नई दिल्ली: जिस देश में महिलाएं प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक रह चुकी हों, वहां सेना में महिलाओं को अग्रिम यूनिटों की कमान देने के अलावा लड़ाई के मोर्चों या युद्धस्थलों पर उनकी तैनाती को लेकर आखिर सरकार किसलिये डर रही है?


सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या इसके लिये सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार है या फिर तीनों सेनाओं में ऊंचे पदों पर बैठे वे ताकतवर पुरुष अफसर जो नहीं चाहते कि महिला अफसर भी उनकी बराबरी कर सके?


जाहिर है कि सालों से चल रही इस कानूनी लड़ाई में अभी तक सरकार ने न्यायालय में वही सारी दलीलें दी हैं,जो सेना के मर्द अफसरों की सोच रही है. मसलन,कहा गया कि औरतें मर्दों की अपेक्षा शारीरिक तौर पर कमजोर होती हैं. महिलाओं की पारिवारिक स्थितियां, जरूरतें और युद्धबंदी के रूप में पकड़ लिए जाने का खतरा भी कुछ ऐसी बातें हैं जिनके आधार पर सरकार सोचने पर विवश है.एक दलील यह भी दी गई कि कई वजहों से पुरुष सैनिक किसी महिला अफसर के नीचे काम करने के लिए तैयार नहीं होंगे.


इन वजहों में सबसे खास तो यही बताई गई है कि यूनिटों मे तैनात अधिकांश पुरुष सैनिक देहाती पृष्ठभूमि से हैं और वे महिला अफसरों का हुक्म मानने में ‘संकोच' कर सकते हैं. इसका अर्थ तो यही निकलता है कि पुरुष होने की वजह से ही नहीं, ग्रामीण होने के चलते भी उनका नजरिया लैंगिक भेदभाव वाला बना हुआ है. इसीलिए किसी महिला को अफसर के पद पर देखना उन्हें गवारा नहीं.


लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की हर दलील पर हैरानी जताई और आज तल्ख लहजे में सरकार को आदेश दिया कि वह भेदभाव खत्म करते हुए महिला अफसरों को स्थाई कमीशन देने पर एक महीने में विचार करे और नियत प्रक्रिया का पालन करते हुए दो महीने में इसे पूरी तरह से लागू करे.


उल्लेखनीय है कि इससे पहले मौजूदा चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत के मीडिया में प्रकाशित एक बयान पर पिछले साल विवाद उठ खड़ा था जिसमें उन्होंने कथित रूप से ये कहा था कि महिलाएं अभी युद्ध की भूमिकाओं के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन पर बच्चों को पैदा करने व लालन पालन करने की जिम्मेदारी है और वे फ्रंट पर असुविधा महसूस कर सकती हैं और जवानों पर अपने क्वॉर्टरों में ताकाझांकी करने का आरोप लगा सकती हैं.


मील का पत्थर साबित होने वाले निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि महिलाओं को कमजोर मानना भारतीय संविधान के मूल्यों के खिलाफ है. कोर्ट ने कहा कि उन्हें कमान में नियुक्ति नहीं देना और केवल स्टाफ अपॉइंटमेंट तक सीमित रखना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है यह अनुच्छेद सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है.


सेना के मर्द अफसरों की दकियानूसी सोच का जवाब खुद एक महिला अफसर ने ही दिया था. पिछले साल 15 जनवरी को सेना दिवस समारोह के इतिहास में पहली महिला परेड एडजुटैंट बनने वाली सेना के सिग्नल कोर की कैप्टन तानिया शेरगिल ने तब मीडिया से बातचीत में कहा था, "जब हम वर्दी पहन लेते हैं तो हम सिर्फ ऑफिसर होते हैं, फिर जेंडर वाली बात नहीं रह जाती, एक ही चीज की अहमियत होती है और वो है मेरिट. चुनौती और चिंता यही है कि मेरिट की इस बुलंदी को ठीक से समझा जाता है या नहीं."


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