अल नीनो: महंगाई, ईएमआई और चुनाव नतीजों तक पर पड़ सकता है असर, जानिए ये साल क्यों है अहम
अल नीनो की वजह से मौसम का सामान्य चक्र गड़बड़ा जाता है और बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं.
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग ने अनुमान लगाया है कि 2023 में सामान्य बारिश होगी. हालांकि, जून-सितंबर में अल नीनो के विकसित होने की संभावना 90% है. इस वजह से सामान्य से कम बारिश होने का भी अंदेशा है. पहले भी भारत में अल नीनो की वजह से औसत से कम बारिश हुई है. इससे कभी-कभी गंभीर सूखा पड़ा है जिसने फसलों को नष्ट कर दिया . भारत को कई बार खाद्दान्नों का निर्यात भी रोकना पड़ा. इसका असर सिर्फ भारत तक न रह कर पूरी दुनिया पर पड़ता है.
अल नीनो मौसम की एक घटना है जो तब होती है जब मध्य और पूर्वी प्रशांत महासागर में समुद्र का तापमान सामान्य से ऊपर बढ़ जाता है. ये बढ़ा हुआ तापमान वायुमंडलीय पैटर्न में बदलाव की वजह बनता है. इसकी वजह से भारतीय प्रायद्वीपों में मानसून चक्र कमजोर पड़ता है. यही वजह है कि बारिश भी कम होती है. इसकी वजह से मौसम का सामान्य चक्र गड़बड़ा जाता है और बाढ़-सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं.
अल नीनो और मानसून की बारिश के बीच संबंध कितना करीब है?
अल नीनो और मानसून की बारिश के बीच महत्वपूर्ण संबंध है. पिछले सात दशकों में अल नीनो 15 बार हुआ. इनमें से 6 बार मानसून सामान्य या सामान्य से ज्यादा बारिश लेकर आया. हालांकि पिछले चार अल नीनो वर्षों में कम बारिश हुई है. लंबे समय के दौरान बारिश का औसतन 90 फीसदी रह गया, और सूखे के हालात पैदा हुए. इसमें 2015 और 2016 शामिल है. अल नीनो की घटनाओं को सामान्य से ऊपर तापमान वृद्धि के परिणाम के मुताबिक कमजोर, मध्यम या मजबूत के रूप में वर्गीकृत किया जाता है.
2009 में भी कमजोर अल नीनो की वजह से देश में कम बारिश हुई. उस साल बारिश सामान्य से 78.2% तक कम हुई, ये 37 सालों में सबसे कम दर्ज की गई बारिश थी. इसके विपरीत 1997 में मजबूत अल नीनो हुआ, फिर भी भारत में सामान्य बारिश यानी 102% ही बारिश हुई. मौसम विभाग ये बता रहे है कि 2023 अल नीनो मजबूत हो सकता है.
मानसून का अर्थव्यवस्था पर कितना गहरा असर
लगभग 70 फीसदी सालाना बारिश मानसून से होती है. मानसून की बारिश का गहरा असर जरूरी फसलों जैसे चावल, गेहूं, गन्ना, सोयाबीन और मूंगफली की उपज पर पड़ता है. देश की 3 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी में कृषि लगभग 19 फीसदी का योगदान करती है और 140 करोड़ भारत की आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा रोजगार के लिए खेती पर निर्भर करती है.
अर्थव्यवस्था पर मानसून का असर लंबे समय तक रहता है. अच्छी बारिश बेहतर इकॉनोमी का संदेश है. और मंहगाई भी कंट्रोल में रहती है. कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी चीनी, गेहूं और चावल पर निर्यात प्रतिबंधों को भी कम कर सकती है. वहीं इसके विपरीत सूखे के समय खाद्य आयात करने और निर्यात प्रतिबंधों को बनाए रखने की जरूरत होती है. 2009 में खराब बारिश की वजह से भारत चीनी आयात करने पर मजबूर हो गया, जिससे दुनिया भर में कीमतें रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गईं.
