2019 में कर्नाटक के जिस कोलार में भाषण देने की वजह से सदस्यता गई, उसी कोलार से राहुल गांधी ने 2024 को लेकर बड़ी लकीरें खींचने की कोशिश की है. रविवार (16 अप्रैल) को राहुल गांधी ने एक रैली में जातीय जनगणना की मांग छेड़ दी. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि बीजेपी ओबीसी, एससी और एसटी का वोट तो लेती है, लेकिन उन्हें गिनना नहीं चाहती है.


जातीय जनगणना पर राहुल के बयान के बाद कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है. पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जातीय जनगणना की मांग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है. इधर, कांग्रेस मुख्यालय में जातीय जनगणना पर जयराम रमेश और कन्हैया कुमार प्रेस कॉन्फ्रेंस कर चुके हैं.


जातीय जनगणना के सहारे राहुल और खरगे फिर से कांग्रेस में जान फूंकने की कोशिश कर रहे हैं. पहले नीतीश-तेजस्वी और फिर शरद पवार से राहुल-खरगे की मीटिंग के बाद कांग्रेस इस मुद्दे पर मुखर हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि ओबीसी राजनीति की धुरी बनी बीजेपी के खिलाफ राहुल गांधी और कांग्रेस को बड़ा हथियार मिल चुका है?


भारत में जातीय जनगणना का इतिहास क्या है?
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी. ब्रिटिश शासकों ने साल 1931 में अंतिम बार जातीय जनगणना कराया था. उस वक्त भारत में करीब 4600 जातियों की गणना की गई थी. 


2011 में कांग्रेस की सरकार ने सहयोगी क्षेत्रीय दलों की मांग के बाद इसे हरी झंडी दी थी, लेकिन डेटा जारी होने से पहले ही कांग्रेस की सरकार बदल गई. बाद में बीजेपी की मोदी सरकार ने इसका डाटा जारी करने से इनकार कर दिया.


सुप्रीम कोर्ट को दिए हलफनामे में केंद्र सरकार ने कहा कि 2011 के डेटा में कई खामियां थी. इसी वजह से यह जारी नहीं किया गया है. प्रशासन जाति का गणना करा पाने में सक्षम नहीं है. इसकी वजह जाति में उपजातियों का होना है.


जातीय जनगणना की मांग क्यों?
जातीय जनगणना की मांग 40 साल पुरानी है. 1980 के दशक में क्षेत्रीय दलों के उभार के साथ ही इसकी मांग शुरू होने लगी. मंडल कमीशन के गठन के बाद इसकी मांग में तेजी आई. हालांकि, मंडल कमीशन ने अपनी सिफारिश 1931 में की गई जातीय जनगणना के आधार पर ही तैयार कर दिया.


डीएमके, राजद, सपा और जेडीयू जैसी पार्टियां जातीय जनगणना कराने को लेकर मुखर है. इन पार्टियों का कहना है कि जातीय जनगणना कराने से कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में आसानी होगी. सरकार के पास जब डाटा रहेगा, तो योजनाओं का ठीक ढंग से लागू किया जा सकेगा.


जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में सबसे मजबूत तर्क सामाजिक लोकतंत्र के मजबूत होने का दिया जाता है. तर्क ये भी है कि जनगणना के डेटा के जरिए ही वंचित तबकों का विकास संभव है. 


अभी जातीय जनगणना की मांग तेज क्यों, 3 प्वाइंट्स...


1. जातीय जनगणना का जिन अभी बिहार से निकला है. बीजेपी से अलग होने के बाद नीतीश कुमार ने जातिगत सर्वे का आदेश दे दिया. बिहार में जातिगत सर्वे  को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी मांग तेज हो गई है. कांग्रेस, सीपीएम और आप जैसे राष्ट्रीय पार्टियों ने इसे कराने की मांग की है. दक्षिण से लेकर उत्तर तक की क्षेत्रीय पार्टियां इसके लिए लामबंद होने लगी है. 


2. बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस और कई विपक्षी पार्टियां मिलकर एक मोर्चा बनाने की तैयारी कर रही है. मोर्चा के पास पूरे देश के लिए बड़ा और प्रभावी साझा मुद्दा नहीं है. इसलिए जातिगत जनगणना को तूल दिया जा रहा है. जातिगत जनगणना का सबसे अधिक फायदा ओबीसी को हो सकता है. ओबीसी मतदाता पूरे देश में प्रभावी है.


3. बिहार, झारखंड, यूपी, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बीजेपी का सीधा मुकाबला क्षेत्रीय पार्टियों से हैं. इन राज्यों में स्थापित क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति जाति पर ही आधारित है. लोकसभा चुनाव से पहले अपने खोए जनाधार को वापस पाने के लिए ये पार्टियां जातीय जनगणना को तरजीह दे रही है. पार्टियों को उम्मीद है कि इस कदम से जातीय लामबंद तेजी से होगा.


2019 में ओबीसी वोटर्स किसके साथ थे?
लोकसभा चुनाव 2019 के बाद सीएसडीएस और लोकनीति ने एक सर्वे किया. सर्वे के मुताबिक 2019 में 44 फीसदी ओबीसी ने बीजेपी को वोट दिया. 10 फीसदी ओबीसी बीजेपी के साथ गठबंधन में शामिल पार्टी के समर्थन में मतदान किया.


कांग्रेस के पक्ष में 15 फीसदी ओबीसी ने वोट किया, जबकि कांग्रेस के सहयोगियों को सिर्फ 7 फीसदी ओबीसी समुदाय का समर्थन मिला. सर्वे के मुताबिक बीएसपी को ओबीसी समुदाय का 5 फीसदी वोट मिला. 


हिंदी हार्टलैंड में जहां ओबीसी वोटर्स सबसे अधिक प्रभावी हैं, वहां लोकसभा की 225 सीटें हैं. बीजेपी और उसके गठबंधन को 2019 में इनमें से 203 सीटों पर जीत मिली थी. सपा-बसपा को 15 और बाकी 7 सीटें कांग्रेस को मिली थी. 


ओबीसी का साथ, फिर बीजेपी क्यों नहीं चाहती जातीय जनगणना?
पहले सुप्रीम कोर्ट और फिर संसद में बीजेपी ने जातीय जनगणना नहीं कराने की घोषणा कर चुकी है. केंद्र सरकार ने आम जनगणना को भी होल्ड कर दिया है. इसकी वजह भी जातीय जनगणना को ही माना जा रहा है. बीजेपी 2024 के चुनाव से पहले कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है.


सीएसडीएस के संजय कुमार के मुताबिक बीजेपी जातीय जनगणना कराकर फिर से राजनीति को 1990 के आसपास नहीं ले जाना चाहती है. जातीय जनगणना से जो डेटा निकलेगा, उस आधार पर क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए आरक्षण की मांग कर सकती है.


कुमार आगे बताते हैं- जातीय जनगणना होती है, तो क्षेत्रीय पार्टियों को संजीवनी मिल सकती है और इसका सीधा नुकसान बीजेपी को होगा. संजय कुमार इसके पीछे 2014 और 2019 के डेटा का उदाहरण देते हैं. 


सीएसडीएस के मुताबिक 2014 में पूरे देश में ओबीसी समुदाय का 34 फीसदी और 2019 में 44 फीसदी वोट बीजेपी को मिला. इसके अलावा, दलित और आदिवासी वोट भी बीजेपी को जमकर मिले. अगर जातीय जनगणना होती है, तो इसमें विभाजन हो सकता है.


क्षेत्रीय दल के मुद्दे को क्यों हथियार बना रही कांग्रेस?


जातीय जनगणना के मुद्दे को सरकार में रहते हुए कांग्रेस भी ठंडे बस्ते में डालती रही है, लेकिन अब पार्टी इस पर मुखर हो गई है. ऐसे में सवाल है कि आखिर क्षेत्रीय पार्टियों के इस मुद्दे को कांग्रेस तरजीह क्यों दे रही है?


1. जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव, वहां ओबीसी का दबदबा- कांग्रेस लोकसभा से पहले विधानसभा के चुनाव में इस मुद्दे को भुनाने की कोशिश में है. कांग्रेस का यह प्रयोग अगर कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सफल हो जाता है, तो पार्टी 2024 में इसे बड़ा मुद्दा बनाएगी.


कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव होने हैं. रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में 48 फीसदी, राजस्थान में 55 फीसदी और 48 फीसदी ओबीसी वोटर्स हैं. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वर्तमान में कांग्रेस की सरकार है. इन तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैं.


ओबीसी रूठा तो सीटों में हुई भारी गिरावट- सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक 2009 में कांग्रेस को ओबीसी का 25 फीसदी वोट मिला था. उस वक्त लोकसभा चुनाव में पार्टी को 206 सीटें मिली थी. हालांकि, 2014 और 2019 में ओबीसी के वोट में काफी गिरावट देखी गई. हिंदी हार्टलैंड में तो पार्टी साफ ही हो गई.


2014 और 2019 के चुनाव में कांग्रेस को ओबीसी समुदाय का 15-15 फीसदी वोट मिला था. यानी 2009 के मुकाबले 10 फीसदी का गिरावट. वोट फीसदी गिरने की वजह से कांग्रेस को सीटों का काफी नुकसान हुआ. 2014 में कांग्रेस को 44 और 2019 में सिर्फ 52 सीटें मिली. 


कांग्रेस का जातीय जनगणना का हथियार कितना असरदार?
सियासी गलियारों में सबसे बड़ा सवाल है कि जातीय जनगणना का मुद्दा कांग्रेस के लिए कितना फायदेमंद हो सकता है? आइए इसे विस्तार से जानते हैं...


2011 में जनगणना का आदेश दिया, लेकिन नहीं मिला फायदा- 2011 में जनगणना के साथ कांग्रेस की मनमोहन सरकार ने जातियों को भी गिनने का ऐलान किया था. इस मुद्दे को उस वक्त कांग्रेस ने खूब भुनाया भी था, लेकिन पार्टी को ज्यादा फायदा नहीं मिला. 


2011 के बाद हुए यूपी, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को हार मिली. लोकसभा के चुनाव में भी पार्टी से ओबीसी वोट अलग हो गए. कांग्रेस को सिर्फ 15 फीसदी ओबीसी का वोट 2014 में मिला. 


कर्नाटक में जातिगत सर्वे कराया, सरकार गई- 2013 में कर्नाटक में सरकार में आने के बाद मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने राज्य में जातिगत सर्वे का आदेश दिया. पूरे राज्य में जातियों की गिनती भी हुई, लेकिन डेटा जारी नहीं हो पाया. 


2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी बन गई. खुद के दम पर सरकार बनाने से चूक गई, जिसके बाद जेडीएस को समर्थन देकर सरकार में शामिल हुई.


ऐसे में सवाल उठ रहा है कि 2 चुनाव में इसका नुकसान झेल चुकी कांग्रेस इस पर फिर क्यों मुखर है? इसकी 2 वजह है-


1. कई राज्यों में कांग्रेस का आधार वोट बैंक (मुस्लिम, ब्राह्मण और दलित) अब खिसक चुका है. इसकी भरपाई के लिए पार्टी ओबीसी को साधने की कोशिश में जुट गई है. कांग्रेस का यह एक प्रयोग बताया जा रहा है. रायपुर में अधिवेशन में इसे जोर-शोर से उठाने का संकल्प लिया गया था.


2. बिहार, झारखंड समेत कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का वोट आसानी से कांग्रेस में ट्रांसफर हो जाए, इसलिए इस मुद्दे को कांग्रेस तेज कर रही है. कांग्रेस के लिए वोट बैंक शिफ्टिंग बड़ा मसला रहा है. इस वजह से कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करना चाहती है.