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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

जलती दिल्ली को बचाने की जिम्मेदारी किसकी, बेकाबू हालात के लिए कौन जिम्मेदार?

अब तक हिंसा में 13 लोगों की मौत 190 लोग जख्मी हुए हैं.उत्तर पूर्वी दिल्ली के चार इलाकों में धारा 144 लागू कर दी गई है.

नई दिल्ली: दिल्ली को बचाने की जिम्मेदारी किसकी? इस सवाल पर चर्चा करते वक्त हमें दो पहलू देखने होंगे. एक कानूनी जिम्मेदारी और दूसरा नैतिक जिम्मेदारी. कानूनी तौर पर यह पूरी जिम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय की है. दरअसल, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र होने के चलते दिल्ली के लिए  संविधान में अलग से प्रावधान दिए गए हैं. दिल्ली को लेकर  संविधान में विशेष रुप से अनुच्छेद 239 AA शामिल किया गया है. इस अनुच्छेद में दिल्ली विधानसभा और दिल्ली सरकार की शक्तियों का जिक्र है. इसमें यह साफ लिखा गया है कि दिल्ली विधानसभा राज्य और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बना सकती है. लेकिन उसे भूमि, पुलिस और पब्लिक ऑर्डर पर कानून बनाने का अधिकार नहीं है. इसे और सरल भाषा में समझें तो दिल्ली के लिए पुलिस और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के ऊपर है. मतलब केंद्रीय गृह मंत्रालय का सीधे-सीधे यह जिम्मा बनता है कि वह दिल्ली में कानून व्यवस्था की स्थिति को बनाए रखे. इसलिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जब दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान प्रचार करते वक्त लोगों को EVM से शाहीन बाग को करंट का झटका देने के लिए कह रहे थे, तब दरअसल वह कहीं ना कहीं अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहे थे. शाहीन बाग में सड़क रोक कर बैठे लोगों को समझा-बुझाकर या बलपूर्वक वहां से हटाने का काम पुलिस का है और दिल्ली की पुलिस सीधे-सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आती है.
प्रदर्शन पर नियंत्रण की जिम्मेदारी गृह मंत्रालय की
अब भी जब जाफराबाद समेत उत्तर पूर्वी दिल्ली के इलाकों में CAA विरोधी आंदोलन के चलते तनाव की स्थिति बनी है, तो उस पर नियंत्रण केंद्रीय गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी है. जाफराबाद में जब महिलाओं ने जबरन मेट्रो स्टेशन के नीचे बैठना शुरू किया था, तो उन्हें ऐसा करने से उसी वक्त रोक देने की जिम्मेदारी पुलिस की थी. अगर पुलिस ऐसा नहीं कर पा रही थी और कपिल मिश्रा जैसे नेता खुद कार्रवाई करने की चेतावनी दे रहे थे, तब भी पुलिस को उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए जरूरी कदम उठाने थे. पुलिस दोनों ही चीजें करने में असफल रही.अब थोड़ी बात नैतिक जिम्मेदारी की भी कर लें. दिल्ली में 70 में से 62 सीटें जीतकर सत्ता में आई सरकार सिर्फ यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि कानून व्यवस्था उसके हाथ में नहीं है. 90 फ़ीसदी दिल्ली में जिस पार्टी के विधायक हैं. जिसको लोगों का भरपूर समर्थन हासिल है. जो मुख्यमंत्री केजरीवाल लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है. क्या वह और उसके विधायक उपद्रव की स्थिति को रोकने के लिए कुछ प्रभावी भूमिका निभा पा रहे हैं? क्या लोकप्रिय मुख्यमंत्री और उसके दोबारा चुनाव जीते विधायक लोगों को हिंसा रोकने के लिए समझाने को आगे आ रहे हैं? अब इससे अलग एक और बात. दिल्ली में कानून व्यवस्था केंद्रीय गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी है. लेकिन किसी मामले में आरोपी पर मुकदमा चलाने का जिम्मा यानी प्रॉसीक्यूशन डिपार्टमेंट दिल्ली सरकार के पास है. दिल्ली सरकार ही सरकारी वकीलों की नियुक्ति करती है. देशद्रोह जैसे संगीन अपराध में मुकदमे की अनुमति देने का अधिकार भी उसे हासिल है. 