89 साल के देवगौड़ा के लिए कर्नाटक का चुनाव इस बार सबसे मुश्किल क्यों?
89 साल के एचडी देवगौड़ा अपने नेतृत्व में 7 चुनाव अब तक लड़ चुके हैं. प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाल चुके देवगौड़ा के लिए इस बार गढ़ और जनाधार दोनों बचाने की चुनौती है.
तारीख 12 मार्च और समय दोपहर के करीब 2 बजे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पुराने मैसूर के मांड्या में रोड शो खत्म होता है. इधर, बेंगलुरु के सरकारी आवास पर 89 साल के पूर्व पीएम और जनता दल सेक्युलर के अध्यक्ष एचडी देवगौड़ा मंड्या के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठकर रोडशो का फीडबैक लेते हैं.
कर्नाटक में चुनावी बिगुल बजने में अभी करीब 15 दिन का वक्त बचा है. चुनाव में जीत के लिए बीजेपी और कांग्रेस ने पूरी ताकत झोंक दी है. दोनों के बीच लड़ाई में जेडीएस इस बार फंसती नजर आ रही है. 2018 में जेडीएस 37 सीटें जीतकर कर्नाटक में सरकार बनाई थी.
2019 में ऑपरेशन लोटस की चपेट में कुमारस्वामी की सरकार गिर गई थी. उस वक्त जेडीएस और कांग्रेस के कई विधायक बीजेपी में शामिल हो गए थे. सरकार गिरने के बाद जेडीएस ने कांग्रेस से भी गठबंधन तोड़ लिया था. देवगौड़ा की पार्टी 2018 की तरह फिर से कर्नाटक में अकेले चुनाव लड़ रही है.
1960 के दशक में पॉलिटिक्स में एंट्री करने वाले देवगौड़ा के लिए यह चुनाव सबसे मुश्किल साबित हो रहा है. 51 साल के राजनीतिक करियर में देवगौड़ा मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक बने. खुद की पार्टी भी बनाई.
देवगौड़ा के फर्श से अर्श तक पहुंचने की सबसे बड़ी वजह उनका गढ़ ओल्ड मैसूर रहा. इस बार कांग्रेस और बीजेपी ने ओल्ड मैसूर में सेंध लगाने के लिए कई स्तर पर रणनीति तैयार की है.
जनता दल में टूट के बाद बना था जेडीएस
एचडी देवगौड़ा ने राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस से किया था, लेकिन 1962 में टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय चुनाव लड़ गए. कांग्रेस में टूट के बाद उन्होंने पुराने कांग्रेस में शामिल हो गए और कर्नाटक में पार्टी के विस्तार में जुट गए.
इंदिरा गांधी के खिलाफ जनता पार्टी का गठन हुआ तो देवगौड़ा को कर्नाटक में इसकी कमान मिली. वे लगातार 2 टर्म तक वहां के प्रदेश अध्यक्ष रहे. इसके बाद देवगौड़ा सरकार में भी शामिल हुए.
1994 आते-आते जनता दल में टूट शुरू हो गई. 1999 में जनता दल के कई नेता बीजेपी में शामिल हो गए. इसके बाद देवगौड़ा और मधु दंडवते ने मिलकर जनता दल सेक्युलर का गठन किया. जेडीएस कर्नाटक और केरल की पॉलिटिक्स में सक्रिय है.
23 साल में 2 बार सरकार बनाई
जनता दल सेक्युलर गठन के बाद एचडी देवगौड़ा ने कर्नाटक में 2 बार सरकार बनाई. सरकार बनाने के लिए देवगौड़ा की पार्टी ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ गठबंधन किया.
1999 में जेडीएस विधानसभा की 203 सीटों पर उम्मीदवार उतारा, लेकिन पार्टी को ज्यादा सफलता नहीं मिली. सिर्फ 10 सीटों पर जेडीएस को जीत मिली. 2004 में जेडीएस ने राज्य की राजनीति में बड़ा खेल किया.
पार्टी 220 सीटों पर चुनाव लड़ी और 58 सीटों पर जीत दर्ज की. जेडीएस के इतिहास में अब तक की यह सबसे बड़ी जीत मानी जाती है. चुनाव के बाद जेडीएस ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. समझौते के तहत कांग्रेस से धरम सिंह मुख्यमंत्री और जेडीएस के सिद्धरमैया उप मुख्यमंत्री बने.
