“किसको फिक्र है कि कबीले का क्या होगा
सब इसी बात पर लडते हैं कि सरदार' कौन होगा’


आज कांग्रेस की कहानी इन्हीं दो लाइनों के बीच कहीं भटक रही है. दिल्ली से लेकर जयपुर तक सरदारी सवालों के घेरे में है. जो अशोक गहलोत कल तक गांधी परिवार के लाड़ले थे आज वो काफी हद तक विलेन बन चुके हैं. गहलोत का हाल कुछ ऐसा है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद तो गया ही अब सीएम की कुर्सी पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं.


अपनी इस त्रिशंकु दशा के लिए गहलोत किसी को दोष नहीं दे सकते, क्योंकि बगावत की पूरी कहानी के लेखक और निर्देशक सीधे तौर पर वो खुद ही दिखाई दे रहे हैं. गहलोत और उनकी राजनीति को बेहद करीब से जानने वाले ये आसानी से जानते और समझ सकते हैं कि गहलोत वो नेता हैं जिनकी इजाजत के बगैर उनके समर्थक, विधायक और मंत्री कोई ऐसा कदम नहीं उठा सकते जिसकी वजह से गहलोत की साख पर बट्टा लगे या पार्टी आलाकमान के सामने वो तलब कर लिए जाएं. ऐसे में राजस्थान में पार्टी पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में विधायक दल की बैठक का बहिष्कार कैसे हो गया?


'लेकिन आप लोगों से दूर नहीं जाऊंगा'
इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले हमें राजस्थान कांग्रेस में हुए ग्रेट पॉलिटिकल ड्रामे को समझना पड़ेगा. ये तो सभी जानते है कि अशोक गहलोत कभी भी राजस्थान से जाने के इच्छुक नहीं थे. जब से कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव का एलान हुआ था तभी से गहलोत का नाम इस पद के लिए चर्चा में आ गया था. गहलोत हमेशा अपने लोगों को यही समझाते हुए कहते रहे कि मैं कही भी रहूं, लेकिन आप लोगों से दूर नहीं जाऊंगा. 


खैर, अशोक गहलोत को आलाकमान से अपने नजदीकी के चलते इस बात का पूरा भरोसा था कि उन्हें अगले कुछ महीने राजस्थान के सीएम की कुर्सी से नहीं हटाया जाएगा. इसी भरोसे के चलते वो अपने करीबी मंत्रियों और विधायकों को ये भी कह चुके थे कि वो अगले साल जनवरी में पेश किए जाने वाले मौजूदा सरकार के अंतिम बजट की तैयारी में जुट जाएं. 


क्योंकि मैं चुनाव जीतकर पहुंचा हूं...
गहलोत ने 'एक व्यक्ति एक पद' के कांग्रेसी फार्मूले को भी ये कहकर खारिज कर डाला कि उन पर ये लागू नहीं होगा क्योंकि वो सीएम के पद पर चुनाव जीत कर पहुंचे है, किसी के मनोनयन से नहीं. राहुल गांधी को अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने के लिए तैयार करने के नाम पर गहलोत केरल पहुंचे, इस समय तक सभी लोग गहलोत की बातों पर भरोसा कर रहे थे. लेकिन जब राहुल गांधी ने साफ कर दिया कि वो अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ने जा रहे और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पर एक व्यक्ति एक पद का फार्मूला लागू होगा. बस यहीं से अशोक गहलोत की बेचैनी बढ़ गई और बस राहुल के इस एलान के बाद से राजस्थान कांग्रेस में बगावत की पटकथा लिखने का काम शुरू हो गया.




कहानी ऐसे बढ़ी आगे 
राजनीति के जादूगर और खुद को हमेशा कांग्रेस आलाकमान का वफादार बताने वाले अशोक गहलोत ने पहले तो साफ-साफ घोषणा कर डाली कि वो 28 सितम्बर को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए नामांकन दाखिल करने जा रहे हैं. लेकिन गहलोत का इरादा ऐसा कभी था ही नहीं.


24 सितम्बर यानि रविवार की शाम सात बजे कांग्रेस पर्यवेक्षक अजय माकन और मल्लीकार्जुन खड़गे की मौजूदगी में विधायक दल की बैठक होगी इस एलान ने गहलोत खेमे में बेचैनी बढ़ा दी.


गहलोत और उनके नजदीकी ये जान चुके थे कि अब राजस्थान की सरदारी हाथ से जा रही है और सचिन पायलट की ताजपोशी तय है. बस अब गहलोत खेमे ने बगावत के लिए बनाये जा चुके खाके में रंग और किरदार भरने शुरू कर दिए.


रविवार की सुबह गहलोत खुद तो जयपुर से सात सौ किलोमीटर दूर पाकिस्तान सीमा पर तनोट मंदिर के लिए रवाना हो गए. गहलोत अकेले नहीं गये बल्कि अपने साथ हवाई जहाज में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा और अपने करीबी खाद्य मंत्री प्रताप सिंह को भी ले गए.


