन बहुबली नेताओं के नाम से आज भी बिहार के लोगों में एक डर पैदा होता है.
माया मैगजीन के 31 दिसंबर 1991 के एक कवर पेज पर बाहुबली पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह बंदूकधारी गुर्गों के साथ कुर्सी पर बैठे तस्वीर छपी थी. उनके हाथ में एक रिवॉल्वर है और कवर पर लिखा है "ये बिहार है."
इन्हीं बहुबलियों में से एक आनंद मोहन सिंह बीते 15 सालों से बिहार की जेल में बंद हैं, लेकिन अब नीतीश कुमार की सरकार में उन्हें रिहा किया जा रहा है. इस रिहाई में के लिए बिहार सरकार ने सरकारी नियमों में बदलाव किया है. आनंद मोहन सिंह को जेल से रिहा करने का ऑर्डर भी पास कर दिया गया है.
आनंद मोहन की दिलचस्प कहानी
आनंद मोहन सिंह की कहानी दिलचस्प है. मोहन एक स्वतंत्रता सेनानी के पोते हैं, इसके बाद वो आंदोलनकारी बने फिर आखिरकार उन्होंने बाहुबली से होते हुए नेता बनने का रास्ता चुना. दरअसल, आनंद मोहन सिंह का जेल से बाहर आना नीतीश कुमार की जेडीयू और लालू यादव की आरजेडी के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है.
राजनीति में जेपी के आंदोलन से रखा कदम
आनंद मोहन सिंह का जन्म बिहार के सहरसा जिले के पंचगछिया गांव में एक राजपूत परिवार में हुआ था. उनके दादा राम बहादुर सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी थे.
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से 1974 में आनंद मोहन सिंह ने पहली बार राजनीति में कदम रखा. उन्हें आंदोलन का रंग ऐसा चढ़ा कि उन्होंने कॉलेज बीच में ही छोड़ दिया. इमरजेंसी के दौरान आनंद मोहन ने 2 साल जेल की सजा भी काटी.
परमेश्वर कुंवर बने राजनीतिक गुरु
स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर समाजवादी नेता परमेश्वर कुंवर आनंद मोहन के राजनीतिक गुरु बने. आनंद को ये समझते देर नहीं लगी कि बिहार में राजनीति जातिगत समीकरण और दबंगई पर ही चलती है. इसी बात का फायदा उठाते हुए वो राजपूत समुदाय के नेता बन गए.
मोरारजी देसाई को दिखाए थे काले झंडे
कहा जाता है कि 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के एक भाषण के दौरान अनंत मोहन ने उन्हें काले झंडे दिखाए थे. साल 1979-80 में कोसी रीजन में यादवों के खिलाफ मोर्चा खोलकर वो लाइमलाइट में आ गए. इसके साथ ही पहली बार उनका नाम गैर कानूनी गतिविधियों में पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज हुआ.
समाजवादी क्रांति सेना का गठन
अपनी जातिगत राजनीतिक को आगे ले जाने के लिए साल 1980 में आनंद मोहन सिंह ने समाजवादी क्रांति सेना का गठन किया. इसका मकसद था निचली जातियों के उत्थान का विरोध करना. उस समय आनंद अगड़ी जातियों के नेता बनते जा रहे थे.
इस दौरान उनकी राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की गैंग के साथ भी काफी अनबन चल रही थी. कहा जाता है कि उस वक्त कोसी के इलाके में गृह युद्ध जैसे हालात हुआ करते थे.
जब कसा शिकंजा
साल 1990 में लालू प्रसाद यादव जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मंडल कमीशन का समर्थन किया. इस पर आनंद मोहन ने उनका विरोध किया. इसके बाद लालू सरकार में बहुबली आनंद पर NSA, CCA और MISA के तहत कई आपराधिक धाराओं में मुकदमें दर्ज किए गए.
इसके पीछे की वजह आनंद का आपराधिक रिकॉर्ड माना जाता है. हालांकि, वो कभी पुलिस की पकड़ में नहीं आए.
पुलिस के सामने सरेंडर
साल 1990 में ही आनंद मोहन सिंह ने पुलिस के सामने सरेंडर कर दिया और जनता दल के टिकट पर महिषी विधानसभा से चुनाव लड़े और जीत दर्ज की. कहा जाता है कि उस वक्त भी वो एक कुख्यात सांप्रदायिक गिरोह का मुखिया थे जिसे उसकी प्राइवेट आर्मी कहा जाता था. ये गिरोह उन लोगों को अपना निशाना बनाता था जो आरक्षण का समर्थन करते थे.
जब हुए जनता दल से अलग
जब जनता दल के टिकट पर आनंद मोहन विधायक बने तो उनकी पार्टी ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण की मंडल कमीशन की शर्तों का समर्थन कर दिया. इसके बाद आनंद ने जनता दल से अपने रास्ते अलग कर लिए थे.
उन्होंने साल 1993 में अपनी नई पार्टी बनाई और इसका नाम बिहार पीपुल्स पार्टी रखा गया. साल 1994 में उनकी पार्टी ने तब बड़ा उलटफेर कर दिया जब 1994 में वैशाली लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में आनंद मोहन की पत्नी लवली सिंह ने जीत दर्ज की.
लालू यादव पर आनंद का असर
इस जीत का सबसे ज्यादा असर लालू यादव पड़ा था क्योंकि आनंद मोहन की पार्टी को उस वक्त ओबीसी में आने वाले कुर्मियों का काफी समर्थन मिला था. इसने लालू यादव के पिछड़े, मुस्लिम और दलित इक्वेशन को झटका दिया. साल 1995 में एक दौर ऐसा भी आया जब वो बिहार में लालू यादव के सामने मुख्यमंत्री के तौर पर भी उभरने लगे थे.
