परिसीमन की पॉलिटिक्स ने कैसे खत्म कर दी दलितों और मुसलमानों की सियासी ताकत?
कई सामान्य सीटों पर दलित आबादी अधिक है, लेकिन वहां से दलित सांसद नहीं बन पाते हैं. रिजर्व सीट पर सवर्ण-ओबीसी जातियों के प्रभुत्व की वजह से दलित सांसद मुखर भी नहीं हो पाते हैं.
असम में विधानसभा सीटों की सीमा को नए सिरे से निर्धारण करने के लिए चुनाव आयोग की एक ड्राफ्ट से सियासी बवाल मच गया है. भारत में आजादी के बाद से ही परिसीमन पर राजनीति होती रही है. वजह आयोग की शक्ति और उसका ढुलमुल रवैया रहा है.
भारत में लोकसभा सीटों के लिए आखिरी परिसीमन 2008-09 में हुआ था. उस वक्त कुल 543 लोकसभा सीटों में से 499 सीटों की सीमाएं निर्धारित की गई थी. विवाद की वजह से असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों की लोकसभा सीटों का परिसीमन नहीं किया गया था.
परिसीमन की वजह से ही सीटों का समीकरण तय होता है और इसी समीकरण के सहारे राजनीतिक पार्टियां अपना गुणा-गणित फिट करती है. परिसीमन की वजह से ही सोमनाथ चटर्जी, शिवराज पाटिल जैसे दिग्गज नेताओं को अपनी पारंपरिक सीट गंवानी पड़ी.
असम से पहले जम्मू-कश्मीर में आयोग की ओर से कराए गए परिसीमन का विरोध हुआ था और आयोग पर केंद्रीय सत्ता के साथ काम करने का आरोप लगा था. हालांकि, चुनाव आयोग वक्त-वक्त पर इन आरोपों को खारिज करता रहा है.
चुनाव आयोग के सब कुछ सही तरीके से होने के दावों के बीच हमने परिसीमन की पॉलिटिक्स को आंकड़ों के जरिए समझने की कोशिश की है. आइए इसे विस्तार से पढ़ते हैं...
परिसीमन क्या है, असम में क्यों बवाल मचा है?
लोकसभा और विधानसभा सीटों की सीमाओं को नए सिरे से निर्धारित करने की प्रक्रिया को परिसीमन कहा जाता है. राष्ट्रपति के आदेश से चुनाव आयोग यह प्रक्रिया शुरू करती है. चुनाव आयोग परिसीमन के लिए एक आयोग बनाती है, जिसकी कमान सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस को दिया जाता है.
कमेटी में सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाता है. सुप्रीम कोर्ट के वकील ध्रुव गुप्ता के मुताबिक संविधान के अनुच्छेद 82 में कहा गया है कि हर 10 साल पर जब जनसंख्या का डेटा आ जाए, तो सीटों के आवंटन पर विचार किया जा सकता है.
डिलिमिटेशन एक्ट 2002 में परिसीमन से जुड़े नियम और कानून है. परिसीमन होने के बाद आयोग उस रिपोर्ट को विधानसभा और लोकसभा के समक्ष रखती है.
असम में परिसीमन का जो ड्राफ्ट जारी किया गया है, उसमें आयोग पर मुसलमानों की उपेक्षा का आरोप लग रहा है. मुस्लिम समुदाय का कहना है कि अगर यह ड्राफ्ट लागू हो गया तो राज्य के मुसलमानों की राजनीतिक हैसियत कम हो जाएगी.
असम में मुसलमानों की आबादी 33 प्रतिशत से अधिक है.
परिसीमन पॉलिटिक्स में कैसे कमजोर होते गए दलित और मुसलमान?
मुस्लिम बहुल सीटों को एससी कैटेगरी में रिजर्व
लोकसभा और विधानसभा की कई ऐसी सीटें हैं, जहां मुसलमानों की तादाद अधिक है. इसके बावजूद उन सीटों को एससी कैटेगरी के लिए रिजर्व कर दिया गया.
