यूं तो इतिहास में हर तारीख के खास मायने हैं लेकिन 10 जनवरी का दिन भारत के लिए खास है. खास तौर पर हिंदी भाषी लोगों के लिए 10 जनवरी इसलिए अहम है कि क्योंकि आज का दिन 'विश्व हिंदी दिवस' के तौर पर मनाया जाता है. विश्व भर में हिंदी ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है जिसकी महती को समझते हुए भारत सरकार ने साल 2006 से हर साल 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाने का ऐलान किया था. यूं तो हिंदी ज्यादातर हिंदुस्तान से रसूख रखने वालों की तरफ से बोली, पढ़ी और लिखी जाती है, मगर इस भाषा से प्रेम करने वाले पूरे विश्व भर में फैले हुए हैं. हिंदी ने अपने चंद सिपाहियों को विश्व में ख्याति प्रदान की है जो न सिर्फ हिंदी की अपनी रचनाओं के लिए पूरे विश्व में मशहूर हैं बल्कि उन्होंने हिंदी की सेवा करने में अपना पूरा जीवन बिता दिया. हिंदी साहित्य में इन नामों को बड़े ही आदर और सम्मान से लिया जाता है. जिनमें सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' जैसा नाम शामिल है, जिन्होंने न सिर्फ अपनी लेखनी से हिंदी का सम्मान बढ़ाया है बल्कि अपने कलम से निकली चेतनाओं से आवाम के अंदर नए प्राण फूंके हैं. आइए इस कवि और इनकी अमर रचनाओं की छाया में चंद वक्त गुजार कर शब्दों और भावों के बने समागम से एक ऐसा जश्न मनाए जिसके लिए यह विश्व हिंदी दिवस वांछित है.
''आ गए प्रियंवद! केशकंबली! गुफा-गेह!
राजा ने आसन दिया. कहा:
'कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप.
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी!'
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े. लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उस को, हट गए.
सभी की उत्सुक आंखें
एक बार वीणा को लख, टिक गईं
प्रियंवद के चेहरे पर...''
'असाध्य वीणा' जैसी अपनी रचनाओं में एक ध्यानस्थ योगी की सात्विक छाया का आभास कराने वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' का जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ था. कुशीनगर, यानि महात्मा बुद्ध की निर्वाण स्थली. अज्ञेय के पिता हीरानन्द आर्कियोलॉजिस्ट थे. कुशीनगर की पुरातात्विक खुदाई के इंचार्ज पिता के अस्थाई बसेरे, यानि एक तम्बू में अज्ञेय का जन्म हुआ, उस स्तूप के बहुत निकट, जहां बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था. शायद इसलिए सत चित आनन्द की प्रतिमूर्ति यानि बुद्ध के प्रभाव में नाम रखा गया - सच्चिदानंद. अज्ञेय शुरु से ही पिता के ज़्यादा करीब रहे. पिता का काम ऐसा था जिसमें यात्राएं उनके जीवन का हिस्सा थीं. पिता की इसी यायावर वृत्ति ने अज्ञेय की प्रकृति और प्रवृत्ति का निर्माण करना शुरू किया. आगे चल कर यह प्रवृत्ति इतनी प्रखर हो गई कि अज्ञेय स्वयं के अंदर और पृथ्वी के चारों ओर की जाने वाली यात्राओं को सृजन की अनिवार्यता मानने लगे. ये कह सकते हैं कि अज्ञेय हिंदी के स्वीकार के वैश्विक यात्री थे.
अज्ञेय लंबे समय तक क्रांतिकारियों के लिए बम बनाने और अन्य गतिविधियों में व्यस्त रहे. जब भगत सिंह अंग्रेज़ पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लाहौर जेल भेज दिए गए तो आज़ाद के नेतृत्व में कुछ साथियों ने मिल कर उन्हें जेल से भगाने की तैयारी करनी शुरू कर दी. एक विस्तृत प्लान बना और अज्ञेय के हिस्से काम आया भगत सिंह को ट्रक में ले कर भागने का. अज्ञेय को ट्रक चलाने का काम सीखने के लिए पांच दिन का समय मिला था जिसमें उन्होंने पारंगत हासिल कर ली.
