उत्तराखंड त्रासदी का जिम्मेदार कौन? क्या विकास के बांध के लिए विनाश को निमंत्रण दिया गया?
उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं का जाल है. छोटी बड़ी कई परियोजनाएं यहां चल रही हैं. उत्तराखंड सरकार ने 2005 से 2010 के बीच दो दर्जन से ज्यादा ऐसे पावर प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है.ऋषिगंगा नदी पर तीन और बांध बनाने की तैयारी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. 2013 मे केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति बनाई थी.
चमोली: उत्तराखंड में रविवार को आई त्रासदी में अबतक 32 लोगों की मौत हो गई है और 175 लोग लापता हैं. अब सवाल उठ रहे हैं कि इस त्रासदी का जिम्मेदार कौन है? क्या विकास के बांध के लिए विनाश को निमंत्रण दिया गया? प्रकृति से कैसे छेड़छाड़ हुई, इसका जवाब के रेणी गांव के लोगों ने दिया, जिन्होंने प्रोजेक्ट के खिलाफ हाईकोर्ट तक अपील की लेकिन नतीजे में उन्हीं के खिलाफ मामले दर्ज कर लिए गए.
रेणी गांव के निवासी सोहन सिंह ने बताया, ‘’हमारी पिटीशन पेंडिंग हैं. हाईकोर्ट में ये पिटीशन डाली थी कि हमारी निजी लैंड है, उसे एक्वारयर न करें. हमारे ऊपर एफआईआर है. अरेस्ट वॉरेंट भी जारी हुआ. हम कई बार धरना भी दे चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.’’ वहीं, गांव के प्रधान भगवान सिंह कहते हैं, ‘’ये ऋषिगंगा पावर प्रोडक्शन लिमिटेड थी, जिसने आवाज उठाई उसके खिलाफ कार्रवाई हुई. पहले हम तीन लोग थे. जब हम आवाज उठाते थे तो प्रशासन हमें दबाने की कोशिश करता था.’’
लैड्स्लाइड के खतरे के बारे में पता होने के बाद भी प्रोजेक्ट को मंजूरी कैसे मिली?
रेणी गांव में ही ऋषिंगंगा पावर प्रोजेक्ट का कैचमेंट एरिया है. ऊपर से आए पानी ने रेणी गांव के बैरियर को तोड़ा, इसके बाद आई बाढ और मलबा तपोवन प्रोजेक्ट के टनल में घुस गया. सवाल उठ रहे हैं कि हिमस्खलन और लैड्स्लाइड के खतरे के बारे में पता होने के बाद भी प्रोजेक्ट को मंजूरी कैसे मिली? वो भी तब जब ये प्रोजेक्ट नंदादेवी बायोस्फीयर क्षेत्र में आता है, जो वैश्विक धरोहर है.
त्रासदी पर पर्यावरणविद अनिल जोशी का कहना है, ‘’हिमालय की इस त्रासदी के बारे में मंथन का ये समय है. ये सामूहिक गलती का परिणाम है. नंदा देवी बायस्फीयर केन्द्र के द्वारा संरक्षित क्षेत्र माना गया था. वहां दूसरे के अधिकारों का हनन कर देते हैं. गांव के लोग वन उत्पाद का लाभ नहीं उठा पाते हैं. ऐसे में हाइड्रोपावर बांध का निर्माण सवाल खड़ा करेगा.’’ हैरानी की बात है कि इस मामले में केन्द्र सरकार के मंत्रालय तक की नहीं सुनी गई. तपोवन बिजली प्रोजेक्ट पर 2016 में गंगा शुद्धिकरण मंत्रालय ने एतराज किया था. मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर नए बांध और पावर प्रोजेक्ट को खतरनाक बताया था. हांलाकि पर्यावरण मंत्रालय ने इसका विरोध किया था. उस वक्त गंगा मंत्रालय की मंत्री उमा भारती ने हादसे को लेकर ट्वीट कर चेतावनी भी दी थी.
गंगा और उसकी मुख्य सहायक नदियों पर पावर प्रोजेक्ट नहीं बनने चाहिए- उमा भारती
हादसे के बाद उमा भारती ने कहा, ‘मैं जब मंत्री थी, तब अपने मंत्रालय के तरफ़ से हिमालय उत्तराखंड के बांधों के बारे में जो एफ़िडेविट दिया था, उसमें यही आग्रह किया था कि हिमालय की पहाड़ियां बेहद संवेदनशील हैं, इसलिए गंगा और उसकी मुख्य सहायक नदियों पर पावर प्रोजेक्ट नहीं बनने चाहिए.’’
पर्यावरणविद अनिल जोशी ने कहा, ‘’ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेज जैसे विषय हैं वो हिमालय में रहने वालों के लिए खतरा है. हमें सचेत हो जाना चाहिए. संकेत मिल रहा है. बहुत से बांध बन चुके हैं. कमीशंड हो चुके हैं. बर्फ गिरती है वो जलजला पैदा करती है. आने वाले वक्त में दूसरे कारण भी हो सकते हैं. इस घटना के बाद चिंता करनी चाहिए कि जो दूसरे बांध बने हैं, उनकी सुरक्षा होनी चाहिए.’’
ऋषिगंगा नदी पर तीन और बांध बनाने पर सुप्रीम कोर्ट की रोक
हैरानी इस बात को लेकर है कि इसी ऋषिगंगा नदी पर तीन और बांध बनाने की तैयारी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. 2013 मे केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति बनाई थी. इस कमेटी ने बांधों से पर्यावरण को हो रहे नुकसान का आंकलन किया था. कमेटी की रिपोर्ट में 2200 मीटर से ज्यादा ऊंचाई वाली बिजली परियोजनाओं को विनाशकारी कहा गया. लेकिन केन्द्र और उत्तराखंड सरकार ने कमेटी की रिपोर्ट को ये कहकर नहीं माना कि वो सामान्य धारणा पर आधारित है और उसके पीछे कोई रिसर्च नहीं है. कोर्ट में राज्य की बिजली जरुरतों का हवाला भी दिया गया.
उत्तराखंड सरकार ने निर्माण खर्च का हवाला देते हुए रोक हटाने की मांग की. रोके गए 24 प्रोजेक्ट और 6 हाइडिल पावर प्रोजेक्ट बना रही कंपनियों भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की. 2016 में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अपने स्टैंड में बदलाव की बात कही. मंत्रालय का कहना था कि निर्माण की प्रक्रिया में बदलाव कर पावर प्रोजेक्ट बनाने की अनुमति दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से इस पर जवाब मांगा था. तब से लेकर अब तक इस मामले में आगे की सुनवाई नहीं हुई है.
उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं का जाल है. छोटी बड़ी कई परियोजनाएं यहां चल रही हैं. उत्तराखंड सरकार ने 2005 से 2010 के बीच दो दर्जन से ज्यादा ऐसे पावर प्रोजेक्ट को मंजूरी दी है. तो क्या ये सब बिना सोचे समझे हो रहा है? हिमालय पर बिगड़ते हालात की ओर किसी का ध्यान नहीं है? क्या एक बड़ी आफत को बुलावा नहीं दिया जा रहा है?
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