नई दिल्ली: तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में देश का खजाना संभालने वाले यशवंत सिन्हा ने एक बार फिर पाला बदलकर यह साबित कर दिया है कि उनकी डिक्शनरी में राजनीति का मतलब सेवा नहीं सिर्फ अपना स्वार्थ है. नौकरशाही से राजनीति में कूदकर कई बार सत्ता का स्वाद चख चुके सिन्हा के सियासी सफर को नजदीक से जानने वाले मानते हैं कि उन्होंने उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचकर ममता बनर्जी का दामन यूं ही नहीं थामा है.संसद के ऊपरी सदन में पहुंचने की लालसा उनके भीतर हिलोरे मार रही है, जिसके चलते ही उन्होंने यह फैसला लिया. अगर यह कहा जाए कि देश के राजनीतिक जहाज के वे ऐसे पंछी हैं, जो कभी एक जगह नहीं टिकता, तो गलत नहीं होगा.
बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के निजी सचिव रहते हुए सिन्हा ने अपनी इमेज कुछ ऐसी बनाई कि इकलौते वे ही गरीबों के हमदर्द नौकरशाह हैं. साल 1984 में आईएएस की नौकरी छोड़कर जनता पार्टी का सदस्य बनने वाले सिन्हा की महत्वाकांक्षा का अंदाज इसी से लगा सकते हैं कि जब 1989 में जनता दल का गठन हुआ तो वे पार्टी के महासचिव बनाए गए. तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में उन्हें मंत्री बनाने की पेशकश की गई, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि मेरा कद राज्य मंत्री का नहीं है.
यानी उन्हें तब भी कैबिनेट मंत्री ही बनना था. राजनीतिक तिकड़मों में माहिर सिन्हा आखिर अपने मंसूबों में कामयाब हो गये और तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को अपनी सरकार में उन्हें वित्त मंत्री बनाना पड़ा. सरकार गिर जाने के बाद उन्हें लगा कि अब चंद्रशेखर राजनीति में कोई बड़ा तीर मारने के काबिल नहीं रहे, तो सिन्हा ने तुरंत उनका साथ छोड़कर बीजेपी की शरण ले ली. बीजेपी में उन्हें इतना सम्मान दिया गया कि पार्टी ने संगठन के अहम पदों से लेकर देश का वित्त मंत्री तक बना दिया. लेकिन अक्सर अवसर की तलाश में रहने वाले सिन्हा को जब यह लगने लगा कि अब बीजेपी का सितारा गर्दिश में है तो उन्होंने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया.
साल 2009 में जब बीजेपी सत्ता हासिल नहीं कर पाई, तब संकट की उस घड़ी में सिन्हा ने पार्टी का साथ नहीं दिया, उल्टे नेतृत्व पर ही हमले करने शुरू कर दिए. उसके बाद वे दूसरे दलों में बड़ा पद पाने की लालसा में यहां-वहां हाथ-पैर मारते रहे, लेकिन जब कोई ठिकाना नहीं मिला और ये भी तय हो गया कि अब पार्टी उन्हें कोई बड़ा पद नहीं देने वाली तो आखिरकार 2014 में उन्होंने बीजेपी से इस्तीफा दे दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ उनकी यह खुली मुखालफत थी क्योंकि वे तो 2009 से ही खुद को पीएम पद का सबसे योग्य दावेदार मानने लगे थे.
उन्होंने एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में बड़े फख्र के साथ कहा भी है कि मुझे इस बात का पछतावा है कि 2014 के चुनावों से पहले हुई पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में मैंने पीएम पद के लिए मोदी के नाम का प्रस्ताव रखा. बीजेपी से इस्तीफा देने के बाद सिन्हा ने उन तमाम ताकतों से हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं किया जो मोदी या उनकी सरकार की विरोधी हैं. कभी वे अरविंद केजरीवाल के साथ मंच पर नजर आए, तो कभी प्रशांत भूषण के साथ.
इसे नरेंद्र मोदी की उदारशीलता ही माना जाएगा कि इतनी मुखालफत के बावजूद उन्होंने सिन्हा के पुत्र जयंत सिन्हा को 2014 में वित्त राज्य मंत्री बनाया. आज भले ही वे मंत्री नहीं हैं, लेकिन फिर भी उन्हें वित्त मंत्रालय की संसदीय स्टैंडिंग कमेटी का चेयरमैन बनाया गया है. अवसरवादी राजनीति के झंडाबरदार यशवंत सिन्हा में ममता को आखिर ऐसा क्या दिखाई दिया कि उन्हें पार्टी में लेकर अपनी मजबूत कश्ती में सुराख करने का जोखिम भरा फ़ैसला किया, यह समझ से परे है.
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