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जानिए- क्या गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण का कानून अदालती समीक्षा में टिक पाएगा?

नई दिल्ली: संसद से सामान्य वर्ग के गरीबों को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने का कानून पास होने के बाद इसे सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा उतरना होगा. ज्यादातर जानकारों का मानना है कि मामले से जुड़े कुछ पहलू हैं, जिनके आधार पर इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. इस रिपोर्ट में जानते हैं कि कानून को किन आधारों पर चुनौती दी जा सकती है और क्या ये न्यायिक समीक्षा में टिक पाएगा?

पहली चुनौती- 50 फ़ीसदी आरक्षण की सीमा

इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में फैसला देते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था कि आरक्षण 50 फीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं हो सकता. अब सरकार ने आरक्षण को बढ़ाकर 60 फ़ीसदी कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट को देखना होगा कि क्या आरक्षण की सीमा इस तरह बढ़ाई जा सकती है.

जानकारों का मानना है कि जब आरक्षण की सीमा तय की गई थी तब सवाल ये था कि समाज में जो वंचित जातियां हैं, उनका प्रतिनिधित्व नौकरी और शिक्षा में हो सके. साथ ही 50 फ़ीसदी हिस्सा मेधावी लोगों के लिए यानी कि उस वर्ग के लिए छोड़ दिया गया था, जो आपस में प्रतियोगिता कर स्थान हासिल करना चाहता है. कोर्ट इसमें कटौती पर सवाल करेगा.

सरकार की दलील ये होगी कि 10 फ़ीसदी की कटौती उसी वर्ग से की गई है, जिसे पहले आरक्षण नहीं दिया गया था. सरकार को साबित करना होगा कि गरीबी के चलते एक वर्ग को अलग से अनारक्षित कोटे में से आरक्षण देने की जरूरत थी. अगर दलील कोर्ट को सही लगती है तो कानून पर अदालती मोहर लग सकती है.

दूसरी चुनौती- निजी कॉलेज

दूसरी चुनौती निजी कॉलेजों की तरफ से आ सकती है. जहां तक सरकारी नौकरी में आरक्षण दिए जाने का सवाल है, वो सीधे सरकार के दायरे में आता है. लेकिन जब निजी क्षेत्र के कॉलेजों में आरक्षण की बात होती है, तो ये रोजगार और व्यवसाय के मौलिक अधिकार पर असर डालता है. निजी क्षेत्र के कॉलेज पहले भी ओबीसी आरक्षण के प्रावधान को कोर्ट में चुनौती दे चुके हैं. उनकी यह दलील थी कि यह उनके व्यवसाय में असर डालता है. उन्हें आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. इस मामले में भी उनकी यही दलील होगी.

गौरतलब है कि इस कानून को संविधान संशोधन के ज़रिए लागू किया जा रहा है. इसे लाने से पहले संविधान के अनुच्छेद 15(4) में बदलाव किया जा रहा है. कानूनन संसद को किसी भी मौलिक अधिकार की सीमा तय करने का अधिकार है. इसलिए, सरकार कोर्ट में इसी आधार पर पक्ष रखेगी.

तीसरी चुनौती- आकंड़े

तीसरा और सबसे अहम सवाल है आंकड़ों का. कोर्ट में ये बात जरूर उठेगी कि सरकार ने अब तक जनगणना के आंकड़े जारी नहीं किए. इस बात का कोई आंकड़ा नहीं है कि जो सामान्य वर्ग है, उसमें एक तबके को आरक्षण की ज़रूरत है. ऐसे में सरकार का कदम मनमाना माना जाएगा. कोर्ट पहले भी बिना आंकड़ों के अलग-अलग जातियों को आरक्षण दिए जाने के प्रावधान को रद्द कर चुका है. इसमें हरियाणा में जाट आरक्षण, गुजरात में आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण शामिल है.

इसलिए सरकार के सामने बड़ी चुनौती रहेगी कि वो इस जरूरत को साबित कर सके कि सामान्य कोटे में से 10 फ़ीसदी आरक्षण क्यों दिया गया. इन चुनौतियों से पार पाने के बाद सामान्य वर्ग के गरीबों को आरक्षण देने का नया कानून कोर्ट की कसौटी पर खरा उतर सकता है.

वैसे, संविधान की प्रस्तावना में "सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय" की बात लिखी है. ऐसे में आर्थिक आधार पर दिए जा रहे इस आरक्षण को संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ भी नहीं कहा जा सकता. संविधान संशोधन को चुनौती दिए जाने पर कोर्ट सबसे पहले इसी बात को देखता है कि संशोधन मूल ढांचे में बदलाव तो नहीं करता. यानी सरकार यहां भी मजबूत नज़र आती है.

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