जब जहाज डूबता है, तो उसमें सवार सभी लोग मरते हैं. इसलिए सबको मिलकर जहाज को डूबने से बचाना चाहिए. इस वाकए ने देश में पहली बार विपक्षी एकता की नींव रखी थी. दरअसल, 1977 में आपातकाल हटाने के बाद इंदिरा गांधी ने चुनाव कराने की घोषणा की थी. 


इंदिरा की इस घोषणा के बाद सभी विपक्षी नेताओं को जेल से बाहर निकाला गया था. जेल से निकलने के बाद जय प्रकाश नारायण ने एक सामूहिक मीटिंग में इसी उद्घोष के सहारे विपक्ष को जोड़ने की वकालत की थी. जेपी की यह रणनीति उस वक्त कामयाब मानी गई.


ठीक 46 साल बाद जेपी की धरती और बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी एकता को लेकर एक बड़ी बैठक हो रही है. महाजुटान में शामिल हो रहे दलों का मकसद केंद्र की सत्ता को उखाड़ फेंकने की है. पिछले 46 सालों में देश में विपक्षी एकता बनाने के लिए 5 से अधिक प्रयास हुए हैं, लेकिन सिर्फ 2 बार ही यह आंशिक रूप से सफल रहा.




इंदिरा, राजीव और अटल की सरकार को उखाड़ फेंकने वाली विपक्षी मोर्चा की चर्चा उसकी असफलता की वजह से अधिक होती है. ऐसे में इस स्टोरी के 3 असफल प्रयोग के बारे में विस्तार से जानते हैं...


मुलायम ने मारी पलटी और फेल हो गई लेफ्ट की रणनीति
वर्ष 2008 में कांग्रेस सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद वाममोर्चा ने पूरे देश में विपक्षी गठबंधन बनाने की कवायद शुरू की. सीपीएम ने कर्नाटक में जेडीएस, आंध्र प्रदेश में टीडीपी, तमिलनाडु में एआईएडीएमके को साध लिया.


इसके अलावा हरियाणा में जनहित कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा की, लेकिन ऐन वक्त सपा मुखिया मुलायम पलट गए. मुलायम ने पूरे देश में 190 से अधिक उम्मीदवार उतारने की बात कह दी. 




इतना ही नहीं, मुलायम ने सीपीएम समर्थित मोर्चा को तीसरा मोर्चा कहते हुए खुद चौथा मोर्चा बनाने की घोषणा कर दी. चुनाव में तीसरा और चौथा मोर्चा पूरी तरह फ्लॉप हुआ और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी.


मनमोहन सरकार को बाद में तीसरे और चौथे मोर्चे में शामिल कई दलों ने बाहर से समर्थन देने का ऐलान कर दिया. 


घूमते रह गए चंद्रबाबू नायडू, डीएमके ने लगाया अड़ंगा
आंध्र प्रदेश में क्षेत्रीय आंदोलन तथा अशांति को बढ़ावा देने का आरोप लगाकर 2018 में एनडीए से बाहर निकलने के बाद चंद्रबाबू नायडू विपक्षी मोर्चा बनाने की कवायद में जुट गए.


नायडू अपने इस अभियान को अमलीजामा पहनाने के लिए महाराष्ट्र, बंगाल, उत्तर प्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक का दौरा किया. कई दल नायडू के साथ आने पर सहमत भी हो गए, लेकिन तमिलनाडु की पार्टी डीएमके ने खेल खराब कर दिया. 




नायडू ने मायावती, अखिलेश, ममता और शरद पवार को मोर्चा में शामिल होने के लिए राजी कर लिया था, लेकिन डीएमके ने यह कहकर गठबंधन को झटका दे दिया कि बिना कांग्रेस यह मोर्चा बीजेपी को नहीं हरा पाएगा.


चेन्नई में एक मीटिंग के दौरान एमके स्टालिन ने नायडू से कांग्रेस को भी गठबंधन में लेने की सलाह दी, लेकिन आंध्र की राजनीति को देखते हुए नायडू इस पर सहमत नहीं हुए. इसके बाद यह मोर्चा बनते-बनते खत्म हो गया.


2019 में नायडू की पार्टी की आंध्र में करारी हार हुई. आंध्र में हार के बाद टीडीपी के कई राज्यसभा सांसद बीजेपी में शामिल हो गए. नायडू अब फिर से बीजेपी के साथ गठबंधन की रणनीति पर काम कर रहे हैं.


धरा रह गया महागठबंधन का स्ट्रक्चर, लालू-नीतीश का गठबंधन भी टूटा
2014 में बीजेपी की जीत के बाद बिहार-यूपी के समाजवादी नेताओं ने मोर्चा बनाने की कवायद शुरू की. इसके तहत सबसे पहले जनता पार्टी के सभी 6 दलों को एकसाथ विलय का प्रस्ताव लाया गया. सपा, इनेलो, सजपा और जेडीएस, जेडीयू और आरजेडी को मिलाकर समाजवादी जनता दल बनाने की बात कही गई.