2016 से लेकर अब तक जेएनयू में कथित तौर पर भारत विरोधी नारे लगाए जाने के मामले में तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की फाइल दिल्ली सरकार के पास है. पुलिस कन्हैया के ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चलाने के लिए राज्य सरकार से इजाजत मांग रही है, लेकिन राज्य सरकार ने राजनीतिक कारणों से इस फाइल को दबा रखा है. ऐसा नहीं है कि कन्हैया के ऊपर मुकदमा चलाने की इजाजत देना ही जरूरी हो. राज्य सरकार अगर ठीक समझे तो अनुमति देने से मना कर सकती है. लेकिन उसने फाइल को बिना कोई फैसला लिए अपने पास रोक रखा है. इससे कानून-व्यवस्था को लेकर उसकी चिंता पर भी कहीं ना कहीं सवालिया निशान लगते हैं.
शाहीन बाग में सड़क रोके जाने पर दिल्ली हाई कोर्ट दाखिल हुई थी याचिका 
वैसे इस मामले में थोड़ी जिम्मेदारी कोर्ट की भी नजर आती है. शाहीन बाग में सड़क रोके जाने को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट में जब याचिका दाखिल हुई, तो हाई कोर्ट ने जाम हटाने को लेकर कोई स्पष्ट आदेश नहीं दिया. मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने भी पहले चुनाव की वजह से सुनवाई टाली, फिर सरकार का जवाब देखने के नाम पर सुनवाई स्थगित की. और बाद में शाहीन बाग में वार्ताकार भेज दिए. इस तरह सड़क बंद किए जाने से लाखों लोगों को हो रही जो समस्या कोर्ट के सामने रखी गई थी. उसे लेकर अब तक कोर्ट ने कोई स्पष्ट आदेश नहीं दिया है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि भले ही CAA समर्थक लोगों का कानून अपने हाथ में लेना बिल्कुल गलत हो. लेकिन जब लोग जाफराबाद में जमा होने शुरू हुए तो कहीं ना कहीं दूसरे खेमे के लोगों के मन में यह बात जरूर रही होगी कि सरकार और कोर्ट इन लोगों को भी नहीं हटाएगी और यह लंबे समय तक सड़क पर बने रहेंगे.इसी से जुड़ा दूसरा विषय- क्या सड़क रोककर प्रदर्शन करना कानूनी रूप से उचित है? संविधान के अनुच्छेद 19 1(a) और 19 1(b) के तहत किसी विषय पर अपनी बात रखना, शांतिपूर्ण तरीके से जमा होना लोगों का मौलिक अधिकार है. इसलिए, अगर लोग CAA के विरोध में प्रदर्शन करना चाहते हैं, तो ऐसा करने से उन्हें रोका नहीं जा सकता है. लेकिन हर मौलिक अधिकार की तरह इस अधिकार की भी सीमाएं हैं. अपने किसी अधिकार का इस्तेमाल करते वक्त किसी को दूसरों के मौलिक अधिकार का हनन करने की इजाजत नहीं है. तो जो लोग सड़क पर बैठकर उसे बंद कर दे रहे हैं. वह लोग कहीं ना कहीं दूसरों के जीवन के अधिकार को बाधित कर रहे हैं. काम की जगह पर आने जाने में अड़चन डाल के रोजगार के अधिकार को बाधित कर रहे हैं. यही बात लोगों को समझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने दो वार्ताकारों को शाहीन बाग भेजा था. लेकिन लोगों को उनकी बात समझ में नहीं आई. वह सड़क से हटने को तैयार नहीं हुए. अब जरा इस मामले में प्रशासन की एक और नाकामी को समझिए. 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के जंतर-मंतर और बोट क्लब जैसी इलाकों में विरोध प्रदर्शन बंद कर देने के एनजीटी के आदेश को निरस्त किया था. तब कोर्ट ने यह कहा था कि लोगों को विरोध के लिए जमा होने से लोगों को नहीं रोका जा सकता है. लेकिन विरोध अनिश्चित काल तक नहीं होना चाहिए. उस दौरान सड़क रोकने या शोर-शराबे से आसपास रहने वाले लोगों का जीवन बाधित नहीं होना चाहिए. तब कोर्ट ने प्रशासन को 2 महीने में विरोध प्रदर्शनों को लेकर नए नियम बनाने को कहा था. पर ऐसा नहीं किया गया. ऐसे में, आज की तारीख में शाहीन बाग में जो विरोध प्रदर्शन हो रहा है, वह भले ही संवैधानिक और कानूनी रूप से गलत नजर आता हो, लेकिन प्रशासन को उसके बारे में 2 साल पहले ही जो स्पष्ट नियमावली बना लेनी चाहिए थी, उसने वैसा नहीं किया.
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