आनंद मोहन की लोकप्रियता
आनंद मोहन की लोकप्रियता का आलम ये था कि 1995 में उनकी पार्टी BPP ने नीतीश कुमार की समता पार्टी से भी कहीं बेहतर प्रदर्शन किया था. हालांकि, वो तीन सीटों से खड़े होने के बावजूद ये चुनाव हार गए. बाद में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय नीतीश कुमार की समता पार्टी में कर दिया.
राजद से हारे चुनाव
साल 1996 में आनंद मोहन ने जेल में रहते हुए शिवहर जिले से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. उस समय उनकी तरफ से नारा लगाया जाता था कि "संधि नहीं अब रण होगा संघर्ष महाभीषण होगा."
1998 में फिर से इसी सीट से वो दोबारा लोकसभा सांसद बने, लेकिन इस बार चुनाव राष्ट्रीय जनता पार्टी के टिकट पर लड़ा, जिसे राष्ट्रीय जनता दल ने समर्थन दिया था. 1999 में आनंद मोहन की पार्टी ने आरजेडी को छोड़ बीजेपी का दामन थामा, लेकिन आरजेडी के अनवारुल हक से चुनाव हार गए.
मिली मौत की सजा
इसके बाद आनंद मोहन ने कांग्रेस से हाथ मिलाया, लेकिन कांग्रेस में उन्हें कोई खास अहमियत नहीं दी गई. इसके बाद फिर साल 2007 में उनके गुनाहों का भांडा फूटा और एक मामले में उन्हें निचली कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई.
ये पहली बार था जब आजाद भारत में किसी नेता को मौत की सजा सुनाई गई थी. हालांकि, 2008 में पटना हाई कोर्ट ने मोहन की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया. साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने भी पटना हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था.
डीएम जी कृष्णैया की हत्या
दरअसल, 4 दिसंबर 1994 को आनंद मोहन सिंह के साथी गैंगस्टर कौशलेंद्र कुमार उर्फ छोटन शुक्ला की हत्या कर दी गई. शुक्ला की अंतिम यात्रा के दौरान भीड़ काफी उन्मादी हो गई.
उन्मादी भीड़ ने 1985 बैच के आईएएस ऑफिसर और गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया को गाड़ी से निकालकर पीटा और फिर उन्हें गोली मार दी गई. आरोप है कि उन्मादी भीड़ को बरगलाने वाले आनंद मोहन ही थे.
सबूतों के अभाव में बरी
इस केस में आनंद मोहन सिंह को साल 2007 में जी कृष्णैया की मौत का दोषी करार दिया गया. इस जुर्म में वो 15 साल से जेल में है. हालांकि,मीडिया रिपोर्ट की मानें तो उनका नाम काफी अपराधों में शामिल था, लेकिन अधिकतर मामले या तो हटा दिए गए या फिर सबूतों के अभाव में वो बरी हो गए.
जेल में रहकर पत्नी को लड़ाया चुनाव
जेल में रहते हुए भी बाहुबली आनंद मोहन के दबदबे में किसी तरह की कमी नहीं आई. यही कारण रहा कि वो अपनी पत्नी लवली सिंह को 2010 में कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव और 2014 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़वाने में कामयाब रहे. अब यहां पर सवाल ये उठता है कि नीतीश कुमार आखिर क्यों आनंद मोहन की रिहाई के लिए इतने लालायित हैं.
नियमों में बदलाव
असल में जनवरी में नीतीश कुमार ने एक पार्टी इवेंट में मंच से कहा था कि वो आनंद मोहन को बाहर लाने की कोशिश कर रहे हैं. जिसके बाद आनंद का नाम फिर से अखबारों की सुर्खियां बना. हालांकि, उनकी रिहाई में कानून आड़े आ रहा था.
बिहार सरकार ने 10 अप्रैल को कानून में संशोधन कर उस अड़चन को भी दूर कर दिया. नीतीश सरकार ने बिहार जेल मैनुअल, 2012 के नियम 484 (1) में बदलाव किया.
ये बताता है कि समय से पहले किस कैदी की रिहाई नहीं हो सकती. लेकिन नीतीश सरकार ने ऑन ड्यूटी सरकारी कर्मचारी की हत्या वाला धारा हटा दिया क्योंकि आनंद मोहन इसी के तहत दोषी थे.
मोहन के जरिए सवर्ण वोटरों पर नजर
आसान भाषा में समझें तो जेडीयू और आरजेडी सवर्ण जातियों तक पहुंच बनाकर अपने ओबीसी केंद्रित वोटर बेस को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. आनंद मोहन सिंह के जरिए दोनों पार्टियां अपर कास्ट वोट बैंक और राजपूत वोट बैंक तक पहुंचना चाहती हैं.
अपनी इसी रणनीति के तहत नीतीश सरकार बिहार की कुछ विधानसभा सीटों पर नजर गड़ाए हुए है, जहां उन्हें आनंद मोहन की रिहाई से फायदा मिल सकता है. ऐसे में कहा जा सकता है कि आनंद मोहन की रिहाई से जेडीयू अपर कास्ट वोटर और राजपूत वोटर की पहली पसंद बनने की कोशिश कर रही है.
वहीं जेडीयू और आरजेडी को इस बात की ओर खास ध्यान देने की जरूरत है कि कहीं अपर कास्ट वोट बैंक को रिझाने के चक्कर में उनका पारंपरिक बैकवर्ड दलित मुस्लिम वोट बैंक उनसे न छिटक जाए.