जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय पिछले कुछ सालों में सर्वाधिक चर्चा में रहने वाली यूनिवर्सिटी है. देखा जाए तो यह राजधानी दिल्ली में एक स्थान मात्र है लेकिन महसूस किया जाए तो हजारों छात्रों के लिए एक भावना है. कुछ ऐसा ही कहा गया है जे सुशील की नई किताब 'जेएनयू अनंत जेएनयू कथा अनंता' में भी. इसकी भूमिका में ही लेखक और फिल्ममेकर डॉ दुष्यंत लिखते हैं कि जेएनयू पर लिखना एक भावनात्मक यात्रा करने जैसा है. किताब पढ़ते हुए भी इस बात का एहसास होता है कि ये किताब जे सुशील की एक भावनात्मक यात्रा है.
क्या है किताब में
किताब में हाल के सालों में जेएनयू की कैंपस में हुई घटनाओं का जिक्र है चाहे वो दो छात्र संगठनों के बीच मारपीट हो या फिर उससे पहले कन्हैया कुमार से जुड़ी घटना हो. लेखक जे सुशील स्वयं जेएनयू के हिस्सा रहे हैं इसलिए इन घटनाओं पर उनका दुखी होना स्वभाविक था. एक विश्वविद्यालय जो अपनी वैचारिक विविधताओं के लिए जानी जाती रही है वो अचानक हिंसक लड़ाई पर कैसे उतर आई?
जे सुशील लिखते हैं- ''इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि जेएनयू एक वामपंथी प्रभाव वाली यूनिवर्सिटी रही है. 2014 में केंद्र में एक दक्षिणपंथी सरकार के आने के बाद टकराव की संभावना थी लेकिन ये टकराव वैचारिक न होकर राष्ट्रवाद की आड़ लेकर हमले की शक्ल में होगा ये कम लोगों ने सोचा था.'
लेखक किताब में बार-बार कहते हैं कि जेएनयू को लेकर एक गलत छवि बनाई गई है. वहां हर साल कश्मीर की आजादी को लेकर सेमिनार होते रहते हैं. लेकिन भारत तेरे टुकड़ें होंगे जैसे नारे हो या कंडोम गिनने जैसे दुष्टप्रचार, हर तरह से बस जेएनयू को बदनाम किया जा रहा है.
किताब में जएनयू के बनने की कहानी भी है. कैसे आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम पर इस विश्वविद्यालय का नाम पड़ा. कैसे विधेयक पेश किया गया और 1969 में इस विश्वविद्यालय की स्थापना हुई. इसकी भरपूर जानकारी आपको मिलेगी. लेखक जे सुशील लिखते हैं
''प्रधानमंत्री नेहरू की गुटनिरपेक्ष आंदोलन को लेकर रही दृष्टि और समाजवादी वैचारिक दृष्टिकोण ने शुरुआती दौर में जेएनयू की दिशा निर्धारित की. कैंब्रिज में पढ़े नेहरू शायद चाहते थे कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज जैसी कोई विश्वस्तरीय यूनिवर्सिटी भारत में भी बने जहां बहस को पूरी जगह मिल सके और बच्चे अंतरराष्ट्रीय संबंधों के बारे में जानें और पूरी दुनिया में नाम करें.''
जो लोग जेएनयू से बाहर के हैं उनको किताब पढ़ते हुए कई नई जानकारी मिलती है. जैसे JNU भारत की पहली यूनिवर्सिटी है जहां हिब्रू भाषा पढ़ाई जाती है. पूरी किताब में इस बात पर विशेष जोड़ दिया गया है कि 'असहमति एक ऐसा बिंदू है जिसपर जेएनयू का सिद्धांत टिका है.''
इस किताब को एक निष्पक्ष नजरिए से लिखी गई किताब इसलिए भी कह सकते हैं क्योंकि ये उन बातों को भी नहीं झुठलाती जिनमें कहा जाता है कि JNU में वामपंथी झुकाव वाले प्रोफेसर्स दक्षिणपंथी विचारों के समर्थक छात्रों के नंबर काट लेते हैं. लेखक जे सुशील लिखते हैं कि इसमें थोड़ी सच्चाई हो सकती है.