मुलायम सिंह को इस दल का संरक्षक भी नियुक्त किया गया, लेकिन नीतीश कुमार ने अड़ंगा लगा दिया. इसके बाद विलय की बात को छोड़कर सभी समाजवादी नेता महागठबंधन बनाने पर जोर दिया, लेकिन मुलायम ने खुद को इससे अलग कर लिया. 


बिहार में महागठबंधन ने मिलकर बीजेपी क खिलाफ 2015 का चुनाव लड़ा और इसे सफलता भी मिली, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई. 2017 में नीतीश कुमार ने आरजेडी का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया.


2017 में सपा को भी यूपी चुनाव में करारी हार मिली. बेटे और भाई के झगड़े में मुलायम खुद बैकफुट पर आ गए. इसके बाद लालू यादव को भी चारा घोटाले के मामले में जेल जाना पड़ गया.


अब विपक्षी एका के 3 किस्से... 
लालू के संख्या वाले दांव से मुलायम पस्त- 1996 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की करारी हार हुई और 545 में से सिर्फ 141 सीटें ही पार्टी जीत पाई. बीजेपी को 161 सीटों पर जीत मिली. शंकर दयाल शर्मा ने बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवा दी. 


इस पर काफी बवाल मचा और विपक्ष ने सरकार से बहुमत साबित करने के लिए कहा. अटल बिहार बहुमत साबित करने में नाकाम हो गए. इसके बाद जनता दल, वाम मोर्चा और कांग्रेस ने मिलकर नया गठबंधन तैयार किया. 


प्रधानमंत्री के चेहरे को लेकर सवाल उठा तो पहला नाम वीपी सिंह का आया, लेकिन 1990 में सियासी चोट खाए सिंह ने कांग्रेस के समर्थन से पीएम बनना स्वीकार नहीं किया. ज्योति बसु के नाम पर लेफ्ट पार्टी ने वीटो लगा दिया. 




इसके बाद मुलायम सिंह का नाम आया, जिस पर लालू ने दांव खेल दिया. लालू के इनकार से मुलायम पीएम कुर्सी से दूर हो गए. एक इंटरव्यू में मुलायम ने इसका जिक्र करते हुए कहा था कि लालू यादव ने संख्या का डर दिखाकर मोर्चा के नेताओं को डरा दिया.


मुलायम के बाद एचडी देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया. हरिकिशन सुरजीत और शरद यादव ने उनके नाम पर सबसे सहमति ली, लेकिन देवगौड़ा ज्यादा दिन तक प्रधानमंत्री नहीं रह पाए.


देवीलाल बोले, मैं ताऊ ही रहना चाहता हूं- कांग्रेस को हराने के बाद बीजेपी समर्थन से जनता पार्टी सरकार बनाने में कामयाब रही. इसके बाद 1 दिसंबर 1989 को जनता पार्टी की बैठक संसद में बुलाई गई. 


मीटिंग में सभी सांसदों ने एक स्वर से देवीलाल को अपना नेता चुना, जिसके बाद मीडिया में देवीलाल के प्रधानमंत्री बनने की खबर फ्लैश होने लगी, लेकिन देवीलाल ने यहीं पर बड़ा ऐलान कर दिया.




सांसदों को संबोधित करते हुए देवीलाल ने कहा कि मुझे लोग ताऊ कहते हैं और मैं ताऊ ही बने रहना चाहता हूं. मैं वीपी सिंह को प्रधानमंत्री के लिए समर्थन देता हूं. देवीलाल के इस ऐलान से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए.


बाद में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा में खुलासा किया कि देवीलाल को आगे करने के पीछे चंद्रशेखर को साइड लाइन करना था. दरअसल जनता पार्टी में प्रधानमंत्री के लिए वीपी सिंह के साथ ही चंद्रशेखर भी दावेदार थे. 


हालांकि, इस प्रकरण के 1 साल बाद चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बनने में कामयाब हो गए. 


3. पीएम कुर्सी के लिए कांग्रेस ने गिरा दी देवगौड़ा की सरकार- नरसिम्हा राव के बाद सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष बने. अध्यक्ष बनने के बाद केसरी ने कांग्रेस को मजबूत करने के लिए कई प्रयोग किए. उन्होंने पार्टी के भीतर सीडब्ल्यूसी का चुनाव कराया.


कांग्रेस को मजबूत करने के लिए केसरी सरकार पर भी दबाव बनाने लगे. इसी बीच उन्हें किसी ने खबर कर दी कि आपको साजिशन फंसाया जा सकता है. इसके बाद उन्होंने देवगौड़ा सरकार से समर्थन वापस लेने की बात कह दी. 


उस वक्त बजट सत्र चल रहा था, जिसके बाद सभी नेता भागे-भागे दिल्ली आए. कई राउंड की मीटिंग के बाद चेहरा बदलने पर कांग्रेस समर्थन देने को राजी हो गई. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक केसरी खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, इसलिए समर्थन वापस लिया था.


लेकिन कांग्रेस के भीतर ही उनके नाम पर सहमति नहीं बन पाई. इसके बाद उन्होंने देवगौड़ा को टारगेट कर लिया.