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लोकसभा चुनाव से पहले इन नेताओं का बदला रुख क्या बड़े राजनीतिक परिवर्तन की आहट है, किसकी डुबोएंगे लुटिया?

कांग्रेस नेता राहुल गांधी 'भारत जोड़ो यात्रा' पर हैं. दूसरी ओर क्षेत्रीय दलों के कई नेताओं की महत्वाकांक्षाएं भी हिलोरे मार रही हैं. बीजेपी हिंदुत्व के साथ-साथ ओबीसी राजनीति को धार देने में जुटी है.

लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र की राजनीति से लेकर राज्यों की राजनीति में परिवर्तन की बड़ी आहट सुनाई दे रही है. इस महीने के आखिरी तक देश की सबसे पुरानी पार्टी को करीब 20 साल बाद गांधी परिवार से इतर अध्यक्ष मिलने वाला है. अशोक गहलोत और शशि थरूर में से किसी को पार्टी के नेता अध्यक्ष चुनेंगे.

कांग्रेस के लिए दोनों ही नेता बहुत मायने रखते हैं. शशि थरूर भारत के दक्षिणी राज्य केरल से आते हैं. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा देश की इस हिस्से के लिए ज्यादा केंद्रित है. दूसरी ओर अशोक गहलोत पार्टी के पुराने, गांधी परिवार के वफादार और ओबीसी नेता हैं.  हिंदी पट्टी के राज्यों जहां जातिगत समीकरण बहुत मायने रखते हैं. अशोक गहलोत पार्टी के लिए थोड़ा फायदेमंद साबित हो सकते हैं. 

बिहार में जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस और वामदलों की दोबारा सरकार बनने के बाद उत्तर भारत की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन दिखाई दे रहा है. जेडीयू-आरजेडी मिलकर नीतीश कुमार को विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का चेहरा बताने में जुट गए हैं. नीतीश कुमार ने बिहार में नई सरकार बनाने के बाद दिल्ली में राहुल गांधी, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल सहित विपक्ष के कई नेताओं से मुलाकात की है.

ममता बनर्जी का बदला रुख?


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लेकिन इन मुलाकातों और विपक्षी एकता के सुर के बीच बीजेपी की धुर विरोधी टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी का रुख बदला-बदला सा नजर आ रहा है.  कुछ दिन पहले वो आरएसएस की तारीफ कर चुकी हैं. जिसकी वजह से असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस और वामदलों ने उनकी आलोचना की थी. लेकिन पश्चिम बंगाल की सीएम यही नहीं रुकी उन्होंने केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के मामले में पीएम मोदी का बचाव कर डाला. सवाल इस बात का है कि आखिर ममता बनर्जी के मन में क्या चल रहा है. माना जा रहा है कि  2019 के लोकसभा चुनाव से खुद को पीएम पद का दावेदार बता रही हैं नीतीश कुमार के अचानक से केंद्रीय राजनीति में सक्रिय हो जाने से अलग-थलग महसूस कर रही हैं. 

नीतीश की राह क्या है आसान?

नीतीश कुमार भले ही आरजेडी के साथ मिलकर बिहार में नई सरकार बनाकर खुश हों लेकिन गठबंधन में उनकी स्थिति आरजेडी के मुकाबले बेहद कमजोर है. इस समय जेडीयू के पास 43 विधायक हैं. जबकिआरजेडी के पास 79 विधायक हैं. कांग्रेस के पास 19, भाकपा माले के पास 12, भाकपा और माकपा के पास 2-2 विधायक हैं. यानी अगर जेडीयू की सीटें घटा दें तो  तो महागठबंधन के पास 114 विधायक हैं. यानी तेजस्वी को सरकार बनाने के लिए सिर्फ 8 सीटों का और इंतजाम करना है. माना जा रहा है कि नीतीश कुमार केंद्र की राजनीति के लिए बिहार की सत्ता तेजस्वी को सौंपने का मन बना चुके हैं.

मायावती के बयान पर कयास


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उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों (80) वाला राज्य है. यहां पर बीजेपी बहुत ही मजबूत स्थिति में पार्टी के 64 सांसद यहां से हैं जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह जैसे बड़े नेता शामिल हैं. इसके अलावा सूबे में योगी आदित्यनाथ की सरकार है. लेकिन बीते 4-5 दिन से बीएसपी सुप्रीमो मायावती के रुख में बदलाव दिख रहा है. यूपी विधानसभा के मानसून सत्र के पहले दिन सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पैदल मार्च निकाला था जिसे रोक दिया. इस पर मायावती ने बीजेपी सरकार की खिंचाई की है.

