गुल्ली डंडा: यह सब खेलों का राजा है
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था. मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा. दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली ऊंगलियां, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट. गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है.
गुल्ली डंडा
प्रेमचंद
हमारे अंग्रेजी दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूंगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है. अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूं, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूं. न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की. मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया.
विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उसके सामान महंगे होते हैं. जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता. यहां गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अंगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई.
स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है. किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाएं, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं. अंगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है. गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से आंख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टांग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे. यह अपनी-अपनी रूचि है. मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है.
वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियां काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब...जब...घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं. अम्मां की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचार-धारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है; और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूं, न नहाने की सुधि है, न खाने की. गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया-भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है.
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था. मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा. दुबला, बंदरों की-सी लम्बी-लम्बी, पतली-पतली ऊंगलियां, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट. गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है. मालूम नहीं, उसके मां-बाप थे या नहीं, कहां रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली-क्लब का चैम्पियन. जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी. हम सब उसे दूर से आते देख, उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयां बना लेते थे.
एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे. वह पदा रहा था. मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है. मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र-विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दांव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था.
मैं घर की ओर भागा. अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ था.
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला-मेरा दाँव देकर जाओ. पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो.
‘तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहूं?’
‘हां, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा.'
‘न खाने जाऊं, न पीने जाऊं?’
‘हाँ! मेरा दांव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते.'
‘मैं तुम्हारा गुलाम हूं?’
‘हां, मेरे गुलाम हो.’
‘मैं घर जाता हूँ, देखूं मेरा क्या कर लेते हो!’
‘घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है. दांव दिया है, दांव लेंगे.'
‘अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था. वह लौटा दो.
‘वह तो पेट में चला गया.'
‘निकालो पेट से. तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद?’
‘अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया. मैं तुमसे मांगने न गया था.'
‘जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दांव न दूंगा.'
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है. आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा. कौन नि:स्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है. भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं. जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दांव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पांचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे. यह सरासर अन्याय था.
पूरी किताब फ्री में जगरनॉट ऐप पर पढ़ें. ऐप डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें.
(प्रेमचंद की कहानी का यह अंश प्रकाशक जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)