कई नेताओं का जाना भी एक तरह से विश्व के इतिहास में एक युग का अंत होता है. सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव इस दुनिया में नहीं रहे. मिखाइल गोर्बाेचेव को एक ऐसे नेता के तौर पर याद किया जाएगा जिन्होंने शीत युद्ध (कोल्ड वार)को खत्म किया था या फिर एक तरह से कह लें कि पूरी दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध तक जाने से बचा लिया था.
हालांकि कई लोगों का मानना है कि शीत युद्ध अमेरिका और सोवियत संघ के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी इसमें बाकी दुनिया का कोई लेना-देना नहीं था. वहीं मिखाइल गोर्बाचेव को उनके ही देश रूस में अच्छा नेता नहीं माना जाता है क्योंकि वो सोवियत संघ को नहीं बचा पाए.
लेकिन पूरी दुनिया उनको इस नजरिए से देखती है कि उन्होंने बिना खून-खराबे के कोल्ड वार को खत्म कर दिया था. उन्होंने अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के साथ दोस्ताना संबंध बनाए और इसके जरिए सोवियत संघ और अमेरिका के बीच जारी सैनिक तनाव को खत्म कर दिया. इतना ही नहीं उन्होंने अमेरिका के साथ ही इस समझौते पर भी हस्ताक्षर किए जिसके तहत दोनों देश परमाणु मिसाइलों को नष्ट करेंगे. वहीं 1988-89 में उन्हीं की देखरेख में सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान में अभियान खत्म किया था जो वहां 9 सालों से जूझ रही थी. उनके इ्न्हींं फैसलों के लिए 1990 में शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया.
क्या था सोवियत संघ
सोवियत संघ 15 देशों का एक समूह था जिसमें रूस, जॉर्जिया, यूक्रेन, मालदोवा, बेलारूस, अजरबैजान, कजाकस्तान, उज्बेकिस्तान तुर्कमेनिस्तान, किर्गिजस्तान, तजाकिस्तान, एस्टोनिया, लातविया और लिथुआनिया शामिल थे. 1917 में बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत संघ बनाया गया था. जार निकोलस-2 की तानाशाही से परेशान जनता ने क्रांति की थी और व्लादिमीर लेनिन को अपना नेता चुना था. जनता को उम्मीद थी कि उनके बीच से निकला नेता उनको तानाशाही सिस्टम से मुक्ति दिला देगा. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. बाद में सत्ता स्टालिन के हाथ में आ गई और एक बार केंद्रीकृत शासन व्यवस्था लागू हो गई जो तानाशाही का एक रूप थी.
क्यों बिखरा सोवियत संघ
केंद्रीयकृत व्यवस्था में अफसरशाही अक्सर बेलगाम हो जाती है. सोवियत संघ में जनता अफसरों के रवैये परेशान थी. हर छोटे-मोटे काम में अधिकारियों से इजाजत लेना पड़ता था. इसका नतीजा ये रहा है सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था भी चरमराती चली गई.
इन सब घटनाओं के बीच मिखाइल गोर्बाचेव की राजनीतिक हैसियत बढ़ती जा रही थी. एक साधारण परिवार से आए गोर्बाचेव साल 1971 में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य बने और 1980 तक वह सबसे पावरफुल पोलितब्यूरो का भी हिस्सा हो गए. 1985 में वो महासचिव चुन लिए गए. 1988 के चुनाव में वो सोविय संघ के सबसे बड़े नेता चुन लिए गए.
सोवियत संघ के नए नेता मिखाइल गोर्बाचेव को लोकतांत्रिक मान्यताओं में आस्था थी. सत्ता में आते ही उन्होंने आर्थिक सुधार शुरू कर दिए. और आम जनता को अभिव्यक्ति की आजादी भी दी. कहा जाता है वर्षों से जनता के भीतर जो चिंगारी सुलग रही थी मिखाइल गोर्बाचेव ढील ने उसको हवा दे दी.
लेकिन इन आर्थिक सुधारों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की ओर बढ़ते सोवियत संघ में ही कट्टर कम्युनिस्टों ने इसका विरोध शुरू कर दिया. घटनाक्रम कुछ इस तरह से हुआ कि मिखाइल गोर्बाचेव को 1991 में 19 अगस्त से लेकर 21 अगस्त तक नजरबंद कर दिया गया. लेकिन कम्युनिस्टों की ओर से की गई इस तख्तापलट की कोशिश को नाकाम कर दिया गया. इसी बीच बोरिस येल्तसिन नाम एक और नए नेता का उभार हो रहा था जो लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही विश्वास करता था.
मिखाइल गोर्बचेव ने कुछ ही दिन में राष्ट्रपति के तौर पर फिर से कामकाज संभाला. लेकिन अब सरकार में उनकी स्थिति कमजोर हो गई थी. उनको बोरिस येल्तसिन के साथ एक समझौते के तहत कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ना पड़ा. इस बीच सोवियत संघ में शामिल कई देशों ने भी नया गुट बनाने की बात शुरू कर दी. इसी बीच मिखाइल गोर्बाचेव ने राजनीतिक शक्ति को सोवियत संघ में शामिल अन्य गणतांत्रिक देशों को सौंपनी शुरू कर दी. इसी बीच रूस में बोरिस येल्तसिन की अगुवाई में नया गुट बिखर रहे सोवियत संघ की सत्ता को संभालने की तैयारी में था और कई गणराज्यों को बोरिस येल्तसिन की अगुवाई में कोई दिक्कत नहीं थी.
लेकिन 25 दिसंबर 1991 की रात मिखाइल गोर्बचेव ने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया और इसके साथ ही उन्होंने सोवियत संघ को खत्म करने वाले दस्तावेज पर भी हस्ताक्षर कर दिए. रूस में आज सोवियत संघ के इतिहास को गर्व से देखा जाता है और मिखाइल गोर्बाचेव के इस फैसले ने उन्हें अपने देश में खलनायक बना दिया.