(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
क्या जीत का सेहरा बांध पायेंगे जे पी नड्डा?
जे पी नड्डा की असली परीक्षा तो अब शुरू हुई है. पिछले दो सालों में बीजेपी 5 राज्यों में सत्ता गँवा चुकी है. पहली खेप में एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार गई. फिर सबसे पुराने सहयोगी शिव सेना ने साथ छोड़ा और महाराष्ट्र में सरकार नहीं बनी.
नई दिल्लीः जगत प्रकाश नड्डा बीजेपी के नये अध्यक्ष बन गए हैं. उन पर जगत में तो नहीं, देश भर में पार्टी के लिए जीत का प्रकाश फैलाने की ज़िम्मेदारी आ गई है. पहली चुनौती तो दिल्ली चुनाव की है. जहॉं जीत की गुंजाइश बहुत कम है. ऐसे में अध्यक्ष बनते ही नड्डा पर जीत का सेहरा तो नहीं, हार का ठीकरा ज़रूर फूट सकता है. ये जानते हुए भी कि इसमें उनका कोई क़सूर नहीं है.
जेपी नड्डा पिछले सात महीनों से बीजेपी के कार्यकारी अध्यक्ष थे. इस नाते अमित शाह के साथ उन्होंने अपनी इंटर्न्शिप भी कर ली. नड्डा राजनीति के पुराने चावल हैं. उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत ही उनकी कमजोरी भी साबित हो सकती है.
ये माना जाता है कि वे सबको साथ लेकर चलने में माहिर हैं. लेकिन कभी कभी कठोर फ़ैसले भी लेने पड़ते हैं. वे अमित शाह से उम्र में तो बड़े हैं. लेकिन राजनैतिक रुतबे में कम.
पहले भी रेस में थे जेपी नड्डा
जब शाह 2014 में अध्यक्ष बने थे. तब भी नड्डा अध्यक्ष बनने की रेस में थे. दस साल पहले 2010 में वे राष्ट्रीय राजनीति में आए. वे पार्टी के महामंत्री बनाए गए. तब नितिन गड़करी बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे.
पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान वे यूपी के प्रभारी महासचिव थे. बीएसपी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के बाद भी बीजेपी के लिए नतीजे अच्छे रहे. पार्टी के लोकसभा की 80 में से 62 सीटें मिलीं.
अब शुरू होगी नड्डा की परीक्षा
जे पी नड्डा की असली परीक्षा तो अब शुरू हुई है. पिछले दो सालों में बीजेपी 5 राज्यों में सत्ता गँवा चुकी है. पहली खेप में एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार गई. फिर सबसे पुराने सहयोगी शिव सेना ने साथ छोड़ा और महाराष्ट्र में सरकार नहीं बनी. झारखंड में तो पार्टी बुरी तरह पिटी.
नड्डा जनवरी 2023 तक बीजेपी के अध्यक्ष रहेंगे. इस दौरान यूपी समेत 18 राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं. जिन राज्यों में पार्टी की सरकारें हैं, वहाँ सत्ता विरोधी माहौल न बनने पाए. इस बात पर भी उन्हें नज़र रखनी होगी.
सहयोगी दलों से तालमेल करना होगा ठीक
सहयोगी दलों से तालमेल ठीक रहे. ये भी कम बड़ी चुनौती नहीं है. अकाली दल से रिश्ते गड़बड़ हो रहे हैं. नागरिकता क़ानून को लेकर दोनों पार्टियों में मतभेद हैं. जेडीयू से भी तनातनी चलती रहती है.
जे पी नड्डा को पार्टी के अंदर कुछ गढ़ और मठ भी उखाड़ने होंगे. पार्टी की कसौटी पर जो नेता खरे नहीं उतरे, उनसे मुक्ति लेनी होगी. कुछ राज्यों में नया नेतृत्व तैयार करना होगा. उनकी अध्यक्ष वाली पारी की शुरूआत हार से हो सकती है लेकिन अगले तीन सालों का ठीकरा तो उन पर भी फूटेगा.
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