नई दिल्ली: देश की राजनीति में पिछले तीन दिनों से इलेक्टोरल यानी चुनावी बॉन्ड पर राजनीतिक घमासान मचा हुआ है. केन्द्र सरकार की तरफ से राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड की ये स्कीम जनवरी 2018 में लाई गई थी. लेकिन कांग्रेस ने इस पर नवंबर 2019 में जाकर आपत्तियां उठाई हैं. इलेक्टोरल बॉन्ड और उससे उपजा ये पूरा विवाद आखिर क्या है?
इलेक्टोरल बॉन्ड पर अब प्रियंका गांधी ने सवाल उठाए. उन्होंने पूछा कि क्या प्रधानमंत्री ने कर्नाटक चुनाव के दौरान गैरक़ानूनी तरीक़े से बॉन्ड की बिक्री की अनुमति दी? इलेक्टोरल बॉन्ड पर आज कांग्रेस ने संसद भवन परिसर में प्रदर्शन किया. कल कांग्रेस ने संसद के दोनों सदनों में हंगामा किया था. कांग्रेस का आरोप है कि बॉन्ड से सरकारी भ्रष्टाचार को अमलीजामा पहनाया गया है. कांग्रेस ने भी आरोप लगाया कि बीजेपी के खजाने में कालाधन पहुंचाने के लिए चुनावी बॉन्ड लाया गया.
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ये पूरा मामला है क्या?
भारत में राजनीतिक दलों की फंडिंग को लेकर पारदर्शिता नहीं है. इन दलों को अपनी आय का ब्योरा सार्वजनिक करना होता है. विवाद इस बात पर नहीं है कि राजनीतिक पार्टियों को अपने कैंपेन के लिए पैसे की जरूरत होती है, लेकिन इस पर हमेशा से विवाद है कि इन राजनीतिक पार्टियों को चंदा किस रूप में मिलता है? परंपरागत रूप से भारत में चुनावों की फंडिंग कैश, चेक से होती है. लेकिन समस्या नकदी से मिलने वाले चंदे की थी, जिसका कोई स्रोत नहीं होता था, और इस पर हमेशा ये सवाल उठता था कि राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चंदा कालाधन होता है. इसके बाद सरकार ने 2000 रुपये से ज्यादा के कैश चंदे पर रोक लगा दी. राजनीतिक दलों के चंदे में और ज्यादा पारदर्शिता लाने के लिए सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड लेकर आई.
29 जनवरी 2018 को मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम शुरू की. प्रावधानों के मुताबिक जो भारत का नागरिक हो या जिसकी कंपनी भारत में हो, वो ये इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद सकता है. पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में जिन भी रजिस्टर्ड पार्टियों को 1% वोट मिला हो, उन्हें इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए चंदा दिया जा सकता है. ये बॉन्ड सिर्फ स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ही जारी करता है. ये बॉन्ड 1,000, 10,000, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रुपये के होते हैं. हर तिमाही के शुरुआती 10 दिनों में ये बॉन्ड खरीदे जा सकते हैं. लोकसभा चुनावों वाले साल में सरकार की तरफ से 30 दिनों का और वक्त दिया जाएगा.
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इलेक्टोरल बॉन्ड पर दानदाता के नाम नहीं होगा. राजनीतिक पार्टियों को भी दानदाता बारे में पता नहीं चलेगा. लेकिन बैंक के पास सारी जानकारियां रहेंगी. बॉन्ड पर ना तो खरीदार को टैक्स देना होगा और ना ही राजनीतिक दल को टैक्स देना होगा.
अब हाल ही एक आरटीआई से ये पता चला कि जब इलेक्टोरल बॉन्ड लाने की प्रक्रिया चल रही थी, तो इन पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने आपत्ति की थी. सितंबर 2017 में RBI ने पत्र लिखकर कहा था कि इससे केन्द्रीय बैंक की साख को नुकसान पहुंचेगा और नोटबंदी से जो फायदा हुआ है, इन बॉन्ड्स से वो खत्म हो जाएगा. RBI ने ये भी कहा था कि इससे मनी लॉन्ड्रिंग बढ़ेगी. RBI की यही आपत्तियां कांग्रेस के विरोध का आधार हैं. कांग्रेस इसे घोटाला बता रही है और ब्लैक मनी को व्हाइट करने का तरीका बता रही है.
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कुछ जरूरी आंकड़ें
मार्च 2018 से अक्टूबर 2019 तक 6,128 करोड़ रुपये के बॉन्ड बिके. लोकसभा चुनाव से दो महीने पहले यानी अप्रैल और मई में 3,622 करोड़ रुपये के बॉन्ड्स बिके. आरोप ये है कि इन बॉन्ड्स का सारा फायदा सिर्फ बीजेपी को मिल रहा है. क्योंकि 2018 मार्च में कुल 221 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों को दिया गया और इसमें से भी अकेले बीजेपी को 210 करोड़ रुपये का चंदा मिला. यानी करीब 95% चंदा बीजेपी को मिला. हालांकि इसके बाद का आंकड़ा नहीं आया है, जिससे ये पता चल सके कि किस पार्टी को चुनावी बॉन्ड से कितना चंदा मिला?
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कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि मोदी सरकार ने नियमों में ऐसे बदलाव किया कि जिसका सीधा फायदा उनकी पार्टी और सरकार को मिल रहा है अब जो बड़े कॉरपोरेट्स हैं उसमें से लगभग 95 फीसदी चंदा बीजेपी को मिल रहा है और उसी वजह से हाउदी मोदी ऐसे प्रोग्राम हो पा रहे हैं और चुनावों में पैसा खर्च हो रहा है. हालांकि एक सवाल ये भी है कि ये इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम पिछले करीब दो सालों से है तो कांग्रेस अब क्यों आपत्ति जता रही है?
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