पण्डित मोटेराम की डायरी: मुझे उसमें लिखने को कुछ सूझता ही न था
कई साल पहले एक बार एक पुस्तक वाले ने मुझे एक डेरी भेंट की थी. तब मैंने उस पर एक महीने तक अपना हाल लिखा; लेकिन मुझे उसमें लिखने को कुछ सूझता ही न था. रात को सोने से पहले घण्टों बैठा सोचता-क्या लिखूँ. लिखने लायक कोई बात भी हो?
पण्डित मोटेराम की डायरी
प्रेमचंद
क्या नाम कि कुछ समझ में नहीं आता कि डेरी और डेरी फार्म में क्या सम्बन्ध! डेरी तो कहते हैं उस छोटी-सी सादी सजिल्द पोथी को, जिस पर रोज-रोज का वृत्तान्त लिखा जाता है और जो प्राय: सभी महान पुरुष लिखा करते हैं और डेरी फार्म उस स्थान को कहते हैं जहाँ गायें-भैंसें पाली जाती हैं और उनका दूध, मक्खन, घी तैयार किया जाता है. ऐसा मालूम होता है, डेरी फार्म इसलिए नाम पड़ा कि जैसे डेरी में नित्य-प्रति का समाचार लिखा जाता है, उस तरह नित्य-प्रति दूध-मक्खन बनता है. जो कुछ हो, मैंने अब डेरी लिखने का निश्चय कर लिया है.
कई साल पहले एक बार एक पुस्तक वाले ने मुझे एक डेरी भेंट की थी. तब मैंने उस पर एक महीने तक अपना हाल लिखा; लेकिन मुझे उसमें लिखने को कुछ सूझता ही न था. रात को सोने से पहले घण्टों बैठा सोचता-क्या लिखूँ. लिखने लायक कोई बात भी हो? यह लिखना कि प्रात:काल उठा, मुँह-हाथ धोया, स्नान किया, तिलक-चन्दन लगाया, पूजन किया, यजमानों से मिला, कहीं साइत बाँचने गया; फिर लौटकर भोजन किया और सोया. तीसरे पहर फिर उठा, भंग छानी, फिर स्नान किया, फिर तिलक लगाया और कथा बाँचने चला गया; लौटकर फिर भोजन किया और सो रहा. यह सब लिखना मुझे अच्छा न लगता था.
इसलिए उस डेरी पर मैंने धोबी के कपड़ों और आमदनी-खर्च लिखकर उसे पूरा किया. जब से वह डेरी समाप्त हुई, तब से खर्च-आमदनी का हिसाब लिखना छोड़ दिया और धोबी के कपड़ों का हिसाब पण्डिताइन के जिम्मे डाल दिया.
लेकिन अब से फिर डेरी लिखना आरम्भ कर रहा हूँ, इसका क्या कारण है? मैंने सुना है कि इससे आयु बढ़ती है, और चारों पदार्थ हाथ आ जाते हैं. इसलिए अब मैं फिर भगवान् का नाम लेकर, और गणेशजी के सामने शीश झुकाकर डेरी लिखना आरम्भ करता हूँ. ओम शान्ति: शान्ति: शान्ति:. क्या नाम कि आजकल साम्यवाद और समष्टिवाद की बड़ी चर्चा सुन रहा हूँ. साम्यवाद का अर्थ यह है कि सभी मनुष्य बराबर हों. तो मैं अपने साम्यवादी विद्वानों से जो इस विषय के आचार्य हैं, जैसे-श्री सम्पूर्णानन्द, आचार्य नरेन्द्रदेवजी और आचार्य श्रीप्रकाशजी से पूछना चाहता हूँ कि सब मनुष्य कैसे बराबर हो सकते हैं?
आचार्य नरेन्द्रदेवजी मुझे क्षमा करें या न करें, मगर उनके जैसे तीन आचार्य मेरे पेट में समा सकते हैं, फिर यह कैसा साम्यवाद? इसका मतलब तो यही हो सकता है कि या मैं वामन रूप धारण कर लूंगा वह विराट धारण कर लें.
अच्छा, अब दूसरी बात लीजिए. धन तो आप सबका बराबर कर देना चाहते हैं; लेकिन कृपा करके यह बतलाइए कि आप सबके पेट कैसे बराबर कर देंगे? आचार्य नरेन्द्रदेवजी एक-दो फुलके और आध घूँट दूध पीकर रह सकते हैं; मगर मुझे तो पूजा करने के बाद, मध्याह्न, तीसरे पहर और रात को, चार बार तर माल चकाचक चाहिए, जिसमें लड्डू, हलवा, मलाई, बादाम, कलाकन्द आदि का प्राधान्य हो.
अगर आपका साम्यवाद इसकी गारण्टी करे कि वह मुझे इच्छापूर्ण भोजन देगा तो मैं उस पर विचार कर सकता हूँ और अगर आप चाहते हों कि मैं भी दो फुलके और तोले भर दूध और दो तोले भाजी खाकर रहूँ तो ऐसे साम्यवाद को मेरा दूर ही से प्रणाम है. मैं धन नहीं माँगता; लेकिन भोजन आँतफाड़ चाहता हूँ, अगर इस तरह की गारण्टी दी गयी, तो वचन देता हूँ कि मैं और मेरे अनेक मित्र साम्यवादी बनने को तैयार हो जाएँगे.
लेकिन एक भोजन ही से तो काम नहीं चलता. कपड़ा ही ले लीजिए. आपको एक कुरता और एक टोपी चाहिए. कुरते में एक गज से अधिक खद्दर न लगेगा. मैं लम्बी अँगरखी पहनता हूँ, जिसमें सात गज से कम कपड़ा नहीं लगता. मैंने दरजी के सामने बैठकर खुद कटवाया है और इसका विश्वास दिलाता हूँ कि इससे कम में मेरी अँगरखी नहीं बन सकती. फिर बारह गज का साफा, ५ गज की चादर ऊपर से. साम्यवाद इसकी गारण्टी ले सकता है? धन लेकर मुझे क्या करना है, लेकिन भोजन और वस्त्र तो चाहिए ही.
आप कहेंगे, काम सबके बराबर करना पड़ेगा. मैं स्वीकार करता हूँ, अगर कोई सज्जन घड़ी भर पूजा करें, तो मैं दो घड़ी कर दूँगा; वह घड़ी भर स्नान करें तो मैं दो घड़ी पानी में रह सकता हूँ, वह एक घड़ी शास्त्रार्थ करें तो मैं भोजन-पूजन आदि को छोडक़र दिन भर शास्त्रार्थ कर सकता हूँ. इसमें मैं किसी से पीछे हटने वाला नहीं.
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(प्रेमचंद की कहानी का यह अंश जगरनॉट बुक्स की अनुमति से प्रकाशित)