विपक्षी मोर्चे ने कांग्रेस के नेतृत्व में मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है. अविश्वास प्रस्ताव को स्पीकर ओम बिरला ने स्वीकार कर लिया है. उन्होंने कहा कि सभी पार्टियों के नेताओं से बातचीत के बाद बहस का समय निर्धारण किया जाएगा. अविश्वास प्रस्ताव सरकार के लिए शक्ति परीक्षा मानी जाती है.
अविश्वास प्रस्ताव के दौरान बहुमत साबित करने में फेल होने पर सरकार गिरने का खतरा रहता है. देश के इतिहास में 3 प्रधानमंत्री की कुर्सी बहुमत के फेर में उलझकर जा चुकी है. हालांकि, वर्तमान सरकार संख्याबल में काफी मजबूत स्थिति में है.
एनडीए के वर्तमान कुनबे के पास करीब 333 सीटें हैं, जो विपक्ष के 142 के मुकाबले काफी ज्यादा है. केंद्र में सरकार बनाने के लिए कुल 272 सांसदों की जरूरत होती है. अकेले बीजेपी के पास 301 का आंकड़ा हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि मोदी सरकार के पास प्रचंड बहुमत होने के बाद भी विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव क्यों ला रही है, वो भी तब जब लोकसभा में विपक्ष के पास बोलने वाले फायरब्रांड नेताओं की भारी कमी है.
अविश्वास प्रस्ताव का मतलब क्या होता है?
संविधान के अनुच्छेद 75(3) में कहा गया है कि कैबिनेट और सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होगी. लोकसभा में अगर किसी दल को बहुमत नहीं है, तो सरकार नहीं बनाई जा सकती है. लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचलान नियम के नियम 198 में मंत्रिपरिषद में अविश्वास का प्रस्ताव प्रस्तुत करने हेतु प्रक्रिया निर्धारित की गई है.
अविश्वास प्रस्ताव को किसी कारण पर आधारित होने की कोई आवश्यकता नहीं है. हालांकि, अविश्वास प्रस्ताव के कागज पर कम से कम 50 सांसदों का हस्ताक्षर जरूरी है.
क्यों लाया गया है अविश्वास प्रस्ताव, 4 वजहें...
1. अविश्वास प्रस्ताव के बहाने बहस होगी- मानसून सत्र शुरू होने के बाद से ही विपक्ष मणिपुर मुद्दे पर रूल 267 के तहत बहस कराने की मांग कर रही है. रूल 267 के मुताबिक कोई भी सदस्य किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर जब इस नियम के तहत नोटिस देता है, तो स्पीकर/अध्यक्ष को इस पर बहस होने तक सदन की सारी कार्यवाही रोकनी पड़ती है.
इस रूल से जब सदन में बहस होती है तो सभी दलों के सदस्यों को बोलने का मौका मिलता है और बहस काफी लंबी हो जाती है. 1990 के बाद अब तक इस नियम के तहत सिर्फ 11 बार बहस हुई है.
बीजेपी सरकार मणिपुर के मुद्दे पर शॉर्ट बहस कराना चाहती है. सरकार रूल 176 के तहत सदन में बहस करना चाहती है, जिसमें गृहमंत्री बयान दे सकते हैं. सरकार और विपक्ष के बीच इसी मुद्दे को लेकर मतभेद है और इस वजह से पिछले 4 दिनों से सदन में गतिरोध जारी है.
राज्यसभा सांसद और आरजेडी के नेता मनोज झा ने मीडिया से बात करते हुए कहा है कि हमारे लिए नंबर मायने नहीं करता है. सरकार कम से कम इस बहाने सदन में बहस तो करेगी. लोकसभा के रूल 198 के मुताबिक जब अविश्वास प्रस्ताव पेश किया जाता है, तो पहले इस पर बहस होती है. इसके बाद वोटिंग कराई जाती है.
