तेजी से एकजुट होने वाला विपक्ष क्या 2019 तक साथ रह पाएगा?
कर्नाटक के सीएम कुमार स्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान मंच पर लगभग सभी विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने एक साथ आकर बेंगलूरु से दिल्ली में बैठे बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी सहित देश को महागठबंधन की पहली तस्वीर दिखाई.
नई दिल्लीः 2019 के लोकसभा चुनाव में लगभग आठ महीनों का वक्त बचा है. ऐसे में विपक्ष ब्रांड मोदी को टक्कर देने की तैयारियों में जुट गया है. 2019 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को टक्कर देने के लिए विपक्षी पार्टीयों के बीच महागठबंधन की सुगबुगाहट तेज हो गई है. हाल ही में कर्नाटक के सीएम कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान मंच पर लगभग सभी विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने एक साथ आकर बेंगलूरु से बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी सहित देश को महागठबंधन की पहली तस्वीर दिखाई. इस तस्वीर को देखकर ऐसी उम्मीद जगी थी कि 2019 में बीजेपी के सामने एक मजबूत गठबंधन होगा लेकिन अगस्त के दूसरे सप्ताह में ही विपक्ष के इस सपने को तगड़ा झटका लगा. राज्यसभा उप सभापति चुनाव में आम आदमी पार्टी की दूरी ने इस तस्वीर को धुंधला कर दिया.
बीजेपी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीएन) के उम्मीदवार ने राज्यसभा उप सभापति पद बहुमत का आंकड़ा ना होने के बावजूद भी जीत लिया. तीन बड़ी गैर-एनडीए पार्टी एआईएडीएमके, बीजेडी और टीआरएस ने एनडीए के पक्ष में वोटिंग करके ये जीत बेहद आसान बना दी. यूं तो सदन में कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए और एनडीए दोनों के ही पास बहुमत के लिए जरुरी आंकड़ा नहीं था. एनडीए और यूपीए के पास करीब बराबर वोट थे, लेकिन एनडीए को उन पार्टियों ने जीत दिलाई जो इस गठबंधन का हिस्सा तक नहीं है, वहीं यूपीए के वोट मार्जिन को आप आदमी पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस के वोटिंग प्रक्रिया में हिस्सा ना लेने का खमियाज़ा भुगतना पड़ा. ये बीजेपी के लिए बड़ी राजनीतिक और रणनीतिक जीत मानी जा रही है. इसके साथ ही 2019 में एंटी बीजेपी महागठबंधन के प्रभाव को कमतर आंका जा रहा है. हालांकि अभी से 2019 के समीकरण और मूड को भांपना थोड़ी जल्दबाजी हो सकती है लेकिन मौजूदा वक्त की स्थिति महागठबंधन के लिए हल्की जान पड़ती है. सवाल ये है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
कांग्रेस का नेतृत्व और 2019 की जंग एंटी बीजेपी महागठबंधन राज्यों के लिए बेहतर साबित हुए हैं और आगे भी हो सकते हैं. गोरखपुर, फुलपुर और कैराना उपचुनाव इस बात को प्रमाणित भी करते हैं. लेकिन एक बात जो इन जीत में अहम रही है वो ये कि कहीं भी कांग्रेस के नाम पर महागठबंधन ने चुनाव नहीं जीता है.
कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सहयोगी एनसीपी के नेता शरद पवार ने एक इंटरव्यू में कहा था कि कांग्रेस अपना प्रभाव भारतीय राजनीति से खोती जा रही है, अगर विपक्ष एक साथ नहीं आ पा रहा है तो इसकी सबसे बड़ी जिम्मेदार कांग्रेस है. पवार का ये बयान राज्यॉसभा उपसभापति चुनाव के घटनाक्रम में बिलकुल सटीक बैठता है. विपक्ष की ओर से उम्मीदवार के चुनाव में देरी, अपनी ही पार्टी को दी जा रही वरीयता ये सवाल पैदा करता हैं क्या कांग्रेस सहयोगी दलों का ख्याल रखते हुए सबको साथ लेकर नहीं चल पा रही है?
