Media Life Book Review: मीडिया में जो काम करते हैं वो न्यूज़ रूम की दुनिया को अच्छे से जानते हैं लेकिन बाहर वाले इसके अंदरखाने की तस्वीर कैसे देखें ये समस्या बनी रहती है. बाहर जनता तक वही पहुंचता है जो टीवी, समाचार पत्र-पत्रिकाओं में हो, मगर बाजारवाद के इस दौर में खबर की तलाश से ज्यादा महत्वपूर्ण खबर को बना देना है.
मीडिया चाहे तो एक पल में गैरजरूरी चीजों को इतना बढ़ाकर पेश कर सकती है कि वो जनता को सबसे महत्वपूर्ण लगने लगे और सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों से ध्यान भटका भी सकती है जिससे कि वो गैरजरूरी लगने लगे. मीडिया के अंदरखाने की इसी तस्वीर को अगर जनता को देखनी है तो उनके लिए शशिकांत मिश्र की किताब 'मीडिया लाइफ' है. इस किताब के कवर पेज पर जो लिखा है वही पूरी किताब का और आज की मीडिया का भी सार है.
ड्रामा झोंक के न्यूज रोक के
किस तरह मीडिया की प्रतिद्वंदिता ने आज समाचार की भाषा और विषय के चयन के नाम पर बाजार को हावी कर दिया है. चैनल्स एक-दूसरे से आगे बढ़ने के लिए किसी भी स्तर पर जाने को तैयार हो गए हैं. खबरों का जमकर मैनिपुलेशन होने लगा है. भाषा अश्लील, फूहड़ हो गई है. प्रेजेंटेशन में बेशर्मी देखने को मिलती है. धार्मिक डिबेट शो में कैसे जनता को भड़काने का काम किया जाता है, संवेदनशील विषय पर भी कैसे मीडिया अमानवीय हो जाती है इसकी कहानी है किताब 'मीडिया लाइफ'..
'अच्छा माल है'...मसाला है...बिकने वाली आइटम है....ऐसी भाषाएं पत्रकारिता में अब आम हो गई है. जो बिकता है वही चुना जाता है. जनसरोकार से दूर हो गई है आज की मीडिया.. किताब पढ़ने के बाद आपको पता चलेगा कि लेखर आज की पत्रकारिता क्यो पत्तलकारिता कहते हैं.
अगर आपकी दिलचस्पी इस बात में है कि आज की मीडिया में खबर को कैसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है, तो इस किताब से आपको ये सभी कुछ जानने को मिलेगी. किताब की भाषा बहुत मजेदार और हास्य-व्यंग से भरपूर है.