जानकार सूत्र बताते हैं कि ये एक सोची समझी योजना थी कि गहलोत बगावत के बीज बोए जाने के वक्त राजधानी जयपुर से दूर रहे. रविवार शाम चार बजते-बजते बगावत की कहानी धरातल पर नजर आने लगी. 


गहलोत अभी भी जयपुर नहीं लौटे थे और उनके खासमखास मंत्री शांति धारीवाल के घर पर मंत्री और विधायकों का जमघट लगने लगा. यहां तक की विधायक दल की सीएम आवास पर होने वाली बैठक की सूचना देने वाले सरकारी मुख्य सचेतक महेश जोशी भी धारीवाल के घर पहुंच गए. 


डेढ़ दर्जन से ज़्यादा मंत्रियों समेत करीब नब्बे विधायक धारीवाल के घर बैठकर इस्तीफे लिखते रहे और विधायक दल की बैठक का वक़्त आगे बढ़ता रहा. इसके बाद क्या हुआ ये सब जानते हैं कि दिल्ली से गए पर्यवेक्षक इंतजार करते रहे लेकिन गहलोत समर्थक विधायक बैठक में नहीं पहुंचे. गहलोत खेमे ने बैठक का बहिष्कार करने के साथ-साथ स्पीकर के घर जाकर सामूहिक इस्तीफे देकर आलाकमान पर दबाव भी बनाना शुरू कर दिया. 


सोमवार को पार्टी के दोनों पर्यवेक्षक बैरंग दिल्ली लौट गए, मगर, गहलोत तब भी अपने समर्थकों के इस दु:साहस पर कुछ नहीं बोले. ये गहलोत की रणनीति का हिस्सा था कि वो अपने लोगों की इस बगावत पर मौन रहें. गहलोत अगले चार दिनों तक यानी बुधवार तक खामोशी ओढ़े रहे.

ऐसे चला घटनाक्रम
बुधवार की रात दिल्ली रवाना होने तक गहलोत ने अपने सरकारी घर पर बने रहकर अपने खास लोगों के साथ आगे की कहानी पर काम किया. गहलोत जानते थे कि उनके लोगों की बगावत ने आलाकमान की निगाहों में उनकी तस्वीर पलट डाली है. ऐसे में कुछ ऐसा करने की योजना बनाई जानी थी जिसके जरिए डैमेज कंट्रोल किया जा सके. इस बीच ये खबर आई कि बुधवार की दोपहर गहलोत के दफ़्तर से राजभवन में राज्यपाल से मुलाकात का समय मांगा गया है. 




राजभवन से दो बार मुलाकात का समय दिया गया लेकिन गहलोत एक बार भी राज्यपाल कलराज मिश्र से मिलने नहीं गए. जानकार सूत्रों के मुताबिक गहलोत ने आलाकमान से मिलने से पहले खुद को पाक साफ बताने के लिए पूरी कहानी लिख ली थी और वो इसके लिए राज्यपाल को अपना इस्तीफा देने का मन बना चुके थे, ताकि आलाकमान को ये बता सकें कि वो सीएम की कुर्सी से चिपके नहीं रहना चाहते. ऐसे में वो सीएम पद से इस्तीफा देकर दिल्ली आए है. गहलोत ये भी दिखाना चाहते थे कि गांधी परिवार की मर्जी के मुताबिक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं.


नेताओं को था अंदेशा, राजनीतिक हत्या होनी तय
लेकिन गहलोत की इस कहानी को उन्हीं के अपनों ने दूसरी दिशा में मोड़ दिया. जैसे ही गहलोत के करीबी लोगों ने प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा, मंत्री शांति धारीवाल, प्रताप सिंह, महेश जोशी और स्पीकर डा चंद्र प्रकाश जोशी को सीएम के मंसूबों की खबर लगी. ये सभी नेता गहलोत के सरकारी घर पर उन्हें मनाने के लिए दौड़ पड़े कि अगर वो ऐसा करेंगे तो उन सभी की राजनीतिक हत्या होनी तय है. घंटों तक गहलोत और उनके करीबी लोगों की बैठकों का दौर जारी रहा और इस दौरान गहलोत का दिल्ली रवानगी का समय भी टलता रहा. 


दोपहर साढ़े तीन और शाम पांच बजे अशोक गहलोत का विशेष विमान दिल्ली की उड़ान भरने के लिए तैयार भी हो गया, लेकिन गहलोत घर से रवाना नहीं हुए. कई घंटे की बातचीत के जरिए गहलोत के करीबी उनको इस्तीफा नहीं देने के लिए मनाने में सफल रहे और गहलोत राज्यपाल से मिले बिना ही रात करीब साढ़े नौ बजे दिल्ली के लिए निकल गए.


