Women's Reservation Bill  History: संसद के मौजूदा विशेष सत्र के बीच कैबिनेट की अहम बैठक में महिला आरक्षण बिल को मंजूरी मिल गई है. इसे नई संसद में चलने वाले सत्र में पेश करने की तैयारी की जा रही है. इसके पास हो जाने के बाद महिलाओं की एक तिहाई भागीदारी यानी 33% आरक्षण सुनिश्चित हो जाएगा. संसदीय प्रणाली में महिलाओं की भागीदारी बड़ी करने के लिए इस विधेयक का इंतजार पिछले 27 सालों से हो रहा है. हर बार संसद में पेशी के बाद यह किसी न किसी वजह से गिरता रहा है.


राज्यों की विधानसभाओं में भी महिलाओं की उपस्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है. अगर महिला विधायकों की आनुपातिक संख्या पर बात करें तो छत्तीसगढ़ सबसे अधिक महिला विधायकों वाला राज्य है. छत्तीसगढ़ में कुल 90 विधानसभा सीट हैं जिनमें 16 पर महिला विधायक काबिज हैं. यदि इसका अनुपात निकाला जाए तो प्रदेश में 17.7% महिला विधायक सदन में हैं. 


हालांकि उत्तर प्रदेश विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या लगातार बढ़ती रही है. 2022 के विधानसभा चुनाव में 560 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया गया था जिनमें से 47 ने (11.66%) जीत दर्ज की. उसके पहले 2017 के चुनाव में 42 और 2012 में 35 महिलाओं की उपस्थिति थी. 2021 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के मुताबिक सबसे कम महिला विधायक पंजाब विधानसभा में हैं.


देश की दोनों बड़ी पार्टियां आरक्षण के पक्ष में


खास बात यह है कि देश की दोनों बड़ी पार्टियां, बीजेपी और कांग्रेस इस बिल का समर्थन कर रही हैं. आखिर ऐसी क्या बात है कि पिछले 27 सालों से अपनी नारी शक्ति को विधायी प्रणाली में बड़ी भागीदारी देने के लिए यह बिल संसद के पटल पर आता तो है लेकिन पास नहीं हो पाता. आइए सिलसिलेवार तरीके से हम आपको बताते हैं इसका इतिहास.


एचडी देवगौड़ा की सरकार ने सबसे पहले पेश किया संशोधन


12 सितंबर 1996 को तत्कालीन एचडी देवगौड़ा की सरकार ने महिला विधेयक को संसद में पेश किया, लेकिन इसके तुरंत बाद उनकी सरकार अल्पमत में आ गई. 11वीं लोकसभा भंग हो गई. उसके बाद 26 जून 1998 को अटल बिहारी वाजपेई की अध्यक्षता में एनडीए सरकार ने 12वीं लोकसभा में महिला विधेयक को फिर से पेश किया. इसके विरोध में आरजेडी (RJD) सांसदों ने विधेयक की प्रति फाड़ दी. हालांकि वाजपेयी सरकार भी अल्पमत में आ गई थी, जिसके बाद 12वीं लोकसभा भंग हो गई.


उसके बाद एनडीए सरकार ने 22 नंबर 1999 को दोबारा प्रयास किया, लेकिन आम सहमति नहीं बन पाई. 2002 और 2003 में भी एनडीए सरकार ने प्रयास किया. लेकिन कांग्रेस और वामपंथी दलों के समर्थन के आश्वासन के बावजूद इसे पास नहीं कराया जा सका.


यूपीए सरकार ने भी कम कोशिश नहीं की


2004 में कांग्रेस की अध्यक्षता में यूपीए सरकार सत्ता में आई. 6 मई 2008 को मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने विधेयक को राज्यसभा में पेश किया. वहां से 9 मई 2008 को कानून और न्याय समिति के पास भेज दिया गया. 17 सितंबर (2008) को समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. तब जनता दल यूनाइटेड (JDU), समाजवादी पार्टी (SP) और राजद के भारी विरोध के बीच इसे संसद के दोनों सदनों में पेश कर दिया गया.


वर्ष 2010 इस विधेयक के लिए रहा खास


महिला विधेयक के लिए वर्ष 2010 बेहद खास रहा. यूपीए 2 के शासन के समय 22 फरवरी 2010 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपने संबोधन में कहा कि सरकार बिल को जल्द पास करने के लिए प्रतिबद्ध है. 25 फरवरी 2010 को इसे राज्यसभा में पेश किया गया, लेकिन सपा और राजद ने यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी.


इसके बाद मतदान स्थगित कर दिया गया लेकिन 9 मार्च 2010 को अगले ही दिन विधेयक को राज्यसभा में मतदान के लिए पेश किया गया. इसके खिलाफ केवल एक वोट पड़े, जबकि 186 सदस्यों ने इसका समर्थन कर इसे भारी बहुमत से पास किया. तब बीजेपी और वामदलों के अलावा जदयू ने भी समर्थन किया था. हालांकि इसे लोकसभा में पेश नहीं किया जा सका.


बीजेपी के चुनावी एजेंडा में रहा है विधेयक


2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में महिलाओं के लिए  एक तिहाई यानी 33 % आरक्षण का वादा किया था. अब मंत्रिमंडल ने इसकी मंजूरी दी है और एक बार फिर इसे लोकसभा में पेश करने की तैयारी है.


क्यों होता है विधेयक का विरोध


समाजवादी पार्टी और आरजेडी इस विधेयक का विरोध करते हैं. उनका तर्क है कि महिलाओं का आरक्षण संविधान में निहित समानता के सिद्धांत के खिलाफ है. यह योग्यता के आधार पर चुनावी प्रतिद्वंद्विता को भी प्रभावित करेगा. इसके अलावा आदर्श परिवार व्यवस्था की अवधारणा को ठेस पहुंचाने, मतदाताओं की पसंद को महिला उम्मीदवारों तक सीमित करने, को आधार बनाकर ये पार्टियों लगातार विरोध करती रही हैं.


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