इसके अलावा किताब में आवासिय कैंपस को लेकर भी बात की गई है कि कैसे अलग-अलग नदियों के नाम पर कैंपस में होस्टल के नाम रखे गए हैं. किताब में उस सवाल पर भी चर्चा की गई है जिसमें कहा जाता है कि जेएनयू के बच्चे सब्सिडी पर पलते हैं.
सबसे महत्वपूर्ण इस विश्वविद्यालय में दाखिला कैसे मिलेगा? इसकी क्या प्रकिया है और कैसे ये दूसरे विश्वविद्यालय से अलग है इसका जिक्र भी किताब से आपको मिल जाएगा. जब आप दाखिले के बारे में पढ़ेंगे तो आपको मालूम चलेगा कि जेएनयू की एंट्रेंस परीक्षा सोलह भाषाओं में दी जा सकती है.
एक और महत्वपूर्ण चीज जिसकी जानकारी आपको इस किताब में मिलेगी वो है 'जेंडर सेंसिटाइजेशन कमिटी अगेन्स्ट सेक्सुअल हरासमेंट'. यानी छात्रों के खिलाफ होने वाले यौन शोषण को रोकने के लिए एक कमिटी जो JNU में बनी है.
JNU अपने छात्र संघ के चुनाव को लेकर सर्वाधिक चर्चा में रहता है. जे सुशील कैंपस में अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि यह चुनाव कैसे लोकतांत्रिक तरीके से होते हैं. किताब में जे सुशील अपने हॉस्टल के दिनों को याद करते हुए अपने कई सीनियर्स, साथ के छात्र और प्रोफेसर्स का जिक्र करते हैं. वो कई घटनाओं का जिक्र करते हैं जो आपके
चेहरे पर हंसी भी ला देगी. ऐसा ही एक जिक्र देखिए
'' एक रूम मेट हुआ. इतना गंदा रहता था कि पूछिए मत. स्वभाव और पढ़ने से वामपंथी. ढेर किताबें थी उसके पास लेकिन गर्मी में भी बिना नहाए दो दिन रह जाता था. अंडरवियर धोता नहीं था. खोलकर फेंक देता था और चार दिन बाद वही पहन लेता था.'
अब कैंपस है तो इश्क़ भी वहां होना तय है. जे सुशील किताब में कई प्रेम किस्सों का भी जिक्र करते हैं. ऐसा ही एक जिक्र देखिए
''गोदावरी ढाबा सबसे सुंदर ढाबा है क्योंकि इधर पेरियार है और सामने गोदावरी. गोदावरी लड़कियों का हॉस्टल है तो आगे आप समझ ही गए होंगे. लड़कियों की बात
चली है तो एक कथा और सही. एक जोड़ा था. लड़की पटना की और लड़का लखनऊ का. दोनों जगजीत सिंह के गाने सुनते और बाते करते. हम दोनों को देखते तो लगता कि प्रेम तो यही है. सर्द रातों में दोनों कंबल लेकर बाहर निकल जाते. कई दिन ऐसा देखने के बाद मैंने पूछा- इतनी ठंड में करते क्या हो? जवाब था- प्रेम
करता हूं भाई.
मैंने कहा- कमरे में प्रेम क्यों नहीं करते.
वो बोला-जो मजा प्रकृति में है वो कमरे में कहां...
दोनों घंटों पार्थसारथी रॉक्स पर बैठकर चांद को निहारते रहते थे.''
कुल मिलाकर ये किताब जैसा ऊपर कहा गया है एक भावनात्माक यात्रा है उस कैंपस के अंदर का जहां लेखक ने कई साल बिताएं हैं और इस सवाल का जवाब ढ़ूढ़ा है कि आखिर JNU क्या है
जेएनयू कोई प्रोटेस्ट मार्च नहीं है
जेएनयू कोई वामपंथियों का टीला नहीं है
जेएनयू दक्षिणपंथियों की कब्रगाह भी नहीं
एक दोस्त है वो कहता है
जेएनयू सवाल है