कांग्रेस के सामने महागठबंधन के साथ ही कई तरह की नई परिस्थितियां उभरेंगी. कांग्रेस अगर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ आती है तो बीजेपी के सामने वो एक वोटबैंक खड़ा कर सकेगी जो बीजेपी को आने वाले चुनाव में कड़ी टक्कर देगा. इसे ऐसे समझना होगा कि दक्षिण राज्य तमिलनाडु में कांग्रेस का डीएमके साथ गठबंधन है और एनडीए को उप सभापति चुनाव में सहयोग करने के बाद से एआईएडीएम के इस गठबंधन में शामिल होने की उम्मीदें तेज हो गई हैं. राज्य में ये दोनों पार्टी अपने-अपने मतदाताओं के वोट बैंक के साथ विपक्ष का हिस्सा बनेंगी. वहीं उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और कांग्रेस का साथ भी कुछ यही स्थिति बनाएगा.
कांग्रेस के सामने चुनौतियां महागठबंधन को लेकर सबसे बड़ा सवाल जो उठता रहा है वो है राज्य स्तर पर इनका एक दूसरे के विरोधी होने की छवि. एक ऐसा गठबंधन जिनमें वो पार्टियां साथ आएंगी जो अपने ही क्षेत्र में आमने-सामने हैं. पश्चिम बंगाल की ही बात करें तो यहां टीएमसी और लेफ्ट आमने-सामने है. स्थानीय स्तर पर इन दोनों ही पार्टियों की विचारधारा एक दूसरे से बेहद अलग है. ऐसा विपरीत विचारधाराओं वाला ये गठबंधन लंबी अवधि में छोटी पार्टियों को नुकसान पहुंचा सकता है.
महागठबंधन का केंद्र जाहिर तौर पर कांग्रेस होगा और पार्टी के ऊपर अपने सहयोगियों को बनाए रखने की और नए सहयोगियों को जोड़ने की बड़ी जिम्मेदारी होगी. कांग्रेस के इस फेल्योर का सबसे ताज़ा उदाहरण उपसभापति चुनाव में आम आदमी पार्टी का हिस्सा ना लेना है. दरअसल, कांग्रेस की ज़रा सी कोशिश आप को वोटिंग प्रक्रिया में शामिल कर सकती थी लेकिन कांग्रेस की ओर से कोशिश नहीं की गई. आप के संयोजक और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने चुनाव के नतीजों के बाद कहा कि राहुल गांधी फोन करते तो हम विपक्ष के उम्मीदवार के लिए वोट कर देते. इस बयान से साफ है कि अपने अहंकार में कांग्रेस विपक्ष को जोड़कर रख पाने की ज़हमत भी नहीं कर रही है. बेंगलूरू के मंच से विपक्ष के शक्ति प्रदर्शन में केजरीवाल भी शामिल थे लेकिन कांग्रेस की सूझ-बूझ की कमी के कारण ये शक्ति राज्यसभा में फीकी पड़ गई.
एनडीए के नए और पुराने सहयोगियों का साथ बीजेपी भी नए एनडीए पार्टनर तलाशने में जुटी हुई है. नए राज्यों में बीजेपी नए साथियों के साथ नई संभावना तलाश रही है. बीजेडी और टीआरएस बीजेपी के नए सहयोगी हो सकते हैं. अगर बीजेपी इन दोनों पार्टी के साथ आती है तो तेलंगाना और ओडिशा में एनडीए इस महागठबंधन को पीछे छोड़ सकता है.
