छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 5 साल बाद कांग्रेस का तीन दिवसीय अधिवेशन हो रहा है. अधिवेशन में संगठन में जान फूंकने और 2024 के रोडमैप को लेकर कई प्रस्ताव पारित किए जाएंगे. सूत्रों के मुताबिक पचमढ़ी की तरह रायपुर में भी कांग्रेस गठबंधन और चेहरे पर बड़ा फैसला कर सकती है.


2003 में पचमढ़ी में कांग्रेस ने सामान्य विचारधारा वाले दलों से गठबंधन का प्रस्ताव पारित किया था. चुनाव पूर्व चेहरा घोषित नहीं करने का भी पार्टी ने फैसला किया था. कांग्रेस को इसका जबरदस्त फायदा मिला और 2004 में अटल बिहारी की सरकार चली गई. मनमोहन सिंह कांग्रेस गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री बनाए गए.


लगातार दो आम चुनाव में मात खाने के बाद कांग्रेस फिर पुरानी स्ट्रैटजी की ओर लौट गई है. पार्टी कई राज्यों में नए सिरे से चुनाव पूर्व गठबंधन कर सकती है. इनमें बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, केरल, झारखंड, हरियाणा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और जम्मू-कश्मीर शामिल हैं. 


गठबंधन को लेकर 2 बड़े बयान...


1. मल्लिकार्जुन खरगे, कांग्रेस अध्यक्ष- 100 नरेंद्र मोदी और 100 अमित शाह भी आ जाएं तो भी 2024 में कांग्रेस और सहयोगियों की सरकार बनेगी. बीजेपी 2024 में सत्ता से बाहर जाएगी. हम अन्य पार्टियों से बात कर रहे हैं, क्योंकि नहीं तो लोकतंत्र और संविधान चला जाएगा.


2. नीतीश कुमार, सीएम बिहार- बिहार में सभी दल मिलकर काम कर ही रहे हैं. अगर देशभर में सब मिल जाएं तो बीजेपी 100 सीटों पर सिमट जाएगी. गठबंधन का फैसला कांग्रेस को लेना है. मैं तो बस आगाह कर रहा हूं.


543 नहीं सिर्फ 370 सीटों पर फोकस
मिशन 2024 के लिए कांग्रेस 543 के बजाय सिर्फ 370 सीटों पर फोकस कर रही है. इसी को आधार बनाकर पार्टी रणनीति बना रही है. 2024 में कांग्रेस यूपी और ओडिशा में एकला चलो की नीति अपनाएगी. कांग्रेस का मुख्य फोकस दक्षिण राज्यों की 129, महाराष्ट्र और बंगाल की 90 और हिंदी बेल्ट मध्य प्रदेश-राजस्थान और छत्तीसगढ़ की करीब 65 सीटों पर है. 


बिहार और झारखंड में कांग्रेस गठबंधन के परफॉर्मेंस के भरोसे है. फिर भी इन राज्यों में कांग्रेस अधिक सीट पाने के लिए बार्गेनिंग की कोशिश में जुटी है. 


रणनीति तो ठीक लेकिन 3 पेंच फंसे
2024 जीतने के लिए कांग्रेस ने रणनीति तो बना ली है, लेकिन इसे अमलीजामा पहनाना आसान नहीं है. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी मुसीबत विपक्षी दलों का विश्वास जीतना है. 


1. सहयोगी दलों पर कन्फ्यूज राहुल- कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा राहुल गांधी बीजेपी के अलावा कई सहयोगी दलों के खिलाफ ही मोर्चा खोले हुए हैं. राहुल ने हाल ही में तृणमूल कांग्रेस को बीजेपी की भी टीम बताया था. राहुल तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर भी निशाना साध चुके हैं.


दिलचस्प बात है कि इन नेताओं और दलों का कांग्रेस कई बार समर्थन कर चुकी है. 2021 में बंगाल चुनाव के वक्त राहुल गांधी ने टीएमसी के खिलाफ प्रचार करने से इनकार कर दिया था. इसकी वजह से पार्टी को बंगाल में करारी हार हुई.


2017 में राहुल की पार्टी कांग्रेस उत्तर प्रदेश चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ चुकी है. उस वक्त यूपी में 2 लड़के का नारा खूब फेमस हुआ था.


केसीआर भी कांग्रेस की ही उपज है और मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री रह चुके हैं. अलग तेलंगाना राज्य बनने के बाद केसीआर कांग्रेस से अलग हो गए थे. 


2. ड्राइविंग सीट को लेकर लड़ाई- राजद, जेएमएम, टीएमसी, टीआरएस समेत कई क्षेत्रिय दल अपने-अपने राज्यों में ड्राइविंग सीट मांग रही है. यानी इन दलों का कहना है कि कांग्रेस यहां छोटे भाई की भूमिका में रहे. सीटों का बंटवारा भी उसी अनुसार हो.


कांग्रेस अभी तमिलनाडु में सिर्फ ड्राइविंग सीट सहयोगी दल डीएमके को दी है. यहां डीएमके बड़ी पार्टी है और कांग्रेस छोटे भाई की भूमिका में काम कर रही है.