बिहार की गोपालगंज, यूपी की नगीना और बुलंदशहर, गुजरात की कच्छ और अहमदाबाद पश्चिम सीट इसका उदाहरण है. इन सभी 6 सीटों को 2009 में दलितों के लिए रिजर्व किया गया था.
सेंसस इंडिया डॉट कॉम की रिपोर्ट के मुताबिक गोपालगंज में मुसलमानों की आबादी 17 प्रतिशत से अधिक है, जबकि यहां दलित सिर्फ 12% के आसपास है.
2009 में बिजनौर जिले में नगीना सीट का अस्तित्व सामने आया. यहां 43.04% मुसलमान हैं, जबकि दलितों की संख्या सिर्फ 21% है. आयोग के परिसीमन में इस सीट को भी रिजर्व कर दिया गया.
बुलंदशहर में मुसलमानों की आबादी दलित वोटरों से 2 प्रतिशत अधिक है और ये सीट भी दलित उम्मीदवारों के लिए रिजर्व है. गुजरात की कच्छ और अहमदाबाद पश्चिम सीटों का हाल भी नगीना और बुलंदशहर की तरह है. मुस्लिम बहुल ये सीटें दलितों के लिए आरक्षित है.
जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में कानून विभाग के प्रोफेसर असद मलिक के मुताबिक परिसीमन की वजह से मुस्लिम बहुल सीटों पर भी मुसलमान सांसद/विधायक नहीं बन पाते हैं. जब सांसद-विधायक नहीं बन पाते हैं, तो उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी भी कम हो जाती है.
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि मुस्लिम बहुल सीटों को दलित कैटेगरी में रिजर्व करना एक किस्म की चालाकी है, जिससे अधिक संख्या में मुसलमान संसद या विधानसभा नहीं पहुंच पाए.
दबदबा सवर्ण-ओबीसी जातियों का पर सीट दलितों के लिए रिजर्व
बिहार की हाजीपुर और समस्तीपुर, मध्य प्रदेश की टीकमगढ़ और भिंड समेत देश की कई ऐसी सीटें हैं, जहां ओबीसी और सवर्ण जातियों का दबदबा है, लेकिन सीटें दलितों के लिए रिजर्व है.
बात हाजीपुर की करे तो यह सीट भूमिहार और यादव बहुल है. इसी तरह समस्तीपुर में कुशवाहा और यादवों का दबदबा है. मध्य प्रदेश की भिंड में ठाकुर और ब्राह्मणों की आबादी दलितों से दोगुनी है.
इसके उलट जिन सीटों पर दलितों की आबादी अधिक है, वहां की सीटें अनारक्षित कैटेगरी में है. इसमें बिहार की औरंगाबाद, यूपी की रायबरेली जैसी हॉट सीटें भी हैं.
बिहार के औरंगाबाद जिले में गया के बाद सबसे अधिक दलित रहते हैं, लेकिन यह सीट अनारक्षित है. यहां से अमूमन राजपूत बिरादरी के ही नेता सांसद चुने जाते हैं. यूपी की रायबरेली कांग्रेस परिवार का गढ़ माना जाता है.
वर्तमान में इस सीट से सोनिया गांधी लोकसभा सांसद हैं. यहां दलितों की आबादी 30 प्रतिशत है, लेकिन आयोग के परिसीमन में इसे रिजर्व नहीं किया गया.
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि परिसीमन की इसी थ्योरी की वजह से देश मुखर दलित सांसदों की कमी है. बड़े मुद्दे पर दलित सांसद राजनीतिक समीकरण की वजह से चुप्पी साध लेते हैं.
ऊना में दलितों की पिटाई, रोहिता वेमुला सुसाइड केस और अत्याचार अधिनियम के वक्त ऐसा देखा भी गया. अधिकांश सांसद इस मामले में डैमेज कंट्रोल करते ही दिखे.