टीआरएस और बीजेडी की एनडीए के साथ बढ़ती नज़दीकियां ज़ाहिर हैं. दोनों ही पार्टीयों के सांसदों ने विपक्ष के द्वारा लाए गए अविश्वास प्रस्ताव में हिस्सा नहीं लिया और उप सभापति चुनाव में बीजेडी और टीआरएस ने एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में वोट डाला. सबसे बड़ी मुसीबत पार्टी के सामने ये होगी कि बीजेपी का इस राज्यों में गठबंधन पार्टी में आंतरिक कलह को जन्म दे सकता है. अगर बीजेपी बीजेडी या टीआरएस से गठबंगधन करती है तो उसके स्थानीय नेताओं को कुछ त्याग करने होंगे जो पार्टी के भीतर असंतोष को जन्म दे सकता है.
वहीं दूसरी ओर एनडीए का हिस्सा शिवसेना लंबे वक्त से मोदी सरकार पर हमले कर रही है लेकिन हाल ही में नाराज़गी के बाद भी शिवसेना ने राज्यसभा उप सभापति के चुनाव में एनडीए के पक्ष में वोट डाला. इससे साफ होता है कि अभी शिवसेना बीजेपी का दामन छोड़ने के मूड में नहीं है. इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि राज्य में अगर कांग्रेस और एनसीपी के बीच 2019 चुनाव से पहले गठबंधन हो जाता है तो शिवसेना के लिए स्थिति काफी खतरनाक साबित हो सकती है. चुनाव में इस गठबंधन और बीजेपी से शिवसेना के वोटों को बड़ा नुकसान हो सकता है.
हालांकि, हाल ही में टीडीपी ने एनडीए का साथ छोड़ा है और साफ किया है कि 2019 में भी टीडीपी एनडीए का हाथ नहीं थामेगी.
कौन-कौन 2019 में आ सकता है साथ? एनडीए 2019 में एआईएडीएमके के साथ तमिलनाडु में गठबंधन कर सकती है. वहीं, नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी भी एनडीए में शामिल हो सकती है. राज्यसभा के उप सभापति के चुनाव में शिवसेना को साथ लाकर बीजेपी ने ये साफ कर दिया है कि वह अपने सहयोगियों के लेकर संजीदा है. इस चुनाव से पहले खबर थी कि शिवसेना उम्मीदवार को लेकर नाराज है लेकिन आखिरकार बीजेपी ने उसे चुनाव प्रक्रिया में वोट लेने के लिए राज़ी किया.
कांग्रेस के साथ इस 2019 में बीएसपी, सपा, टीएमसी और डीएमके, टीडीपी और लेफ्ट साथ आ सकता है. लेकिन इस साथ को कांग्रेस कबतक बनाए रख पाएगा ये अहम सवाल है. विपक्ष का चेहरा कौन होगा इसपर भी विवाद बरकरार है. विपक्ष किस चेहरे पर चुनाव लड़ेगा ये अबतक तय़ नहीं हो सका है. विपक्ष के पास राहुल गांधी, मायावती, ममता बनर्जी जैसे नेता है जो पीएम पद के दावेदार हैं और इनमें से एक पर सहमति बना पाना महागठबंधन की सबसे बड़ी चुनौती होगी.
हालांकि इन मुद्दों के इतर इन बचे हुए महीनों में ये राजनीतिक पार्टियां, आंकड़े और गठबंधन को लेकर कई तरह के बदलाव होंगे. ऐसे में इतनी जल्दी 2019 का अनुमान लगाना थोड़ी बेईमानी होगी. हालांकि लोकसभा चुनाव के नजरिए से कई बड़े राज्यों में महागठबंधन की सूरत काफी साफ है. जैसे यूपी में कांग्रेस-सपा-बसपा का साथ आना, कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस का साथ और बिहार में आरजेडी और कांग्रेस की दोस्ती. लेकिन इन सबके बावजूद ये कह पाना कि 2019 चुनाव में ये महागठबंधन बीजेपी नीत एनडीए को हरा सकेगा, थोड़ा मुश्किल जरुर है लेकिन असंभव नहीं.