यह गठबंधन 3 साल तक ही टिक पाया और देवगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी ने बीजेपी से समझौता कर लिया. इस समझौते के तहत कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनाए गए. यह समझौता भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया.
2008 के चुनाव में जेडीएस में टूट हो गई और कई नेता पार्टी छोड़ गए. इसका नुकसान भी देवगौड़ा को हुआ, लेकिन वे अपने गढ़ बचाने में कामयाब रहे. 2008 में जेडीएस को 28 सीटों पर जीत मिली. हालांकि, इस बार पार्टी को विपक्ष में ही बैठना पड़ा.
2013 में देवगौड़ा ने फिर वापसी की और उनकी पार्टी 40 सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस के मजबूत होने के बावजूद देवगौड़ा पुराने मैसूर में दबदबा कायम करने में सफल रहे.
2018 में एचडी देवगौड़ा की पार्टी 199 सीटों पर चुनाव लड़ी. पार्टी को 37 सीटों पर जीत मिली. इस बार किसी भी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जिसके बाद कांग्रेस के समर्थन से एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनाए गए.
दिलचस्प बात है कि 2004 से लेकर 2018 तक के चुनाव में देवगौड़ा की पार्टी को 18-20 फीसदी तक का वोट प्रतिशत बरकरार रहा. 2004 में जेडीएस को सबसे अधिक 20.77 फीसदी वोट मिला था.
89 साल के देवगौड़ा के लिए सबसे मुश्किल चुनाव क्यों?
5 दशक के राजनीतिक करियर में देवगौड़ा अब तक 15 से अधिक चुनाव लड़ चुके हैं. देवगौड़ा के नेतृत्व में 7 चुनाव अब तक लड़ा जा चुका है. देवगौड़ा हर बार चुनावी रिजल्ट से राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाते रहे हैं, लेकिन देवगौड़ा की मझधार इस बार बीच भंवर में फंस चुकी है. आखिर वजह क्या है, आइए विस्तार से जानते हैं...
1. बीजेपी-कांग्रेस ने मैसूर में मोर्चाबंदी कर दी है
पुराने मैसूर में विधानसभा की कुल 61 सीटें हैं और यहां की 45 सीटों पर वोक्कलिगा समुदाय का दबदबा है. ये वोटर्स हमेशा से देवगौड़ा का समर्थन करते आए हैं. यही वजह है कि जेडीएस हर चुनाव में 70-80 फीसदी सीटें इन्हीं इलाकों में जीतती रही है.
इस बार कांग्रेस और बीजेपी ने इन इलाकों में मजबूत मोर्चाबंदी कर दी है. बीजेपी ने मैसूर में 200 से अधिक सीनियर नेताओं की तैनाती कर दी है. पार्टी पुराने मैसूर के शहरी इलाकों में विशेष फोकस कर रही है.
पुराने मैसूर के मांड्या और हसन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रैली कराई जा रही है. हाल ही में कर्नाटक सरकार ने पुराने मैसूर के लिए कई परियोजना की शुरुआत की है.
बीजेपी पुराने मैसूर में अब तक 10 से ज्यादा सीटें नहीं जीत पाई है. इसलिए पार्टी की कोशिश इन इलाकों में बढ़त हासिल करने की है.
कांग्रेस ने भी पुराने मैसूर में पूरी ताकत झोंक दी है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार वोक्कलिगा समुदाय से आते हैं. 2018 में कांग्रेस को सिद्धरमैया की वजह से झटका लगा था.
कांग्रेस इसलिए इन इलाकों में डीके शिवकुमार की तैनाती की है. शिवकुमार अपने भाषण वोक्कालिगा समुदाय से मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए कांग्रेस को समर्थन देने की अपील करते हैं.
शिवकुमार बीजेपी और जेडीएस के बीच मिलीभगत का भी आरोप लगाते हैं. कांग्रेस का कहना है कि देवगौड़ा और बीजेपी ने आंतरिक समझौता किया है, जिससे कर्नाटक में वोटों का ध्रुवीकरण हो.
2. पुराने और बड़े नेता छोड़ चुके हैं पार्टी
पिछले 15 साल में देवगौड़ा की पार्टी से कई पुराने और दिग्गज नेता नाता तोड़ चुके हैं. इनमें प्रमोद माधवाराज, बीए जीविजया
सी चेंगियप्पा, सीटी प्रकाश और एच विश्वनाथ का नाम प्रमुख हैं. ये सभी नेता पुराने मैसूर से आते हैं और अब बीजेपी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं.
