मिशन 2024 के लिए अजित पवार बीजेपी के लिए कितने फायदेमंद होंगे? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि बीजेपी महाराष्ट्र में शिंदे से ज्यादा भाव एनसीपी को दे रही है.
रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के मंत्रियों के विभाग बंटवारे के बाद अब जिला आवंटन की प्रक्रिया शुरू होगी. जिला आवंटन में भी अजित गुट के हावी होने की अटकलें हैं.
इधर, अजित गुट ने विधानपरिषद के 12 सदस्यों के मनोयन में भी अपनी हिस्सेदारी तय कर ली है.
अजित पवार के 9 सहयोगियों को महाराष्ट्र कैबिनेट में शामिल किया गया है. शिंदे गुट के विरोध के बावजूद अजित को वित्त और उनके करीबी दिलीप वल्से पाटिल को सहकारिता मंत्रालय दिया गया है.
दिव्य मराठी के मुताबिक विधानपरिषद् के 12 सदस्यों का मनोयन जल्द होगा. 12 में से 6 सदस्य बीजेपी और 3-3 सदस्य शिंदे-अजित कोटे से शामिल किए जाएंगे.
अजित पवार को पुणे और छगन भुजबल को नासिक जिले का प्रभार मिल सकता है. धनजंय मुंडे को बीड जिला मिलने की अटकलें हैं. वर्तमान में बीजेपी के मंत्रियों के पास इन जिलों का प्रभार है.
जिस तरह से बीजेपी अजित और उनके सहयोगियों को तवज्जो दे रही है उसे देख कर कहा जा सकता है कि बीजेपी चुनावी रणनीति पर काम कर रही है.
वहीं एक तर्क ये भी है कि अजित पवार को बीजेपी के आशीर्वाद की जरूत है. लेकिन कई जानकारों का ये मानना है कि इस पूरे किस्से की हकीकत एकदम उलट है. 2024 में अपनी जीत की संभावनाओं को मजबूत करने के लिए बीजेपी को अपने खेमे में अजित पवार की जरूरत है.
बीजेपी को अजित की जरूरत, न कि अजित पवार को बीजेपी की
2024 से पहले बीजेपी बिहार, कर्नाटक और महाराष्ट्र में विशेष रूप से कमजोर है. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी, लोक जनशक्ति पार्टी और अब अलग हो चुके जनता दल (यूनाइटेड) ने बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी.
महाराष्ट्र में बीजेपी और अब अलग हो चुकी शिवसेना (उद्धव ठाकरे) ने 48 में से 41 सीटें जीतीं थी और एक निर्दलीय उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी.
कभी ताकतवर रही कांग्रेस को सिर्फ एक सीट पर जीत मिली थी. जबकि शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा को चार सीटों पर जीत मिली. असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन लगभग 0.7 प्रतिशत वोट शेयर हासिल करने में कामयाब रही.
2019 में हुए राजनीतिक घटनाक्रम ने यह स्पष्ट कर दिया था कि बीजेपी को इन राज्यों में मजबूत चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. हिंदी पट्टी में वह पहले से ही मजबूत स्थिति में है और पूर्वोत्तर, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में ज्यादा सीटें जीतना उसके लिए मुश्किल होगा.
बीजेपी के लिए आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी राज्यों में अपनी सीटें बढ़ाने में मुश्किल होगी.
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि शिवसेना को दो हिस्सों में विभाजित करने के बावजूद बीजेपी को महाराष्ट्र में महत्वपूर्ण नुकसान का सामना करना पड़ रहा है. 2019 में बीजेपी-शिवसेना की संयुक्त सीटों की संख्या 41 थी.
न्यूज चैनलों के इस साल किए गए सर्वे में ये संकेत मिला था कि एमवीए 2024 के लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में 34 सीटें जीत सकता है. इसका मतलब है कि बीजेपी-शिवसेना (शिंदे) गठबंधन संभवत: 14 सीटें जीत सकता है.
जानकार ये मानते हैं कि आंकड़ों के हिसाब से बीजेपी-शिवसेना (शिंदे) गठबंधन को 36 प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ सकता है. 2019 में यह लगभग 52 प्रतिशत था. 2014 के बाद से राष्ट्रीय चुनावों में बीजेपी हावी रही है, ऐसे में पीछे बैठ कर एमवीए को बहुमत के साथ आगे नहीं बढ़ने देना चाहती है.
इस लिए अजित पवार, प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल, दिलीप वल्से पाटिल और अन्य जैसे दिग्गजों को अपने साथ लाकर बीजेपी ने एक तरह से सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि 2024 में उसके नेतृत्व वाला गठबंधन आराम से कम से कम 40 प्रतिशत वोट शेयर का आंकड़ा पार कर लेगा.
दूसरी तरफ पार्टी के संरक्षक शरद पवार ने 'पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने' का संकल्प लिया है. जयंत पाटिल जैसे वफादार सहयोगियों के माध्यम से, उन्होंने "बागी" विधायकों के खिलाफ महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष को अयोग्यता नोटिस भेजे. शरद पवार को उम्मीद है कि 2024 के चुनावों में उनकी पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी.
जानकारों का ये भी कहना है कि भले ही 2024 के लोकसभा चुनावों शरद पवार के लिए सहानुभूति वोट हो, लेकिन अजित पवार खेमे को बीजेपी के बैनर तले लोकसभा उम्मीदवार उतारने का मौका मिल गया. जो भविष्य में भी उसके लिए फायदेमंद होगा.