2. अविश्वास प्रस्ताव की वजह से प्रधानमंत्री को बोलना पड़ेगा- एक लाइन का यह प्रस्ताव केंद्रीय कैबिनेट के खिलाफ होता है, जिसके मुखिया खुद प्रधानमंत्री होते हैं. अविश्वास प्रस्ताव के अंत में सरकार के खिलाफ लगे सभी आरोपों पर खुद प्रधानमंत्री को सफाई देनी पड़ती है.
विपक्ष की कोशिश भी प्रधानमंत्री को लोकसभा बुलवाने की है, जिससे संसद में मणिपुर की हकीकत पता चल सके. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना में पत्रकारों से कहा है कि प्रधानमंत्री सदन में रहते ही नहीं हैं. उन्हें मणिपुर पर बयान देना चाहिए.
नीतीश ने आगे कहा कि मणिपुर पर प्रधानमंत्री बयान दें, इसलिए अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है. कांग्रेस सांसद शशि थरूर के मुताबिक अगर प्रधानमंत्री मणिपुर मामले पर बयान देते तो इसकी जरूरत नहीं पड़ती.
कुल मिलाकर कहा जाए तो विपक्ष इस प्रस्ताव के जरिए यह नैरेटिव बनाने की कोशिश कर रही है कि सरकार संसद में बहस नहीं चाहती है, इसलिए मजबूरी में यह लाया गया. राजनीतिक जानकार इसे सरकार पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश के रूप में भी देख रहे हैं.
3. हंगामे में न पास हो जाए कोई महत्वपूर्ण बिल- अविश्वास प्रस्ताव के पीछे एक और राजनीतिक वजह चर्चा में है. दरअसल, 4 दिन से जारी गतिरोध के बीच यह खबर सामने आई कि सरकार सदन में हंगामे के बीच ही बिल पेश कर इसे पास करवा सकती है.
2019 में 3 कृषि बिल को सरकार ने इसी तरह पास करवाया था. इस सत्र में दिल्ली अध्यादेश जैसे कई महत्वपूर्ण बिल को पास कराने के लिए सरकार ने लिस्टेड किया है. अविश्वास प्रस्ताव आने के बाद इस पर बहस होने तक सरकार कोई भी बड़ा बिल शायद ही सदन में पेश करे.
अविश्वास प्रस्ताव आने के बाद सरकार की सबसे पहली जिम्मेदारी विश्वासमत हासिल करने की होती है.
4. गठबंधन दलों में एकजुटता का सियासी संदेश- हाल ही में विपक्ष के 26 दलों ने एक साथ चुनाव लड़ने की बात कही है. वर्तमान में इन दलों के पास सदन में विधायकों की संख्या जरूर कम है, लेकिन जनाधार काफी ज्यादा है.
जानकारों का कहना है कि विपक्षी दल के पास भले 142 सीट हो, लेकिन यह एकजुटता का संदेश देना चाहती है. हाल ही में एनसीपी में टूट के बाद से सबों में एकजुटता नहीं होने की बात कही जा रही थी. अविश्वास प्रस्ताव के जरिए विपक्ष सदन में भी एकजुट दिखना चाहती है.
कांग्रेस से सोनिया, अधीर और गौरव ले सकते हैं बहस में हिस्सा
कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी, अधीर रंजन चौधरी और गौरव गोगोई अविश्वास प्रस्ताव के भाषण में बोल सकते हैं. 2018 में मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी को बोलने का मौका मिला था. राहुल गांधी ने अपने भाषण के अंत में प्रधानमंत्री को झप्पी भी दी थी.
हालांकि, मानहानि केस में सजा हो जाने की वजह से सदन में अब राहुल गांधी नहीं हैं. ऐसे में माना जा रहा है कि सोनिया खुद कांग्रेस की ओर से कमान संभाल सकती हैं. गौरव गोगोई ने प्रस्ताव पेस किया है, तो उन्हें भी बोलने का मौका मिल सकता है.