दिलचस्प बात है कि सामान्य सीटों पर दलितों की बहुलता के बावजूद यहां से दलित सांसद नहीं बन पाते हैं. 2014 और 2019 में रिजर्व के बाहर के एक भी सीटों पर दलित चुनाव नहीं जीत पाए.
मुसलमान 50 प्रतिशत से अधिक पर सीटें आरक्षित नहीं
बंगाल, असम, बिहार और जम्मू-कश्मीर की 9 लोकसभा सीटें ऐसी है, जहां मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है. इसके बावजूद ये सीटें मुसलमानों के लिए आरक्षित नहीं की गई है.
हाल ही में जम्मू-कश्मीर के परिसीमन में कश्मीरी पंडितों के लिए 2 सीटों को आरक्षित करने की सिफारिश आयोग ने की थी. कई मुस्लिम संस्थाएं भी इसी तरह मुसलमानों के लिए भी सीट आरक्षित करने की मांग करती रही है.
2005 में केंद्र सरकार की ओर से बनाई गई जस्टिस राजेंद्र सच्चर कमेटी और बाद में रंगनाथ मिश्र कमेटी की रिपोर्ट में भी मुसलमानों के लिए सीट आरक्षित करने की सिफारिश की थी. इसमें कहा गया था कि दलित-आदिवासियों की तरह मुस्लिम बहुल सीटों को भी आरक्षित किया जाए, जिससे हिस्सेदारी तेजी से बढ़ सके.
सच्चर कमेटी ने परिसीमन में मुस्लिम बहुल सीटों को एससी कैटेगरी में रिजर्व कर देने को लेकर भी हिदायत दी थी. हालांकि, सच्चर कमेटी रिपोर्ट के 18 साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया.
असद मलिक कहते हैं, 'संविधान बनते वक्त भी मुसलमानों को रिजर्वेशन देने की बात उठी थी, लेकिन इसे टाल दिया गया था.'
आयोग पर सवाल क्यों, 2 वजहें...
1. परिसीमन को कोर्ट में नहीं दे सकते चुनौती- सुप्रीम कोर्ट के वकील ध्रुव गुप्ता बताते हैं, परिसीमन को किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दे सकते हैं. उनके मुताबिक परिसीमन अधिनियम की धारा 10(2) में साफ लिखा है कि आयोग का फैसला सर्वमान्य होगा.
चुनाव आयोग के एक पूर्व अधिकारी के मुताबिक परिसीमन आयोग विस्तृत अध्ययन के बाद 2 पहलुओं पर रिपोर्ट सौंपती है. पहला, लोकसभा या विधानसभा की सीटें कितनी होगी और दूसरा इन सीटों का स्ट्रक्चर क्या होगा?
इसे तय करने के बाद एक ड्राफ्ट प्रकाशित किया जाता है. इसके बाद आयोग वहां के प्रतिनिधियों और आम नागरिकों के उठाए सवालों को सुनती है और फिर उसका निदान करती है.
2. दलित आरक्षित सीट के लिए तय नियम नहीं- पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं- आदिवासी सीट रिजर्व की जो नीति है, वही नीति अगर दलितों के सीट रिजर्व में हो जाए तो ज्यादा विवाद नहीं पनपेगा.
कुरैशी के मुताबिक आदिवासियों के संख्या के आधार पर सीट रिजर्व किया जाता है, जबकि दलितों की सीट रोटेशन के हिसाब से तय किया जाता है.
कुरैशी आगे कहते हैं- यह शिकायत हमेशा से रहा है कि जहां मुस्लिम आबादी अधिक है, वहां की आबादी को परिसीमन के दौरान इधर-उधर कर दिया जाता है. इस वजह से उन इलाकों से मुसलमानों का चुनकर आना मुश्किल हो जाता है. यह चालाकी लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.