जेल में ही रहते हुए अज्ञेय ने 'शेखर- एक जीवनी' नामक उपन्यास लिखा. यह 1941 में प्रकाशित हुआ. बाद में इसका दूसरा भाग 1944 में प्रकाशित हुआ. जिसे कालांतर में हिंदी के 'आल टाइम बेस्ट' उपन्यास के रूप में मान्यता मिली. वस्तुतः शेखर-एक जीवनी ने व्यक्तिगत अनुभूति को पहली बार इतना गहरा लेखकीय बोध दिया. इससे पहले लेखक की निजी संवेदनाओं की परतों के ऐसे निरावरण प्रदर्शन ने कभी साहित्य में स्थान नहीं पाया था. ऐसा ही अज्ञेय की दूसरी अमर रचना 'असाध्य वीणा' में है. अगर आप आंख बंद कर के असाध्य वीणा सुनें तो आप स्वयं को भी उसी प्रकृति में लय पाएंगे, जो अपने शब्दों की शक्ति से अज्ञेय बना रहे हैं. असाध्य वीणा जैसा प्रकृति का सूक्ष्म अनुभव हिंदी कविता में अत्यंत दुर्लभ है. वह निविड़ अन्धकार में इन्द्रियों से पल पकड़ने जैसा है. असाध्य वीणा अज्ञेय के विशद, विस्तृत, ध्रुवीय और अनुभव से प्राप्त शब्दावलि का रससिक्त महालाप है.
इतिहास जयी के साथ है, यानि इतिहास विजेता ही लिखता है, यह सत्य अज्ञेय के इतिहास बोध को सहज सूचित है, इसलिए रामकथा में भी वे एक ऐसा प्रश्न ढूंढ लेते हैं जो प्रकृति पुत्रों की स्वर्ण संस्कृतियों में होने वाली सहज उपेक्षा को जायज़ प्रश्नचिन्ह में घेर कर जवाब मांगता है.
''जो पुल बनाएंगे
वे अनिवार्यत:
पीछे रह जाएंगे.
सेनाएँ हो जाएंगी पार
मारे जाएंगे रावण
जयी होंगे राम,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बन्दर कहलाएंगे...''
छायावाद के तिलिस्मी रहस्यवादी बिम्बों में लिपटी हिंदी कविता में इस तरह के प्रयोग अज्ञेय से पहले दुर्लभ हैं. अज्ञेय इस बात से जीवन भर सायास बेखबर रहे कि समकालीन साहित्य उन्हें कैसे देखता है या साहित्य के इतिहास में उन्हें किस स्थान पर रखा जाएगा. अज्ञेय समकालीन अस्वीकार के सामने स्वयं की एकांतिक और निजता में झूमती वैश्विक स्वीकृति की ध्वनि थे. उनके अस्तित्व में सबसे पहले वे स्वयं थे, उनकी घुमक्कड़ दुनिया थी और उसमें किए गए उनके अपने प्रयोग थे. अज्ञेय के लिए नायिका की पारम्परिक उपमा गुलाब में, या विजन वन वल्लरी पर डोलती जूही की कली में नहीं थी, वो तो पददलित, सर्वसुलभ लेकिन अपरिहार्य बिछली घास में थी, वो सार्थक, स्वयंभू और ज़मीनी बाजरे की कलगी में थी.
अज्ञेय अपने नाम भर अज्ञेय रहे. उनकी प्रतिभा समय-सूचित और सम्मानित रही. अपनी अनवरत साहित्य साधना के लिए उन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किए गए. अज्ञेय ने कविता, कहानी, उपन्यास, संकलन, यात्रा-वृत्तान्त, जीवनी, निबंध, संस्मरण, डायरी इत्यादि तमाम समिधाओं से हिंदी साहित्य के पावन यज्ञ में हिस्सा लिया. 4 अप्रैल 1987 को सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ब्रह्मलीन हो गए.