अधीर रंजन चौधरी कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं, तो उन्हें भी सदन में बात रखने का मौका मिल सकता है.
अब अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरने की 3 घटनाक्रम
1. चौधरी चरण और राजनारायण का खेल समझ गए देसाई
1979 में मोरारजी देसाई की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया. उनके 2 करीबी ही सरकार से बागी हो गए थे, जिस वजह से सदन में उनके पास जरूरी संख्याबल नहीं था.
चौधरी चरण सिंह और राजनारायण सदन में संख्याबल के हिसाब से मात देना चाहते थे, लेकिन मोरारजी इस खेल को समझ गए और अविश्वास प्रस्ताव पर बहस से पहले ही इस्तीफा दे दिया.
दरअसल, जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद चौधरी चरण सिंह और राजनारायण को देसाई की सरकार में शामिल किया गया, लेकिन एक साल बाद ही देसाई ने दोनों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया.
सरकार में तकरार होने के बाद मोरारजी ने चौधरी चरण सिंह और राजनारायण को बर्खास्त कर दिया. मोरारजी सरकार गिरने के बाद कांग्रेस के समर्थन से चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बने.
2. संख्याबल नहीं होने के बावजूद वीपी सिंह ने करवाई वोटिंग
1989 में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई. हालांकि, एक साल के भीतर ही दोनों दलों में गहरे मतभेद हो गए. बिहार में लाल कृष्ण आडवाणी के रथयात्रा को रोके जाने पर बीजेपी ने समर्थन वापस ले लिया.
इसके बाद वीपी सिंह सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया. प्रस्ताव पर बहस से पहले जनता दल और संयुक्त मोर्चा के नेताओं की मीटिंग हुई. इंडिया टुडे को दिए इंटरव्यू में वीपी सिंह ने बताया कि हमें पता था कि मेरे पास बहुमत नहीं है फिर भी मैंने मोरारजी की तरह इस्तीफा नहीं दिया.
सिंह के मुताबिक पार्टी ने यह तय किया कि उन बातों को सदन के पटल पर रखा जाए, जो सरकार गिरने की वजह बन रही है. वीपी सिंह ने अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिरने को देश के लिए दिया गया एक बलिदान बताया.
वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद जनता दल के चंद्रशेखर को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनवा दिया.
3. सरकार गिरी तो देवगौड़ा ने फिनिक्स की तरह उभरने का वादा
1997 संयुक्त मोर्चा की ओर से प्रधानमंत्री बने एचडी देवेगौड़ा सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया. इसके बाद लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया. सदन में पेश हुए विश्वास में देवगौड़ा के समर्थन में 158 सदस्यों ने वोट किया, जबकि विरोध में 292 वोट पड़े.
देवगौड़ा ने इस दौरान एक दमदार भाषण दिया. उन्होंने कहा कि मैं फिनिक्स हूं और फिर से उभर कर आऊंगा. हालांकि, सरकार गिरने के बाद देवगौड़ा ज्यादा ताकतवर साबित नहीं हो पाए. जनता दल में टूट हो गई और 1999 में उन्हें खुद की पार्टी बनानी पड़ी.
जब सरकार बचाने में कामयाब हुए अटल बिहारी और नरेंद्र मोदी
2003 में जॉर्ज फर्नांडिज की कैबिनेट में वापसी के बाद यूपीए ने अटल सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था, लेकिन एनडीए की चतुराई की वजह से सरकार बच गई. हालांकि, सोनिया गांधी ने अपने भाषण में कहा कि सरकार के दिन अब पूरे हो चुके हैं. 2004 में जनता इन्हें बाहर कर देगी.
वहीं 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ भी अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया, लेकिन बहुमत होने की वजह से इस बार भी सरकार बच गई. भाषण के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर तंज कसते हुए कहा था कि 2023 में भी अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर लो.