बीते 3 साल में पहला मौका था जब बीएसपी सुप्रीमो ने सपा नेता अखिलेश यादव के लिए राहत भरा बयान दिया है. हालांकि बीएसपी विधानमंडल दल के नेता उमाशंकर सिंह ने बीएसपी सुप्रीमो के बयान का ज्यादा मतलब न निकालने की नसीहत दी है. वहीं सपा एमएलसी और कभी बीएसपी में बड़ा चेहरा रहे स्वामी प्रसाद मौर्य ने मायावती की तारीफ करते नजर आए हैं. मायावती के बयान के बाद से कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या बिहार की तर्ज पर यूपी में भी सपा-बसपा दोबारा एक फिर साथ आ सकते हैं. हालांकि यह प्रयोग 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर सका है. लेकिन दोनों का वोटबैंक बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ा कर सकता है.

ओपी राजभर फिर समीकरण बनाने और बिगाड़ने के खेल में


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यूपी में ही एक कुछ और नेता भी इस समय काफी चर्चा में है. सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर ने जब से सपा से नाता तोड़ा है वो अखिलेश यादव के खिलाफ जमकर बयानबाजी कर रहे हैं. पूर्वांचल में कई सीटों पर राजभर समुदाय के लोग समीकरण बिगाड़ सकते हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में जिन-जिन सीटों पर इस समुदाय का वोट थोड़ा भी प्रभावी रहा है बीजेपी को वहां पर मिली है.

लेकिन अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव में हार के बाद से अपने गठबंधन को बिखरने से बचा नहीं पाए हैं. आजमगढ़ और रामपुर के लोकसभा उपचुनाव हारने के बाद ओपी राजभर ने उनको एसी कमरे में बैठकर राजनीति करने वाला नेता बता दिया. 

ओपी राजभर एक बार फिर बीजेपी के साथ नजदीकियां बढ़ाते देखे जा रहे हैं. देर रात उन्होंने सीएम योगी आदित्यनाथ से भी मुलाकात की है. इस मुलाकात के बाद उन्होंने सीएम योगी की तारीफ की है. उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री ने 'भर-राजभर' जातियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने को सहमति दी है. ओपी राजभर इसी मांग को लेकर एनडीए से अलग हुए थे. माना जा रहा है कि अब जल्दी ही भगवा खेमे दिखाई देंगे.

फारूक अब्दुल्ला का 'राम भजन'


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बात करें जम्मू-कश्मीर की तो साल 2019 की तारीख 5 अगस्त के बाद से यहां पर बहुत कुछ बदल गया है. मोदी सरकार ने इस दिन अनुच्छेद 370 रद्द करके जम्मू-कश्मीर को मिले विशेष राज्य के दर्जे को खत्म कर दिया है. इसके साथ ही राज्य को दो हिस्से में बांट दिया है जिसमें एक लद्दाख है दूसरा जम्मू-कश्मीर है. फिलहाल अभी दोनों केंद्र शासित प्रदेश हैं. इस फैसले के बाद से यहां पक्ष-विपक्ष यानी पीडीपी हो या नेशनल कॉन्फ्रेंस एक मंच पर आ गईं. कई दिनों तक इन पार्टियों के नेता नजरबंद रहे हैं. इन दो प्रमुख पार्टियों के नेताओं और राज्य के दूसरे कई छोटे दलों और राजनीतिक सगंठन विशेष राज्य के दर्जे को वापस करने की मांग कर रहे हैं. इसके लिए गुपकार नाम का एक संगठन भी बनाया गया है. लेकिन अब इसमें भी मतभेद दिख रहे हैं.  

दूसरी ओर केंद्र सरकार तमाम अंतरराष्ट्रीय दबावों, आलोचनाओं को झेलते हुए अब राज्य में विधानसभा चुनाव कराने की तैयारी शुरू कर दी है. इससे पहले चुनाव आयोग को परिसीमन की भी रिपोर्ट सौंपी गई है. जिसका भी विरोध किया जा रहा है कि भौगोलिक स्थिति को बदलते हुए सीटों का बंटवारा ऐसा किया जाएगा जिससे बीजेपी को फायदा हो.