दरअसल, कांग्रेस पुरानी गलती को फिर से नहीं दोहराना चाह रही है. 2009 में कांग्रेस की सरकार तो बन गई लेकिन कई दलों का प्रभाव भी इसी के साथ बढ़ा. इसलिए हर मुद्दे पर सरकार में गतिरोध बना रहा. 


कांग्रेस के साथ ही इसका नुकसान सहयोगी क्षेत्रिय पार्टी बीएसपी, सपा, जेएमएम, डीएमके और एनसीपी को भी हुआ. इसलिए कांग्रेस अभी तक इस मांग पर राजी नहीं है.


3. चेहरे को लेकर गतिरोध जारी- जदयू, राजद, टीएमसी, टीआरएस, सपा जैसे बड़े क्षेत्रिय दल राहुल गांधी के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं है. राजद और जदयू का कहना है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सबसे अनुभवी हैं, इसलिए उनके नाम को आगे किया जाए.


तृणमूल कांग्रेस के महासचिव अभिषेक बनर्जी ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा कि ममता बनर्जी महिला मुख्यमंत्री हैं और उन्हें केंद्र का भी अनुभव है. बीजेपी से बंगाल में अकेले ममता बनर्जी लड़ रही हैं. ऐसे में पीएम कैंडिडेट का बेस्ट ऑप्शन ममता बनर्जी हैं.


केसीआर भी किसान नेता होने का दलील देते हैं. अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए केसीआर ने तेलंगाना में पिछले महीने सपा, आप और कम्युनिष्ट पार्टी का जुटान किया था. 


पेंच सुलझाने के लिए रणनीति बदल सकती है कांग्रेस?


रायपुर अधिवेशन में कांग्रेस इन सभी पेंच को सुलझाने के लिए नई रणनीति पर काम कर सकती है. पार्टी इसके लिए 2 विकल्प तैयार कर सकती है.


1. महाराष्ट्र-बिहार और बंगाल में ड्राइविंग सीट सहयोगी को


कांग्रेस महाराष्ट्र, बंगाल और बिहार में ड्राइविंग सीट सहयोगी दल को दे सकती है. इसकी बड़ी वजह इन राज्यों में क्षेत्रिय दलों का मजबूत होना है. आइए सिलसिलेवार इसे समझते हैं...


महाराष्ट्र में लोकसभा की कुल 48 सीटें हैं. शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन को 2019 में 23 सीटें मिली थी. हालांकि, उस वक्त शिवसेना बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी और पार्टी को 18 सीटों पर जीत मिली थी. 4 साल में शिवसेना के भीतर काफी बदलाव आया है.


यहां कांग्रेस शिवसेना और एनसीपी को ड्राइविंग सीट की कमान दे सकती है. पार्टी लोकसभा चुनाव में अधिक सीटों पर जबकि विधानसभा चुनाव में कम सीटों पर लड़ने का फॉर्मूला यहां अपना सकती है.


बिहार में नीतीश कुमार के महागठबंधन में आने के बाद कांग्रेस ड्राइविंग सीट जदयू और राजद को दे सकती है. जदयू के पास अभी 16 सांसद हैं, जबकि कांग्रेस के पास 1 सीट है. बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं. पिछले दिनों राजद नेता तेजस्वी यादव ने कहा था कि राज्य में अगर अभी चुनाव हुए तो बीजेपी को सिर्फ 3 सीटें मिलेगी.


बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का दबदबा है. राज्य की कुल 42 सीटों में से टीएमसी के पास 23 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस को 2019 में सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली थी. यहां भी कांग्रेस टीएमसी को ड्राइविंग सीट दे सकती है.


2- राहुल कांग्रेस तो खरगे गठबंधन का चेहरा


कांग्रेस चेहरा पॉलिटिक्स को लेकर बड़ा दांव खेल सकती है. राहुल गांधी कांग्रेस का चेहरा हो सकते हैं, जबकि पीएम पद का संयुक्त उम्मीदवार 2024 चुनाव के बाद घोषित होगा.


कांग्रेस खेमे की रिपोर्ट की माने तो कांग्रेस आने वाले वक्त में गठबंधन दलों को एकजुट करने के लिए खरगे का मास्टर कार्ड चल सकते हैं. दरअसल, खरगे दलित चेहरा हैं और सबसे अनुभवी भी हैं. ऐसे में विपक्षी पार्टी शायद ही उनके नाम का विरोध कर पाए. 


राहुल गांधी को लेकर जो नेता अभी सहमत नहीं हैं. उनमें से कई नेता खरगे के नाम पर हामी भर सकते हैं. राहुल गांधी भी कई दफा कह चुके हैं कि सरकार बदलने से ज्यादा वे विचारधारा की लड़ाई लड़ रहे हैं. यानी राहुल की दिलचस्पी भी सरकार से ज्यादा संगठन में है.


ऐसे में विपक्षी दलों को चित करने के लिए कांग्रेस खरगे का दांव चल सकती है. खरगे को संगठन और सरकार चलाने का भी अनुभव है.