मंहगाई का असर और आरबीआई की नीतियां
भारत में मंहगाई निर्धारण में खाद्ध पदार्थों की कीमतें 50 फीसदी योगदान देती हैं. भारतीय रिजर्व बैंक महंगाई पर निगरानी रखता है और इसी के मुताबिक नीतियां बनाता है. अगर महंगाई बढ़ेगी तो इसे नियंत्रित करने के लिए आरबीआई के पास यही एक हथियार है कि वो ब्याज की दरें बढ़ा दे और इस हालात में किश्तें यानी ईएमआई बढ़ जाती हैं.
पिछले लगातार चार साल से बारिश औसत या औसत से अच्छी हो रही है. फिर भी कई खाद्ध पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं. यही वजह है कि हाल में आीबीआई ने ब्याज दरें बढ़ाई हैं. ऐसे में अगर मानसून फिर से कमजोर होता है तो ब्याज दरें और बढ़ेंगी.
आम चुनाव से पहले पीएम मोदी के लिए मानसून क्यों महत्वपूर्ण?
सत्ता में आने के नौ साल बाद से पीएम मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है, लेकिन जनमत सर्वेक्षणों से पता चलता है कि बढ़ती मुद्रास्फीति यानी महंगाई और बेरोजगारी से उनकी रेटिंग कम होने का खतरा है. भारतीय जनता पार्टी पिछले हफ्ते एक महत्वपूर्ण राज्य में चुनाव हार गई. कई उत्तरी और मध्य राज्यों में 2024 के मध्य में होने वाले आम चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव हो रहे हैं.
अच्छी बारिश से किसानों की आय बढ़ेगी और महंगाई पर नियंत्रण रखने में मदद मिलेगी. सूखा सत्ता विरोधी लहर को बढ़ा सकता है.
अल नीनो के कारण 2015 बना था दुनिया का सबसे गर्म साल
बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के डॉ निक क्लिंगामैन का कहना है, "2015 कुछ मामलों में अल नीनो अब तक का सबसे ताकतवर रहा है. भारत में मॉनसून सामान्य से 15% कम रहा.
सहायता एजेंसियों के मुताबिक अफ्रीका में भोजन की कमी से तीन करोड़ 10 लाख लोग प्रभावित हुए, जो पिछले साल से काफी ज्यादा था. इनमें से एक तिहाई इथियोपिया में हैं.
बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय विकास विभाग के मंत्री निक हर्ड के मुताबिक, "अगर हम इस ताकतवर अल नीनो के खिलाफ अभी कदम नहीं उठाते हैं, तो हम दुनियाभर में हाशिए पर खड़े लोगों की मदद नहीं कर पाएंगे." संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनियाभर में छह करोड़ लोगों को संघर्षों के चलते जबरन घर छोड़ना पड़ा है.
2016 आए अल नीनो से सीरिया, दक्षिण सूडान और यमन में लोगों की मुसीबतें बढ़ीं थी. ऑक्सफैम जैसी सहायता एजेंसियां इस बात पर चिंता जताती रही हैं.
जरूरत से ज़्यादा ठंड
2015-16 से पहले पांच सालों में आए अल नीनो को दक्षिण एशिया में कम़जोर मानसून और दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया, फिलिपींस व इक्वाडोर, अमेरीका में बर्फीले तूफान के लिए जिम्मेदार माना गया था. इसके अलावा ब्राजील में भयंकर लू और मैक्सिको में बाढ़ के पीछे भी अल नीनो को ही कारण माना गया.
अल-नीनो वातावरण में कार्बन की मात्रा पर असर डालता है क्योंकि अल-नीनो के चलते सूखा पड़ने से पेड़ों की कार्बन सोखने की क्षमता प्रभावित होती है. साल 2015 में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा औसत 400ppm थी, लेकिन 2016 में ये पहुंचकर औसत 403.3ppm हो गई है.
इससे पहले कार्बन डाई ऑक्साइड की सबसे ज़्यादा बढ़त 1997-1998 में अल-नीनो के दौरान हुई थी. तब ये 2.7ppm था जो 2017 में 3.3ppm हो चुका था. ये भी बीते 10 सालों के औसत से 50 प्रतिशत ज़्यादा था.
हम अल नीनो को होने से कैसे रोक सकते हैं?