2019 के लोकसभा चुनावों में एनसीपी ने 16 प्रतिशत से कुछ कम वोट शेयर हासिल किया था. अगर महाराष्ट्र में एनसीपी के मतदाता शरद पवार को सहानुभूति वोट देते हैं.
फिर भी ऐसे परिदृश्य की कल्पना करना मुश्किल है जहां अजित पवार गुट पारंपरिक एनसीपी वोट का एक-चौथाई भी इकट्ठा नहीं करता है. यानी विभाजित एनसीपी एनडीए की झोली में चार प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर जोड़ देगी.
वोट प्रतिशत में इजाफा करने के लिए बीजेपी ने 2022 में शिवसेना को तोड़ दिया था. लेकिन यह जीत को पार्टी के पक्ष में लाने के लिए पर्याप्त नहीं था. एनसीपी को तोड़कर बीजेपी के रणनीतिकार अब थोड़ी राहत की सांस ले सकते हैं.
जानकार ये भी कहते हैं कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों में लगभग सभी पार्टियां जुटी हुई हैं. महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचने में अहम भूमिका निभाएंगी.
महाराष्ट्र में शिव सेना में टूट के बाद बीजेपी एकनाथ शिंदे के साथ सरकार बनाने में सफल ज़रूर रही लेकिन वो महाराष्ट्र में अपने पैर और भी मजबूती से जमाना चाहती है.
अंग्रेजी अख़बार ‘द हिंदू’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एनसीपी में टूट से उसके छगन भुजबल, प्रफुल्ल पटेल, ततकरे और दिलीप वलसे पाटिल जैसे नेता ग्राउंड पर बीजेपी को फायदा पहुंचा सकते हैं.
वहीं वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क ने एबीपी न्यूज को बताया कि अजित पवार बीजेपी के लिए चुनाव में बहुत फायदेमंद साबित हो जरूरी नहीं. इसलिए कि 2019 में जब वे अपने बेटे को लोकसभा का चुनाव नहीं जिता सके तो बीजेपी को उनसे उम्मीद पालना बेमानी होगी.
राजनीति में परसेप्शन बड़ी बात मानी जाती है. बीजेपी ने अजित को अपने पाले में लाकर यह संदेश देने की कोशिश की है कि विपक्ष में भगदड़ मची है.
जिस चाचा की अंगुली पकड़ अजित सियासत में आए, अब उन पर (शरद पवार) पर उनको भरोसा नहीं है. हालांकि कई बार परसेप्शन गलत भी साबित हुआ है. बंगाल विधानसभा चुनाव के पहले टीएमसी में भी इससे बड़ी भगदड़ मची थी.
टीएमसी छोड़ लोग बीजेपी में जा रहे थे. पर, परिणाम वैसा नहीं रहा. इसलिए यह मानना कि अजित अगर कुछ विधायकों को लेकर बीजेपी के साथ गये हैं तो उससे बीजेपी मजबूत होगी, यह जरूरी नहीं.
दूसरे राज्यों में पैठ बनाने की तैयारी में बीजेपी?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भाजपा दूसरे राज्यों में अन्य दलों में ज्यादा पैठ बनाने की उम्मीद कर रही है, इसके लिए वो कोशिशें भी करेगी. लोकसभा में पर्याप्त संख्या में सीटें भेजने वाले चार राज्य अब बीजेपी की नजर में होंगे.
बिहार और कर्नाटक से लोकसभा में 68-68 सदस्य जाते हैं. 2019 में बीजेपी ने इनमें से 42 सीटों पर जीत दर्ज की थी. यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले हफ्तों में बीजेपी की राजनीतिक मशीनरी बिहार और कर्नाटक में क्या करती है.
ये ध्यान देने वाली बात है कि जब शरद पवार पटना में एकजुट विपक्ष के संरक्षक की भूमिका निभा रहे थे, तब भी बीजेपी उनकी पार्टी तोड़ रही थी. नीतीश कुमार विपक्षी एकता के एक और प्रमुख "आयोजक" हैं. ऐसे में सवाल उठता है क्या बीजेपी का अगला निशाना जद (यू) होगा ?
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार लगातार गठबंधन को एकजुट रखने में मशक्कत करते नज़र आ रहे हैं. कभी तेजस्वी यादव की पार्टी के नेता उनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोलते हैं, तो कभी जेडीयू नेता, तो कभी ख़ुद तेजस्वी.
इसी साल जनवरी में उपेंद्र कुशवाहा ने सार्वजनिक तौर बयान दिया था कि महागठबंधन बनते समय जेडीयू और आरजेडी में एक डील हुई थी, यह डील किसने की और क्या थी इसके बारे में पार्टी के बड़े नेताओं को बताना चाहिए.
जेडीयू में में मेरे खिलाफ साजिश हो रही है. दरअसल यह साजिश मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ है क्योंकि मैं हर वक़्त नीतीश कुमार के साथ संकट के समय खड़ा रहता हूँ." उपेंद्र कुशवाहा ने ये भी आरोप लगाया था कि उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता बीजेपी के संपर्क में हैं. इसी तरह बिहार में बीजेपी मुकेश सहनी पर भी डोरे डाल रही है.