कोरोना संकटकाल में प्रवासी मजदूरों की हालत 'एक तरफ कुआं एक तरफ खाई' सी हो गई है. लॉकडाउन के दौरान लाखों मजदूर काम और पैसा न होने के चलते दिल्ली से पलायन कर गये थे. लेकिन कई महीनों से बेरोजगार बैठे इन मजदूरों को अब एक बार फिर काम की तलाश वापस दिल्ली की ओर ले आई है. हालांकि इनके जरिये कोरोना के संक्रमण का एक राज्य से दूसरे राज्य में फैलने का खतरा बरकरार है. इसलिए दिल्ली सरकार ये सुनिश्चित करना चाहती है कि कोरोना जांच के बाद ही इनका शहर में प्रवेश हो. इसके लिए सरकार की ओर से आनंद विहार बस अड्डे पर जांच कैम्प बनाया गया है, जहां रैपिड एंटीजन टेस्ट किट का इस्तेमाल करके लोगों की जांच की जा रही है.


13 अगस्त से इस कैम्प की शुरुआत की गई है और रोज़ाना 500-1000 के बीच टेस्ट किये जा रहे हैं. कैम्प को तीन हिस्सों में बांटा गया है. पहला रजिस्ट्रेशन काउंटर जहां बसों में आये मजदूरों को लाकर उनका रजिस्ट्रेशन कराया जाता है और उन्हें टोकन दिया जाता है. इसके बाद टेस्टिंग स्टेशन पर उन्हें भेजा जाता है, जहां स्वास्थ्यकर्मियों की टीम रैपिड टेस्ट के लिये एक-एक करके सैम्पल लेती है. सैम्पल कलेक्शन के बाद तीसरा एरिया है रिज़ल्ट ज़ोन जहां सैम्पल देकर आये लोगों को अपने रिज़ल्ट के लिये 15-30 मिनट तक इंतजार करना होता है. अगर कोई कोविड पॉजिटिव पाया जाता है तो उसे फौरन एम्बुलेंस से कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज में बने क्वारन्टीन सेंटर में भेज दिया जाता है.


सिविल डिफेंस के जवान निभा रहे अहम भूमिका
सिविल डिफेंस के जवानों की भूमिका इसमें अहम है, बस के एंट्री पॉइंट से लोगों को कैम्प तक लाने की ज़िम्मेदारी इन्हीं की होती है. इसके बाद लाये गए लोगों को लाइन में लगाकर उन्हें टोकन बांटना, फिर टेस्ट की लाइन में ले जाना, रिज़ल्ट बताना और किसी के पॉजिटिव आने पर उसे क्वारन्टीन सेंटर तक भिजवाना ये सारा काम सिविल डिफेंस के जवान करते हैं. सिविल डिफेंस के डिप्टी डिवीजन वार्डन ललित गोयल के मुताबिक करीब 50 सिविल डिफेंस के जवानों की तैनाती की गई है. इसके साथ ही मेडिकल स्टाफ की दो टीम हैं जो दो शिफ्टों में काम करती है. ललित गोयल का कहना है कि करीब 7-8 लोग रोज़ पॉजिटिव पाये जा रहे हैं.


काम की तलाश में आये मजदूरों के लिये ये जांच भी वैसे ही परेशानी का सबब है जैसे परेशानी लॉकडाउन के साथ आई थी. पहले घर वापस जाने के लिये बस की लाइन में लगे थे और अब दिल्ली में वापसी के लिये टेस्टिंग कैम्प की लाइन में लगे हैं. इनमें से कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कई किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर तक पहुंच पाये थे.


उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ से आये प्रेमपाल भी टेस्ट कराने वालों की लाइन में लगे हुए थे. प्रेमपाल उन लोगों में से हैं जो भगवान भरोसे पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़े थे. दिल्ली में एक कपड़े की फैक्टरी में सिलाई का काम करते थे. लेकिन लॉकडाउन के दौरान काम बंद हो जाने की वजह से उन्हें वापस जाना पड़ा था. प्रेमपाल ने बताया, "मार्च के महीने में लॉकडाउन के एक हफ्ते बाद घर के लिये वापस निकले थे. तब उन्हें पैदल ही जाना पड़ा था क्योंकि वहानों का आना जाना बिल्कुल बंद था. प्रेमपाल पैदल करीब 8 घन्टे तक चलकर ग्रेटर नोएडा में दादरी तक पहुंचे थे. उसके बाद शेयरिंग गाड़ी में 200 रुपए देकर अलीगढ़ तक पहुंच पाये थे.''


उस वक्त की तकलीफ को याद करके प्रेमपाल कहते हैं कि मेरे पैर थक गए थे. काम बंद हो गया था इसलिए जाना पड़ा. हालांकि अभी उनके पास दिल्ली में काम नहीं है. प्रेमपाल का कहना है, "अभी काम ढूंढेंगे. कुछ पता नहीं है कि काम मिलेगा या नहीं. अगर अलीगढ़ में ही काम मिल जाता तो फिर यहां क्यों आते अपने घर परिवार के पास ही रहते."


अपने टेस्ट रिज़ल्ट का इंतज़ार कर रहे जौनपुर के राजकुमार मिश्रा ने बताया कि वो सूरत में कपड़े की फैक्टरी में हेल्पर थे. सूरत वापस न जाकर दिल्ली काम की तलाश में आये थे. लेकिन दिल्ली में निराशा हाथ लगी. वापस गांव जाना चाह रहे थे लेकिन बस अड्डे पर टेस्ट के लिये रोक लिया गया. राजकुमार ने बताया, "लॉकडाउन के दौरान एक-डेढ़ महीना मुश्किल से काटा फिर मालिक ने जवाब दे दिया कि अपने घर निकल जाओ बाकी ज़िम्मेदारी मेरी नहीं है. क्या कर सकते थे, बिना खाये तो चलता नहीं. सूरत से कई लोग थे गाड़ी बुक करके एक साथ आये थे. ढाई तीन महीने गांव में थे. परिवार है तो पैसे की दिक्कत है ही. दिल्ली आया कई जगह काम ढूंढा लेकिन नहीं मिला अब गांव वापस जा रहा हूं. गांव में काम नहीं मिला तो मजबूरी में परदेस में निकलना पड़ा. दिल्ली में ज़्यादा फैक्टरी खुली नहीं हैं. काम ज़्यादा है नहीं जहां है भी तो पैसा बहुत कम और कई घन्टे का काम है."


सूरत के बजाय दिल्ली क्यों आये? इस सवाल के जवाब में राजकुमार मिश्रा ने कहा, "सूरत इसलिये नहीं गया क्योंकि लॉकडाउन में बहुत मुसीबत से घर पहुंचा था. मालिक ने फोन पर कहा था कि वो ज़िम्मेदारी नहीं ले सकता जब तक मशीन चलेगी तब तक पैसा मिलेगा. दो-ढाई हजार किलोमीटर दूर जाने का क्या फायदा अगर फिर काम बंद हो गया तो नमक रोटी खाने तक को नहीं मिलेगी. बच्चे परिवार को चलाने की बहुत दिक्कत है."


काफी मुसीबत झेलकर अपने गांव-घर पहुचे इन मजदूरों की मुसीबतें थमने का नाम नहीं ले रही हैं. पहले लॉकडाउन की मार और अब रोज़गार की किल्लत वापस इन्हें शहर की ओर ले आई है.


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