हम अल नीनो को पूरी तरह रोक नहीं सकते हैं. ये स्वाभाविक रूप से होने वाले जलवायु पैटर्न हैं और इंसानों में अल-नीनो की शुरुआत, तीव्रता या अवधि को प्रभावित करने की कोई प्रत्यक्ष क्षमता नहीं है. इसके प्रभाव के दौरान कुछ कोशिशें जरूर कर सकते हैं.
भारत में कृषि अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र है. सूखा खाद्य उत्पादन के लिए सबसे बड़ा खतरा है, लेकिन अल नीनो के कारण भारी बारिश, बाढ़ और बेहद गर्म या ठंडा मौसम भी बहुत खतरनाक है.
1997-1998 में हुई घटनाओं से यह साफ हो गया कि अल नीनो प्रशांत के बहुत से हिस्सों में किसानों के लिए बड़ी मुसीबतें खड़ा करता है. ऐसे में किसानों को सूखा प्रतिरोधी फसलों को लगाकर सबसे खराब स्थिति के लिए तैयार करने के लिए बहुत आगे की योजना बनानी चाहिए जो अल नीनो को रोकने के विकल्प के रूप में सूखेपन की लंबी अवधि के अनुकूल हो सकते हैं.
इन पौधों में जंगली रतालू, अफ्रीकी यम, डालो नी ताना, कसावा, विशाल तारो, मोरिंगा, केले और ओकरा या नारियल, ब्रेडफ्रूट और आम जैसे पेड़ शामिल हैं. आमतौर पर इन पेड़ों पर बड़ी मात्रा में फल उगते हैं., जब जलवायु और भी सूख जाती है, यह मददगार होंगे अगर लोग इस फल को भविष्य के के लिए सरंक्षित करते हैं .
मल्टी-स्टोर भी हो सकता है मददगार
मल्टी-स्टोर क्रॉपिंग सिस्टम भी लोगों को सीमित वर्षा के दिनों का मुकाबला करने में मदद करता है. बहुत से लोग नहीं जानते हैं कि नारियल के पेड़ों के नीचे की भूमि अतिरिक्त फसलों को लगाने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है. हम नारियल के पेड़ों के नीचे पपीता और अनानास जैसे फल लगा सकते हैं .
इसके अलावा ड्रिप सिंचाई, मल्चिंग और खाद द्वारा सीमित पानी की आपूर्ति से भी प्रभावी ढंग से लड़ा जा सकता है, जिससे पौधों को जीवित रहने के लिए अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान होगा. एक टिप के रूप में, फसलों को दिन में देर से पानी दें ताकि यह वाष्पीकरण को कम करे और स्वच्छता में सुधार और कचरे को कम करने के लिए टिप्पी नल स्थापित करे.
ये न केवल भूमि पर खाद्य आपूर्ति को प्रभावित करता है, बल्कि पानी के तापमान में बदलाव के कारण मछली के स्टॉक और वितरण को भी प्रभावित करता है.
यह भविष्यवाणी की गई है कि इस साल अल नीनो टूना मत्स्य पर असर डालेगा. इससे नाउरू, तुवालु, किरिबाती और टोकेलाऊ के विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर भी असर पड़ेग. यही कारण है कि वैकल्पिक मछली पकड़ने की गतिविधियों की जरूरत है.
तीन चरणों में होता है अल नीनो
वैज्ञानिकों के मुताबिक ये तीन चरणों में होता है -गर्म चरण (एल नीनो) और शांत चरण (ला नीना) के बीच "ईएनएसओ" होता है. "ईएनएसओ" का मतलब है कि उष्णकटिबंधीय प्रशांत में तापमान, हवाएं, और वर्षा पर असर पड़ना. ईएनएसओ दिसंबर से फरवरी के बीच में होता है.
क्या अल नीनो या ला नीना के दौरान तूफान आता है?
महाद्वीपीय क्षेत्रों, अमेरिका और कैरेबियन द्वीप समूह में अल नीनो के दौरान तूफान का अनुभव करने की संभावना काफी कम हो गई है और ला नीना के दौरान तूफान की आशंका बढ़ गई है.