गुरुवार की नई कहानी
दिल्ली पहुंचे अशोक गहलोत ने राजस्थान के पूरे घटनाक्रम को कांग्रेस पार्टी की छोटी-मोटी घटना बताया. लेकिन गुरुवार को सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद बाहर निकले गहलोत के हाव-भाव साफ बता रहे थे कि कुछ घंटे पहले जिसे वो छोटी मोटी घटना बता रहे थे, उस पर सोनिया गांधी किस कदर नाराज हैं.


माफीनामे के तमाम बिंदुओं को कागज में लिखकर ले गए और अपने हाथ में पकड़े अशोक गहलोत के पूरे सियासी सफर में ये रूप शायद ही किसी ने देखा होगा. सोनिया गांधी से माफा मांगने की बात कह रहे अशोक गहलोत ने मीडिया के सामने ये एलान भी कर डाला कि अब वो राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की दौड़ से बाहर हैं.


अशोक गहलोत भले ही खुद को कांग्रेस के अध्यक्ष के चुनाव की दौड़ से बाहर होने की बात कह रहे थे, लेकिन उनकी भाव भंगिमा ये साफ बता रही थीं कि सोनिया गांधी से उनकी मुलाकात में क्या कुछ हुआ होगा.


अब आगे क्या होगा
अशोक गहलोत की जादूगरी इस बार किसी पर नहीं चढ़ी ये तो अब साफ हो चुका है. लेकिन इसके बाद बची-खुची कसर के सी वेणुगोपाल के इस बयान ने निकाल दी कि अब अगले कुछ दिनों में राजस्थान के सीएम के विवाद का भी समाधान निकाल लिया जाएगा. वेणुगोपाल का ये बयान ये बताने के लिए काफी है कि आलाकमान की नजर में राजस्थान के सीएम को लेकर विवाद तो है.




अब ऐसा है तो कहा जा सकता है कि अशोक गहलोत की डगर आगे भी आसान नहीं होगी. अगले कुछ दिनों में एक बार फिर पार्टी पर्यवेक्षक जयपुर आकर विधायकों से राय शुमारी कर सकते हैं. सीएम इन वेटिंग बताए जा रहे सचिन पायलट पूरी तरह खामोश हैं. गहलोत के करीबी सुर बगावत के सभी सूत्रधार पहले से ही पार्टी अनुशासन तोड़ने के लिए नोटिस पा चुके है. ऐसे में बड़ा सवाल ये कि आगे क्या होगा? 


इस बात से कोई इनकार कर नहीं कर सकता कि राजस्थान में विधायकों की बड़ी संख्या अशोक गहलोत के पक्ष में है. ऐसे में अगर गहलोत के कुर्सी छोड़ने के लिए अगर कांग्रेस आलाकमान ने पहल की तो गहलोत खेमा आसानी से मानने वाला नहीं है. सचिन पायलट की ताजपोशी को तो गहलोत समर्थक कतई मंजूर नहीं करेंगे.


इस बार पर्यवेक्षक एक-एक विधायक से अलग-अलग मुलाकात की नीति पर काम करेंगे. ऐसे में ये संभावना बढ़ जाएगी कि सचिन समर्थक विधायकों और तटस्थ कहे जाने वाले विधायकों के साथ अभी गहलोत खेमे में दिख रहे कुछ विधायक भी आलाकमान के नाम पर पाला बदल लें. 


क्या पायलट की बगावत बनेगी रोड़ा? 
लेकिन इसके बावजूद ये तय है कि गहलोत समर्थक करीब चार दर्जन ऐसे विधायक होंगे जो सचिन का नाम किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करेंगे. ऐसे कुछ गहलोत समर्थक विधायक तो खुले आम ये एलान भी कर चुके हैं कि हमें मध्यावधि चुनाव में जाना मंज़ूर है लेकिन हम सरकार को गिराने की साजिश करने वालों को सीएम बनता नहीं देख सकते. इसलिए साफ है कि सचिन पायलट की दो साल पुरानी उनकी बगावत उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा बनेगी.




इन हालात में कांग्रेस आलाकमान को बीच का रास्ता निकालना होगा. यानि कि ना गहलोत और ना सचिन पायलट. लेकिन तीसरे नाम पर आम सहमति बनाना भी एक दूर की कौड़ी साबित हो सकता है क्योंकि गहलोत गुट के किसी अन्य नाम पायलट खेमा भी आसानी से स्वीकार नहीं करेगा.


फिर सचिन पायलट की लड़ाई भी तो सीएम की कुर्सी को लेकर ही तो है. फिर उससे कम पर सचिन भी नहीं मानने वाले हैं. ऐसे में साफ है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के बाद कांग्रेस के लिए राजस्थान की सरदारी एक बड़ी माथापच्ची साबित होने वाली है.