काला ठप्पा: उसने एक कत्ल करके अपना बदला ले लिया था
वह मेरे जाने से पहले वहां मौजूद थी. इसके साथ उसका 14-15 साल का बेटा था. उन दोनों के पास भी एक गठरी थी. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि वहां आए सभी लोगों की गठरियों में एक ही तरह के सामान होते हैं.

उसने एक कत्ल करके अपना बदला ले लिया था इसलिए मौत की सज़ा का इंतज़ार करते हुए जेल में था. लेकिन उसकी कहानी ने जेल के बाहर के शरीफ मुखौटे उतार दिए.
काला ठप्पा
अली अकबर नातिक
जेल की चारदीवारी के साथ बाहर भी जेल की ज़मीन है. यहां सारा दिन वो क़ैदी जिनको जेल से कुछ ही महीनों में छुट्टी मिलने वाली है और इस कारण उनके भागने का ख़तरा नहीं हो, यहां जो बरसों से जेल को अपना घर समझे बैठे हों, आप उन्हें बाउंड्री के आस-पास वाली ज़मीन में काम करते देख सकते हैं. एक तरह से ये क़ैदी किसी को नुक़सान पहुंचाने वाले नहीं होते हैं और जेल के अधिकारियों के निजी काम करते नज़र आते हैं लेकिन असल में जेल के अंदर और बाहर के बीच का ऐसा संपर्क हैं जो नशे की चीज़ें और संदेश के लाने ले जाने का काम देते हैं. मैंने गाड़ी जेल की दीवार के पास रोकी और पैदल गेट पार करके एक कच्चे रास्ते पर चल दिया, जो बारिश में ज़रूर कीचड़ से भर जाती होगी लेकिन उस समय वह धूल में अटी पड़ी थी. यह बड़ी पगडंडी जैसी कच्ची सड़क जेल के मुख्य द्वार तक चली गई थी. सामने घास के मैदान में कटी हुई टहनियों के मोटे तने बेतरतीब पड़े थे. उनके नीचे से खुरदरी घास की जड़ें दूर तक फैली थीं और तने के मोटे छिलकों को फाड़कर अंदर घुस रही थीं. उनके आसपास भी घास इतनी ऊंची और घनी थी कि मोटे और भारी तने इसमें छिपे हुए थे. इनसे कुछ दूर आगे जाकर लहसुन, प्याज़ और सब्ज़ियों की क्यारियां दिख रही थीं और जामुनों दो ऊंचे पेड़ भी थे, जिनके पत्ते पानी की कमी के कारण पीले पड़ रहे थे. क्यारियों में काम करने वाले क़ैदियों के पांव में बेड़ियां भी थीं जिनके कारण पांव में काले गट्टे पड़ गए थे. कुछ दूरी पर मकई और चरी (पशुओं के चारे) की फ़सलों में गाय भैंसे चर रही थीं. उनके चरवाहे भी वही क़ैदी थे. कई टुंड-मुंड पेड़ों की चोबों पर गिद्ध बैठे आराम कर रहे थे.
कुछ ही देर में मैं जेल के मुख्य द्वार पर पहुंच गया जो बड़े-बड़े बदमाशों को निगल चुका था. दरवाज़े के दाहिने पट में एक छोटी मगर लोहे की मज़बूत खिड़की थी जिसमें पैदल क़ैदियों को धक्के मार कर अंदर किया जाता है. क़ैदी अगर ध्यान से काम न ले तो उसका सिर बुरी तरह से टकरा जाने का ख़तरा है. दरवाज़े के दाईं ओर सैकड़ों मुलाक़ाती अपने सामान के साथ दूर तक बैठे थे.
मेरे पास उस क़ैदी के लिए कुछ सामान भी था. दूध, बिस्कुट, डबलरोटी और रोज़मर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें. बैग काफ़ी भारी था. मैं भी इन्हीं मुलाक़ातियों में शामिल हो गया, जो मेरे आने से पहले लंबी कतार बनाए खड़े थे. मुझे उनके वहां पहले आ जाने पर बहुत कोफ़्त हुई लेकिन उसे जाहिर नहीं किया जा सकता. यहां दो केबिन थे, जहां दो पुलिस वाले ग़ुस्सा पैदा कर देने वाली धीमी गति से माल का ब्योरा दर्ज कर रहे थे. मैं इसके अलावा कुछ भी नहीं कर सकता था कि अपमानजनक इंतज़ार और बाद में उससे पैदा होने वाली उकताहट जैसी दो मुश्किलों पर काबू रखूं.
जुलाई के गर्मी के दिन थे. दो-तीन शीशम के पेड़ों का साया भी था लेकिन यह साया इस लंबी लाइन से हटकर था, जो केबिन के सामने लगी थी. पंक्ति में खड़ा होने वाला हर इंसान इस साए से वंचित था. मुलाक़ातियों में अधिक संख्या बूढ़ी महिलाओं और पुरुषों की थी जिनके चेहरों पर सदियों बेनूरी, हसरतें और पीड़ा साफ देखे जा सकते थे. जेल के दानव जैसे दरवाज़े के सामने उनकी स्थिति उन बेकार और सड़ी हुई हड्डियों जैसी थी जिन्हें बेपरवाई से फेंक दिया गया हो. अचानक मेरी नज़र उस महिला पर जा पड़ी जिसके कारण मैं वहां था. वह मेरे जाने से पहले वहां मौजूद थी. इसके साथ उसका 14-15 साल का बेटा था. उन दोनों के पास भी एक गठरी थी. क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि वहां आए सभी लोगों की गठरियों में एक ही तरह के सामान होते हैं. वाहियात एकरूपता के साथ जिसे चुराने से भी घिन आती है.
उसकी उम्र 45 साल के आसपास थी. मैंने उस औरत से औपचारिक अभिवादन किया और सामान उसके लड़के को सौंप दिया, जो इस लाइन में अब चौथे नंबर पर था. इसके बाद मैंने पुलिस वाले के पास जाकर कुछ पैसे के साथ सारी बात समझा दी और हम दोनों के सामान मेरे ही नाम पर दर्ज करने का फ़ैसला किया गया. यह सब कुछ करने के बाद मैं फिर गेट पर आ गया. और मंज़ूरी का ख़त एक कारिंदे को पांच सौ रुपए के साथ सुपरिंटेंडेंट जेल के पास भिजवा दिया. एक घंटे की बोझिल थकान और अंधेरी दहलीज़ की बदबूदार ख़ामोशी के बाद मुझे उस क़ैदी से मिलने की इजाज़त मिल गई.
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(अली अकबर नातिक की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)
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