चक्रवर्ती का स्तम्भ
जयशंकर प्रसाद
‘बाबा यह कैसे बना ? इसको किसने बनाया ? इस पर क्या लिखा है ?’ सरला ने कई सवाल किए. बूढ़ा धर्मरक्षित, भेड़ों के झुण्ड को चरते हुए देख रहा था. हरी टेकरी झारल के किनारे सन्ध्या के आतप की चादर ओढ़कर नया रंग बदल रही थी. भेड़ों की मण्डली उस पर धीरे-धीरे चलती हुई उतरने-चढ़ने में कई रेखा बना रही थी.
अब की ध्यान आकर्षित करने के लिए सरला ने धर्मरक्षित का हाथ खींचकर उस स्तम्भ को दिखलाया. धर्मरक्षित ने निश्वास लेकर कहा – ‘बेटी, महाराज चक्रवर्ती अशोक ने इसे बनवाया था. इस पर शील और धर्म की आज्ञा खुदी है. चक्रवर्ती देवप्रिय ने यह नहीं विचार किया कि ये आज्ञाएँ बक-बक मानी जाएँगी. धर्मोन्मत्त लोगों ने इस स्थान को ध्वस्त कर डाला. अब विहार में डर से कोई-कोई भिक्षुक ही कभी दिखाई पड़ता है.’
वृद्ध यह कहकर उद्विग्न होकर कृष्ण सन्ध्या का आगमन देखने लगा. सरला उसी के बगल में बैठ गई. स्तम्भ के ऊपर बैठा हुआ आज्ञा का रक्षक सिंह धीरे-धीरे अन्धकार में विलीन हो गया.
थोड़ी देर में एक धर्मशील कुटुम्ब उसी स्थान पर आया. जीर्ण स्तूप पर देखते-देखते दीपावली हो गई. गन्ध-कुसुम से वह स्तूप अर्चित हुआ. अगरु की गन्धय कुसुम-सौरभ तथा दीपमाला से वह जीर्ण स्थान एक बार आलोकपूर्ण हो गया. सरला का मन उस दृश्य से पुलकित हो उठा. वह बार-बार वृद्ध को दिखाने लगी, धार्मिक वृद्ध की आँखों में उस भक्तिमयी अर्चना से जल-बिन्दु दिखाई देने लगे. उपासकों में मिलकर धर्मरक्षित और सरला ने भी भरे हुए हृदय से उस स्तूप को भगवान् के उद्देश्य से नमस्कार किया.
टापों के शब्द वहाँ से सुनाई पड़ रहे हैं. समस्त भक्ति के स्थान पर भय ने अधिकार कर लिया. सब चकित होकर देखने लगे. उल्काधारी अश्वारोही और हाथों में नंगी तलवार! आकाश के तारों ने भी भय से मुँह छिपा लिया. मेघ-मण्डली रो-रोकर मना करने लगी, किन्तु निष्ठुर सैनिकों ने कुछ न सुना. तोड़-ताड़, लूट-पाट करके सब पुजारियों को, ‘बुतपरस्तो’ को बाँधकर उनके धर्म-विरोध का दण्ड देने के लिए ले चले. सरला भी उन्हीं में थी.
धर्मरक्षित ने कहा – ‘सैनिको, तुम्हारा भी कोई धर्म है ?’
एक ने कहा – ‘सर्वोत्तम इस्लाम धर्म.’
धर्मरक्षित – ‘क्या उसमें दया की आज्ञा नहीं है.’ उत्तर न मिला.
धर्मरक्षित – ‘क्या जिस धर्म में दया नहीं है, उसे भी तुम धर्म कहोगे ?’
एक दूसरा – ‘है क्यों नहीं ? दया करना हमारे धर्म में भी है. पैगम्बर का हुक्म है, तुम बूढ़े हो, तुम पर दया की जा सकती है. छोड़ दो जी, उसको.’ बूढ़ा छोड़ दिया गया.
धर्म- – ‘मुझे चाहे बाँध लो, किन्तु इन सबों को छोड़ दो. वह भी सम्राट था, जिसने इस स्तम्भ पर समस्त जीवों के प्रति दया करने की आज्ञा खुदवा दी है. क्या तुम भी देश विजय करके सम्राट हुआ चाहते हो ? तब दया क्यों नहीं करते ?’
एक बोल उठा – ‘क्या पागल बूढ़े से बक-बक कर रहे हो ? कोई ऐसी फिक्र करो कि यह किसी बुत की परस्तिश का ऊँचा मीनार तोड़ा जाए.’
सरला ने कहा – ‘बाबा, हमको यह सब लिए जा रहे हैं.’
धर्म- – ‘बेटी, असहाय हूँ, वृद्ध बाँहों में बल भी नहीं है, भगवान् की करुणा का स्मरण कर. उन्होंने स्वयं कहा है कि – ‘संयोग: विप्रयोगन्ता:.’
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(जयशंकर प्रसाद की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)