जमीनी नेताओं के सहारे ही देवगौड़ा पुराने मैसूर में लोगों से सीधे संपर्क में रहते थे. मांड्या और हसन में लोकल स्तर पर भी कई बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. हाल ही जेडीएस ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस उनकी पार्टी तोड़ने का काम कर रही है.
नेताओं की कमी की वजह से ही देवगौड़ा ने कांग्रेस से 2022 में जेडीएस में शामिल होने वाले सीएम इब्राहिम को कर्नाटक इकाई का अध्यक्ष बनाया है. कर्नाटक पॉलिटिक्स में इब्राहिम की छवि दलबदलू नेता की रही है.
3. परिवारवाद का आरोप, विश्वसनीयता भी खतरे में
जनता दल सेक्युलर पिछले 19 साल में 3 बार पाला बदल चुकी है. कांग्रेस और बीजेपी के साथ गठबंधन में रह चुकी है. इस बार भी गठबंधन की अटकलें लगाई जा रही थी.
गठबंधन तोड़ने और जोड़ने की रणनीति की वजह से देवगौड़ा की विश्वसनीयता पर भी असर पड़ा है. इसके अलावा देवगौड़ा पार्टी में पूरे परिवार को शामिल कर लिए हैं. पार्टी के बड़े पद पर उनके परिवार के लोगों का ही कब्जा है.
देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी विधायक दल के नेता हैं. दूसरे बेटे एचडी रेवन्ना कर्नाटक सरकार में मंत्री रह चुके हैं. रेवन्ना के बेटे प्रज्वल लोकसभा के सांसद हैं. कुमारस्वामी के बेटे निखिल जेडीएस युवा मोर्चा के अध्यक्ष हैं.
अब जाते-जाते देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने की कहान भी जान लीजिए...
1996 के चुनाव में कांग्रेस के भीतर टूट की वजह से नरसिम्हा राव की सरकार को बड़ा झटका लगा. कांग्रेस 141 सीटों पर ही सिमट गई. राम मंदिर आंदोलन के सहारे बीजेपी 161 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बन गई.
बीजेपी ने अटल बिहारी वाजपेयी को नेता चुना और सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ भी दिलवा दी, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी बहुमत साबित नहीं कर पाए.
इसी बीच जनता दल ने 13 पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बनाया. कांग्रेस ने इस मोर्चे का समर्थन कर दिया. अब बारी थी नेता चुनने की. सबसे पहले पूर्व पीएम वीपी सिंह के नाम को आगे बढ़ाया गया, लेकिन उन्होंने कुर्सी संभालने से इनकार कर दिया.
सीपीएम के ज्योति बासु को भी प्रधानमंत्री पद का ऑफर दिया गया, लेकिन पार्टी के पोलित ब्यूरो ने उनके नाम पर सहमति नहीं दी. जनता दल की बैठक में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी देवगौड़ा के नाम की सिफारिश की गई.
देवगौड़ा सीएम पद से इस्तीफा देने के लिए तैयार हो गए. कांग्रेस के समर्थन से देवगौड़ा देश की बागडोर संभाली, लेकिन वे ज्यादा दिनों तक इस पद पर नहीं रहे.
राष्ट्रीय राजनीति में मात खाने के बाद देवगौड़ा ने फिर दक्षिण की राजनीति का रूख किया. नई पार्टी बनाने के बाद उन्होंने कर्नाटक और केरल में विशेष फोकस किया.
प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने महिला आरक्षण समेत कई ऐसी योजनाओं का खाका तैयार किया, जो बाद में उनकी लोकप्रियता का कारण बना. 2019 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के समर्थन से देवगौड़ा 2020 में राज्यसभा के सदस्य बने.
पुराने मैसूर की एक रैली में उनके बेटे कुमारस्वामी ने इमोशनल अपील करते हुए कहा था कि पिता को 120 सीटों का तोहफा देना चाहता हूं, जिससे उन्हे मरने से पहले यह अहसास हो जाए कि उनकी पार्टी ठीक ढंग से चल रही है.
कुमारस्वामी के इस बयान के बाद से माना जा रहा है कि देवगौड़ा का यह अंतिम चुनाव हो सकता है.