बात करें ताजा राजनीतिक घटनाक्रम की नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारुख अब्दुल्ला और पीडीपी नेता महबूबा मु्फ्ती के बीच बयानबाजी शुरू हो गई है. 

दरअसल पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने एक वीडियो शेयर किया जिसमें कुछ मुस्लिम स्कूली छात्र 'रघुपति राघव राजा राम' भजन गाते दिख रहे हैं.

महबूबा मुफ्ती ने कहा, 'धार्मिक नेताओं को जेल में डालकर और जामा मस्जिद बंद करके  स्कूली बच्चों से हिंदू भजन गाने के निर्देश दिए जा रहे हैं. इससे भारत सरकार का कश्मीर में हिंदुत्व का एजेंडा उजागर हो गया है.'

लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने इस पर अलग राय रखी है. उन्होंने कहा, 'भारत धर्मनिरपेक्ष है. हिंदू अगर अजमेर की दरगाह में जाता है तो वो मुसलमान नहीं हो जाता है. भजन गाने में कुछ गलत नहीं है. मैं भी गाता हूं. मैं 2 नेशन थ्योरी पर विश्वास नहीं करता हूं'. उन्होंने इसके बाद पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक में ये भी कहा कि अनुच्छेद 370 को बहाल करने के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़ते रहेंगे. पार्टी कार्यकर्ताओं से फारूख ने कहा कि विधानसभा चुनाव सबसे बड़ा मौका है. खास बात ये है कि कुछ दिन पहले तक इसी मुद्दे पर फारूक अब्दुल्ला विधानसभा चुनाव के बहिष्कार की धमकी दे रहे थे.

फारूक का यह बयान अपने आप में अहम है क्योंकि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद से ही केंद्र पर हिंदुत्व को एजेंडे को लागू करने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला का यह बयान भविष्य के नए समीकरणों का संकेत भी हो सकता है. 

कुमारस्वामी की अलग खिचड़ी


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बात करें दक्षिणी राज्य कर्नाटक की तो यहां पर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों से दूरी बना रखी है. दरअसल इस राज्य में जेडीएस एक अलग ही खिचड़ी पका रही है. पूर्व मुख्यमंत्री और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी ने बीते महीने टीआरएस नेता के. चंद्रशेखर से मुलाकात की है. दोनों ने राष्ट्रीय स्तर पर एक सेक्युलर पार्टी बनाने पर चर्चा की है. 

साल 2023 में यहां पर विधानसभा चुनाव होने हैं. 2019 में कुमारस्वामी ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी लेकिन यह गठबंधन ज्यादा दिन टिक नहीं पाया था. अब वहां पर बीजेपी की सरकार है. कुमारस्वामी को लगता है सेक्युलर ताकतों को लेकर वो राज्य में बड़ी ताकत बन सकते हैं. दूसरी ओर उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा उम्र की वजह से राजनीतिक तौर ज्यादा एक्टिव नहीं है. कुमारस्वामी की कोशिश खुद की पहचान राष्ट्रीय स्तर पर भी बनाने की है. 

अगर राष्ट्रीय स्तर पर कोई तीसरी ताकत क्षेत्रीय नेताओं को बनाकर खड़ी होती है तो आने वाले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव 2024 में किसकी लुटिया डुबो देगी यह एक बड़ा सवाल है.

 कांग्रेस नेता राहुल गांधी इस समय भारत जोड़ो यात्रा पर हैं. पार्टी के सभी बड़े नेता उनके साथ हैं. लेकिन क्या कांग्रेस बिना क्षेत्रीय दलों को साथ लिए एनडीए का अकेले मुकाबला कर पाएगी? क्या छोटी राजनीतिक पार्टियां मिलकर नीतीश या केसीआर जैसे किसी नेता को अपना चेहरा बनाएंगी? 

दूसरा बीजेपी को भी यूपी और केंद्र में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है. महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर विपक्ष लगातार हवा बना रहा है. अगर सनीतीश के चेहरे के दम पर ओबीसी राजनीति के समीकरण सेंध लगती है तो यूपी में बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल हो सकती है. हालांकि नीतीश जिस कुर्मी जाति से आते हैं वो उसके सभी बड़े नेता बीजेपी के ही साथ हैं.

 

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